संदर्भ : फलस्तीन(हमास)-इस्रायल युद्ध

कुमार प्रशांत

हाल के फलस्तीन(हमास)-इस्रायल युद्ध के बाद अब इस वैश्विक समस्या के हल की गरज से तरह-तरह की आवाजें उठने लगी हैं। महात्मा गांधी होते तो वे इस मसले पर क्या कहते? प्रस्तुत है,गांधी के नजरिए से फलस्तीन-इस्रायल समस्या पर कुमार प्रशांत के विशेष लेख की पहली कडी।

दस मई 2021 को शुरू हुआ फलस्तीन-इस्रायल युद्ध 11 दिनों तक चला और 66 फलस्तीनी बच्चों समेत 248 नागरिकों को मार कर तथा 2000 को बुरी तरह घायल कर, अब विराम कर रहा है. दूसरी तरफ इसी युद्ध में, इसी अवधि में फलस्तीनी रॉकेटों की मार से दो बच्चों समेत 12 इस्रायली नागरिक भी मारे गये हैं. इन आंकड़ों के बारे में यह कहने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है कि कोरोना के आंकड़ों की तरह ही ये आंकड़े भी सच को बताते कम, छिपाते अधिक हैं. 

युद्धविराम की घोषणा किसने की, यह सवाल उतना ही बेमानी है जितना यह कि युद्ध की घोषणा किसने की. इन दोनों के बीच युद्ध का भी, विराम का भी और फिर युद्ध का अंतहीन सिलसिला है जिसके पीछे इन दो के अलावा वे सभी हैं जो युद्ध और विराम दोनों से मालामाल होते हैं. अमरीका के विदेश-सचिव एंटनी ब्लिंकेन ने युद्धविराम के तुरंत बाद दोनों पक्षों के साथ सौहार्दपूर्ण मुलाकात की और फिर जो कुछ कहा उसे थोड़ा करीब से देखें तो समझ सकेंगे कि युद्ध और विराम का यह सारा खेल कौन, कहां और कैसे खेल रहा है. 

ब्लिंकेन ने कहा कि अमरीका इस्रायल की सुरक्षा, शांति व सम्मान के प्रति वचनबद्ध है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि बमों की मार से तार-तार हुए गाजा शहर की मरहम-पट्टी तथा फलस्तीन के संपूर्ण विकास के लिए अमरीका 75 अरब डॉलर की मदद देगा.  इसका एक ही मतलब है : युद्ध भी हमारी ही मुट्ठी में, विराम भी हमारी ही मुट्ठी में ! लाचार इस्रायल के विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने धमकी दी : ‘हमास’ युद्धविराम को तोड़ने की फिर से कोशिश करेगा तो हम उसका करारा जवाब देंगे ! फलस्तीनी जवाब भी आ गया : हम किसी भी हाल में इन्हें छोड़ेंगे नहीं ! अब आप समझ सकते हैं कि इस युद्धविराम की किसे चाह है और शांतिमय सहअस्तित्व में किसकी आस्था है.   

यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी है; एकदम शुरू से ही इस पूरी कहानी और इसके कथाकारों पर महात्मा गांधी की गहरी नजर रही थी. सन् 1938 के आखिरी दिनों में अपने गुलाम देश और अपनी कांग्रेस पार्टी का हाल उन्हें व्यथित कर रहा था तो दुनिया का हाल उन्हें चिंतित किए था. यूरोप में यहूदियों की दशा की तरफ उनकी खास नजर थी.

सीमांत प्रदेश के दौरे से लौटने के बाद उन्होंने इस विषय पर अपना पहला संपादकीय ईसाइयत के अछूत नाम से लिखा : “ मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं. उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनकी साथ हुई ज्यादतियों की बावत जाना है. ये लोग ईसाइयत के अछूत बना दिए गये हैं. अगर तुलना ही करनी हो तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है, उसके करीब पहुंचता है. दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है. निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं, लेकिन उनके साथ की गहरी मित्रता मुझे न्याय देखने से रोक नहीं सकती है, और इसलिए यहूदियों की ‘अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है. इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फलीस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है. जैसे संसार में सभी लोग करते हैं, वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जनमे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें? 

