राम पुनियानी

तेल की अपनी हवस की खातिर इराक में ‘नरसंहार के हथियारों’ की फर्जी अफवाह फैलाकर जिस तरह अमरीका की अगुआई में एक समूचे राष्ट्र को नेस्त-नाबूद किया गया, हाल में अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी की कहानी भी उससे मिलती-जुलती है। अमरीका आज जिन्हें क्रूर आतंकवादी कहता नहीं अघाता वे एक जमाने में खुद उसी की पहल पर खडे किए गए थे।

अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की वापसी के नतीजे में वहां तालिबान सत्ता में आ गए हैं। वहां का घटनाक्रम चिंता पैदा करने वाला है। वहां के अल्पसंख्यकों और मुसलमानों ने देश से किसी भी तरह भाग निकलने के जिस तरह के प्रयास किए हैं वे दुःखद और दिल को हिला देने वाले थे। इस घटनाक्रम ने पूरी दुनिया का ध्यान अफगानिस्तान की ओर खींचा है। तालिबान के पिछले शासनकाल को याद किया जा रहा है, जिस दौरान उन्होंने महिलाओं का दमन किया था, पुरूषों के लिए तरह-तरह के कोड निर्धारित किए थे और ‘शरिया कानून’ का अपना संस्करण देश पर लाद दिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों का ध्वंस भी किया था।

इस सबसे उनका चरित्र दुनिया के सामने आया था। कुछ लोगों को यह उम्मीद थी कि तालिबान सुधर गए होंगे, परंतु उनके शुरूआती निर्णयों से तो ऐसा नहीं लगता। यह दुःखद है कि भारत में कुछ मुसलमानों ने तालिबान के सत्तासीन होने का स्वागत किया। भारत के अधिकांश मुसलमान अफगानिस्तान के घटनाक्रम से दुःखी और सशंकित हैं और उन्होंने तालिबान सरकार की नीतियों का विरोध किया है। फिल्म अभिनेता नसीरूद्दीन शाह और गीतकार जावेद अख्तर जैसे लोगों ने खुलकर तालिबान की नीतियों और हरकतों की निंदा की है।  

यह सब अफगानिस्तान में घट रहा है, परंतु भारत का ‘गोदी मीडिया,’ जो सत्ताधारी दल की तरफदारी और उसके विरोधियों पर हमला करने के लिए जाना जाता है, तालिबान शासन के भयावह पहलुओं को उजागर करने में काफी उत्साह दिखा रहा है। जो कुछ कहा जा रहा है वह सच हो सकता है, परंतु उस पर इतना अधिक जोर दिया जा रहा है कि ऐसा लग रहा है मानो तालिबान भारत के लोगों के लिए सबसे बड़ी समस्या हैं।

तालिबान की कुत्सित हरकतों को उजागर करने में गोदी मीडिया इस हद तक डूब गया है कि उसे न तो भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी दिख रही है, न दलितों और महिलाओं पर बढते हुए अत्याचार और ना ही किसानों के आंदोलन जैसे मुद्दे। देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने की घटनाओं को गोदी मीडिया निरपेक्ष ढंग से प्रस्तुत नहीं कर रहा है। वह ऐसा दिखा रहा है, मानो उन पर अत्याचार के लिए धार्मिक अल्पसंख्यक स्वयं जिम्मेदार हैं। मुसलमानों के प्रति नफरत का भाव, जिसे साम्प्रदायिक संगठन पहले ही जमकर हवा दे रहे थे, गोदी मीडिया के कारण और गहरा और गंभीर होता जा रहा है।

तालिबान के बारे में खबरें जिस तरह से प्रस्तुत की जा रही हैं उससे ऐसा लग रहा है मानो तालिबान दुनिया के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इस्लामिक मूल्यों का मूर्त रूप हैं। तालिबान की निंदा के नाम पर भारतीय मुसलमानों को संदेह के घेरे में डाला जा रहा है जिससे उनका अलगाव और बढ़ रहा है। सवाल है कि क्या तालिबान दुनिया के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या वे कुरान या इस्लाम के मूल्यों के प्रतिनिधि हैं?

गोदी मीडिया इस बात की पड़ताल ही नहीं करना चाहता कि आखिर तालिबान का उद्भव कैसे हुआ था और उसके पीछे क्या राजनीति थी। वह इस बात पर भी चर्चा नहीं करना चाहता कि क्या कारण है कि इंडोनेशिया (जहां विश्व की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है) और उसके जैसे अन्य देशों में तालिबान की तरह के दमनकारी और कट्टरपंथी संगठनों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्या तेल की राजनीति का तालिबान और अलकायदा जैसे कट्टरपंथी धार्मिक समूहों से संबंध नहीं जोड़ा जाना चाहिए? परंतु यह इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि यह भारत में चल रही साम्प्रदायिक राजनीति की प्रगति में अवरोधक होगा, क्योंकि इससे इस मीडिया के नियंता कारपोरेटों और इन कारपोरेटों के बल पर सत्ता में आई पार्टी के आर्थिक-राजनीतिक हित प्रभावित होंगे।  

