डॉ. सुधीर सक्सेना
भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों में सियासत में खानदानों के वर्चस्व की परंपरा रही है। पाकिस्तान में पीएम के कूचे से इमरान खान नियाजी की बेआबरू-विदाई के उपरांत शाहबाज शरीफ के पीएम हाउस की देहरी तक पहुंचने को इसी रवायत का निर्वाह माना जा सकता है। गौरतलब है कि शाहबाज पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ के छोटे भाई हैं और उन्हें मौकों के लिहाज से तीन बार और मोहलत के मान से सबसे ज्यादा सालों के लिए पंजाब का चीफ मिनिस्टर बने रहने का फख्र हासिल है।
पाकिस्तान के लिए संडे इस नाते मानीखेज रहा कि इस वैश्विक छुट्टी के दिन लोगों को इमरान की छुट्टी की खबर मिली। शनिवार को रात देर गये पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान ने ‘आखिरी गेंद तक लड़ने’ का राग आलाप रहे बड़बोले और जिद्दी इमरान खान की छुट्टी कर दी। 167 मेंबरों के दस्तखत से पेश नो-कांफिडेंस मोशन को उन सात दीगर मेंबरों का भी समर्थन मिला, जिन्होंने प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। सदन में पराजय से इमरान ने किसी भी प्रधानमंत्री के पद पर पांच साल पूरे न कर पाने का मिथक को बरकरार रखा। असेंबली के फैसले ने इस बात की भी तस्दीक कर दी कि पाकिस्तान में जम्हूरियत की जमीन सख्त नहीं है, लिहाजा वहां अभी भी फौज को ठेंगा दिखाकर हुकूमत करना आसान नहीं है।
अगर्चे इमरान नियाजी फौज के मुखिया जनरल बाजवा से पंगा नहीं लेते तो शायद उन्हें बतौर पीएम कुछ और दिनों की मोहलत मिल गयी होती। उनके चिट्ठी लहराने से पाकिस्तान में परिवर्तन के वास्ते किसी अमेरिकी षडयंत्र की पुष्टि तो नहीं होती, अलबत्ता तय है कि पाक हुक्मरान के लिए व्हाइट हाउस की नाराजगी मायने रखती है।
पाकिस्तान में सियासत, सेना, कार्पोरेट और राजनय में अमेरिका की चाबी भरे हुए खिलौनों की कमी नहीं है। बिला शक धुंधलके की गुंजाइश इसलिए नहीं है, क्योंकि पीएमएल (नवाज) की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मरयम नवाज ने पहले ही साफ कर दिया है कि अविश्वास प्रस्ताव के पारित होने पर शाहबाज प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। मरयम पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बेटी होने के नाते शाहबाज की भतीजी होती हैं। बिलावल भुट्टो ने भी इसी आशय के संकेत दिये हैं। शाहबाज सन् 2018 में नेशनल असेंबली के चुनाव में पीएम-शिप के दावेदार थे, लेकिन उनके नसीब में इंतजार बदा था। ढाई साल इंतजार के बाद अब यह नौबत आई है कि वे बेमेल पार्टियों के कुनबे के बूते कुछ अर्सा के लिए ऐसे मुल्क के प्रधानमंत्री बन सकते हैं, जो बदहाली, बदइंतजामी और बदमिजाजी के कठिन दौर से गुजर रहा है।
शाहबाज शरीफ 13 अगस्त, 2018 से नेशनल असेंबली के सदस्य हैं और विपक्ष के नेता भी। वे पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। 23 सितंबर सन् 1951 को जनमे शाहबाज के पिता कारोबारी थे और कारोबार के सिलसिले में अक्सर अनंतनाग आया-जाया करते थे। शरीफ की मां पुलवामा की थी। शरीफ परिवार अमृतसर में आ बसा था, लेकिन बंटवारा हुआ तो परिवार लाहौर चला गया। सनद के बाद शाहबाज ने भी कारोबार संभाला, किन्तु सन् 80 के दशक में उन्होंने सियासत में प्रवेश किया। सन् 1988 में लाहौर से पंजाब विधानसभा का पहला चुनाव जीतने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1990 में वे स्टेट असेंबली और नेशनल असेंबली दोनों के लिए लड़े और जीते, मगर उन्होंने नेशनल को वरीयता दी। सन् 97 में वे पहली दफा पंजाब के सीएम बने, लेकिन दो साल बाद ही ‘कू-दे-ता’ ने उनकी कुर्सी छीन ली। उन्हें सपरिवार भागकर दुबई जाना पड़ा, जहां से वे सन् 2007 में लौट सके। तदंतर वे 2008 से 2018 तक पंजाब के सीएम रहे।
शाहबाज अपने भाई नवाज से ज्यादा दौलतमंद माने जाते हैं और मनी लांड्रिंग को लेकर वे गिरफ्तार भी हुए। उन पर मुकदमे अभी भी चल रहे हैं। बतौर पीएम कामयाबी के लिए उन्हें ‘तनी हुई रस्सी पर नट’ जैसा कौशल प्रदर्शित करना होगा। शाहबाज के लिए अच्छा होगा कि बाजवा (यानी फौज) सियासत में दखल से बाज आये। उनकी राह पुरखार है। उन्हें माली हालत सुधारनी है। भारत से रिश्तों को परिभाषित करना है और फौज व अमेरिका को यकसां साधना है। जाहिर है कि चुनौतियां कम नहीं हैं, लेकिन पड़ोसी देश पाकिस्तान में जम्हूरियत, खुशहाली और शांतिप्रियता ‘बिग ब्रदर’ भारत के हित में है।
[block rendering halted]