“फलीस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है या कि फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए. आज फिलीस्तीन में जो हो रहा है उसका कोई नैतिक आधार नहीं है. पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है. गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए, ताकि पूरा या अधूरा फिलीस्तीन यहूदियों को दिया जा सके, तो यह एकदम अमानवीय कदम होगा. 

“उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जनमे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो. जैसे फ्रांस में जनमे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जनमे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाए; और अगर यहूदियों को फलीस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? या कि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था. 

“जर्मनी में यहूदियों के साथ जो हुआ उसका तो इतिहास में कोई सानी नहीं है. पुराने समय का कोई आततायी जिस हद तक कभी गया नहीं, लगता है हिटलर उस हद तक गया है, और वह भी धर्म-कार्य के उत्साह के साथ; ऐसे कि जैसे वह एक खास तरह के शुद्ध धर्म और फौजी राष्ट्रीयता की स्थापना कर रहा है जिसके नाम पर सारे अमानवीय कार्य, मानवीय कार्य बन जाते हैं, जिसका पुण्य यहीं, अभी या बाद में मिलेगा ही… मानवता के नाम पर और उसकी स्थापना के लिए यदि कभी कोई ऐसा युद्ध हुआ हो जिसका निर्विवाद औचित्य हो तो वह जर्मनी के खिलाफ किया गया महायुद्ध है जिसने एक पूरी जाति के समग्र विनाश को रोका. लेकिन मैं किसी भी युद्ध में विश्वास नहीं करता हूं. इसलिए ऐसे युद्ध के औचित्य या अनौचित्य का विमर्श ही मेरे मानस-पटल पर समाता नहीं है. 

“लेकिन जर्मनी के खिलाफ ऐसा युद्ध नहीं भी हुआ होता तो भी उसने यहूदियों के खिलाफ जैसा जुर्म किया उस कारण उसका साथ तो लिया ही नहीं जा सकता है. एक ऐसा देश जो न्याय और लोकतंत्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता का दावा करता है, किसी वैसे देश का साथ कैसे ले सकता है जो इन दोनों मूल्यों का घोषित शत्रु है? या कि यह माना जाए कि इंग्लैंड सशस्त्र तानाशाही और उससे जुड़ी तमाम अवधारणाओं की तरफ बहता जा रहा है?’’ 

“जर्मनी ने दुनिया को दिखा दिया है कि हिंसा जब मानवीयता आदि दिखावटी कमजोरियों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है तब वह कितनी ‘कुशलता’ से काम कर सकती है. वह यह भी बताती है कि नग्न हिंसा कितनी पापजन्य, क्रूर और डरावनी हो सकती है. क्या यहूदी इस संगठित और बेहया दमन का मुकाबला कर सकते थे? क्या कोई रास्ता है कि जिससे वे अपना आत्मसम्मान बचा सकते थे, ताकि वे इतने असहाय, उपेक्षित व अकेले नहीं पड़ते? मैं कहूंगा हां, है ! जिस भी व्यक्ति में ईश्वर के प्रति पूर्ण जीवित श्रद्धा होगी वह कभी इतना असहाय व अकेला महसूस कर ही नहीं सकता है.’’

‘’यहूदियों का यहोवा ईसाइयों, मुसलमानों या हिंदुओं के भगवान से कहीं ज्यादा मनुष्य-परस्त है, हालांकि सच तो यह है कि आत्मत: वह तो सभी में है, समान है; और किसी भी कैफियत से परे है. लेकिन यहूदी परंपरा में ईश्वर को ज्यादा मानवीय स्वरूप दिया गया है और माना जाता है कि वह उनके सारे कार्यकलापों का नियमन करता है, तो उन्हें इतना असहाय महसूस ही क्यों करना चाहिए. यदि मैं यहूदी होता और जर्मनी में पैदा हुआ होता और वहां से आजीविका पाता होता तो मैं दावा करता कि जर्मनी मेरा वैसा ही घर है जैसा कि यह किसी लंबे-तड़ंगे शक्तिशाली जर्मन का घर है. मैं उसे चुनौती देता कि तुम मुझे गोली मार दो या तहखानों में बंदी बना दो, मैं यहां से कहीं निकाले जाने या किसी भी भेद-भावपूर्ण व्यवहार को स्वीकारने को तैयार नहीं हूं. और मैं इसका इंतजार नहीं करता कि दूसरे यहूदी भी आएं और इस सिविल नाफरमानी में मेरा साथ दें, बल्कि इस विश्वास के साथ मैं अकेला ही आगे बढ़ जाता कि अंतत: तो सभी मेरे ही रास्ते पर आएंगे. 