औपनिवेशिक काल में यूरोपीय ताकतों ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपने उपनिवेश स्थापित कर उनका आर्थिक शोषण किया। उत्तर-औपनिवेशिक काल में अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरा, परंतु उसने अपने उपनिवेश स्थापित नहीं किए और अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए एक अलग रणनीति अपनाई। इसी रणनीति के अंतर्गत अमरीका ने पश्चिम-एशिया के कच्चे तेल के संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए मुस्लिम युवकों को इस्लाम के प्रतिगामी संस्करण में प्रशिक्षित करना शुरू किया। ‘शीत युद्ध’ के दौर में साम्राज्यवादी देश ‘स्वतंत्र दुनिया’ बनाम ‘कम्युनिस्ट दुनिया’ के नाम पर अपनी राजनीति करते थे। तत्कालीन सोवियत संघ ने कई देशों के स्वाधीनता संग्रामों का समर्थन किया जो अमरीका और उसके साथियों को तनिक भी रास नहीं आया। अमरीका ने सैन्य बल का उपयोग कर अपनी राजनीति किस तरह आगे बढ़ाई इसका एक दुखद उदाहरण वियतनाम है।  

सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया जो एक बड़ी भूल थी। अमरीका ने सोवियत कब्जे वाले अफगानिस्तान में कट्टरपंथी मुस्लिम समूहों को प्रोत्साहन देना शुरू किया। सऊदी अरब ने भी मुस्लिम युवकों को प्रशिक्षित करने में मदद की, परंतु पाकिस्तान के मदरसों में तालिबान, मुजाहिदीन और अलकायदा को जन्म देने का मुख्य श्रेय अमरीका को जाता है। इन मदरसों में जो प्रशिक्षण दिया जाता था उसका पाठ्यक्रम वाशिंगटन से अनुमोदित होता था। इन मदरसों की स्थापना और संचालन का पूरा खर्च अमरीका उठाता था और इनमें मुस्लिम युवकों के दिमाग में जहर भरने का काम किया जाता था। अमरीकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ और उसकी पाकिस्तानी समकक्ष ‘आईएसआई’ ने संयुक्त रूप से मुस्लिम युवकों को कट्टरपंथी बनाया और उन्हें आधुनिक हथियार उपलब्ध करवाए।  

इसका उद्देश्य था कि किसी भी तरह अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सेनाओं को हराया जाए। इनमें से कुछ लड़ाके अमरीकी राष्ट्रपति भवन ‘व्हाईट हाउस’ तक भी पहुंचे थे। सन् 1985 में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अपने ओवल आफिस में इनकी मेहमाननवाजी करते हुए कहा था कि “ये सज्जन नैतिक दृष्टि से अमरीका के संस्थापकों के समतुल्य हैं।” दुनिया के सबसे खतरनाक और जालिम आतंकियों का जन्म ‘सीआईए’ की चालबाजियों से हुआ था।  

‘सेक्रेट्री ऑफ स्टेट’ हिलेरी क्लिंटन ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि अमरीका ने ‘तालिबान’ और ‘अलकायदा’ को धन उपलब्ध करवाया था। आज दुनिया के अधिकांश मुसलमान ‘तालिबान,’ ‘अलकायदा’ और उनके जैसे चरमपंथी तत्वों की नीतियों और कारगुजारियों को तिरस्कार और नफरत की दृष्टि से देखते हैं। सन् 2016 में ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमानों के सबसे बड़े सर्वेक्षण की रिपोर्ट ‘व्हाट मुस्लिम्स वांट’ में कहा गया था कि 10 में से 9 ब्रिटिश मुसलमान आतंकवाद को सिरे से खारिज करते हैं।  

दरअसल, पश्चिम-एशिया, अमरीकी साम्राज्यवाद की तेल और सत्ता की लिप्सा का शिकार हुआ है। आतंकवादियों के हाथों मारे जाने वाले लोगों में मुसलमानों का बहुमत है। पाकिस्तान में अब तक सत्तर हजार से अधिक व्यक्ति आतंकी हमलों में अपनी जान गंवा चुके हैं। इनमें वहां की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो शामिल हैं। विडंबना यह है कि आतंक की जिस मशीनरी को अमरीका ने स्वयं खड़ा किया था उसे ही 9/11 के हमले के बाद अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ कहना शुरू कर दिया। दुनिया के मीडिया ने भी इस शब्दावली को बिना सवाल उठाए स्वीकार कर लिया।

भारत में मुस्लिम समुदाय को पहले ही संदेह की नजरों से देखा जाता था। अमरीका की नीतियों के कारण पश्चिम एशिया में आतंकवाद की जड़ें पकड़ने से मुसलमानों के बारे में नकारात्मकता के भाव में और बढ़ोत्तरी हुई। मीडिया की यह जिम्मेदारी है कि वह किसी भी मुद्दे की गहराई में जाकर सच की पड़ताल करे। अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ है वह बहुत पुराना इतिहास नहीं है। उसके बारे में जानकारियां अनेक पुस्तकों में उपलब्ध हैं। ‘गोदी मीडिया’ को चाहिए कि वह सच का अन्वेषण करे, चीजों की जड़ों तक जाए ना कि विघटनकारी ताकतों के हाथों का खिलौना बना रहे।(सप्रेस)  

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