“मेरे बताए इस नुस्खे का इस्तेमाल यदि एक यहूदी ने भी किया होता या सारे यहूदियों ने किया होता तो उनकी हालत आज जितनी दयनीय है, उससे अधिक तो नहीं ही होती. जिस कष्ट को आप स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं वह आपको वैसी आंतरिक ताकत और आनंद देता है जितनी ताकत व आनंद सहानुभूति के वे सारे प्रस्ताव मिलकर भी नहीं दे सकते हैं जो जर्मनी से बाहर की दुनिया आज जाहिर कर रही है. मैं यह भी कहूंगा कि यदि इंग्लैंड, फ्रांस और अमरीका साथ मिलकर जर्मनी पर हमला घोषित करें तो उससे भी यहूदियों की आंतरिक शक्ति व संतोष में कोई इजाफा नहीं होगा… जो ईश्वर-भीरू है उसे मौत का डर नहीं होता. उसके लिए मौत तो एक ऐसी आनंददायी नींद है जिससे उठने के बाद आप दूसरी लंबी नींद के लिए तरोताजा हो जाते हैं. 

“मेरे यह कहने की शायद ही जरूरत है कि मेरे इस नुस्खे पर चलना चेक लोगों की बनिस्बत यहूदियों के लिए ज्यादा आसान है. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के भारतीय सत्याग्रह में भाग लेकर इसका अनुभव भी किया ही है. वहां भारतीयों की ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसी जर्मनी में यहूदियों की है. वहां भी दमन को एक धार्मिक रंग दिया गया था. राष्ट्रपति क्रूजर कहा करते थे कि श्वेत ईसाई ईश्वर की चुनी संतानें हैं जबकि भारतीय लोग हीन योनि के हैं, जिन्हें गोरों की सेवा के लिए बनाया गया है.

ट्रांसवाल के संविधान में एक बुनियादी धारा यह थी कि गोरों और अश्वेतों के बीच, जिनमें सारे एशियाई भी शामिल हैं, किसी तरह की समानता नहीं बरती जाएगी. यहां भी भारतीयों को उनके द्वारा निर्धारित बस्तियों में ही रहना पड़ता था जिसे वे ‘लोकेशन’ कहते थे. दूसरी सारी असमानताएं करीब-करीब वैसी ही थीं जैसी जर्मनी में यहूदियों के साथ बरती जाती हैं. वहां, उस परिस्थिति में मुट्ठी भर भारतीयों ने सत्याग्रह का रास्ता लिया जिन्हें न बाहरी दुनिया का और न भारत सरकार का कोई समर्थन था. ब्रिटिश अधिकारियों ने कोशिश की कि किसी भी तरह भारतीयों को उनके निश्चय से विरत किया जाए. पूरे 8 साल चली लड़ाई के बाद जाकर कहीं विश्व जनमत और भारत सरकार सहायता के लिए आगे आई…

“लेकिन जर्मनी के यहूदी दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं. यहूदी जाति जर्मनी में एक संगठित जमात है. दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की तुलना में वे ज्यादा हुनरमंद हैं और अपनी लड़ाई के पीछे वे विश्व जनमत जुटा सकते हैं. मुझे विश्वास है कि यदि उनमें से कोई साहस व समझ के साथ उठ खड़ा होगा और अहिंसक कार्रवाई में उनका नेतृत्व करेगा तो पलक झपकते ही निराशा के उनके सर्द दिन गर्मी की आशा में दमक उठेंगे…विकृत मानवों द्वारा ईश्वर के प्रति किए जा रहे गुनाहों के खिलाफ वह सच्चा धार्मिक प्रतिकार होगा… ऐसा करके वे अपने साथी जर्मनों की भी सेवा करेंगे और उन्हें असली जर्मन बनने में मदद करेंगे ताकि वे उन जर्मनों से अपना देश बचा सकें जो चाहे जैसी मूढ़ता में जर्मनी के नाम पर कालिख पोत रहे हैं.” (सप्रेस) 

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