आधुनिकता के तमाम फायदे उठाने और नतीजे में उससे पैदा हुई बदहाली को भुगतने के बाद ‘यूरोपीय संघ’ ने अब कानून बनाकर विकास की धारा को पलटने की कोशिश की है। बरसों से नदियों पर विशालकाय बांध खडे करने, जल-जंगल-जमीन को बर्बाद करने जैसी अनेक ‘विकास-वादी’ कार्रवाइयों के बाद यूरोप इसे पलटने की जुगत बिठा रहा है। क्या है, यह प्रक्रिया? दुनियाभर, खासकर गरीब देशों के लिए इसके क्या संकेत होंगे?
हम विकास के नाम पर विनाश करते हुए अपनी जीवंत दुनिया को जलवायु परिवर्तन की आग में झोंकने पर आमादा हैं। बदलते मौसमी मिजाज व हर दिन कहर ढा रही प्राकृतिक आपदाओं से चरमराती वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं ने सबकी चिंता बढा दी है। विकासशील व अधिकांश अमीर देशों को छोड़ दें तो इस खतरे को गम्भीरता से लेते हुए ‘यूरोपीय संघ’ ने कठोर कदम उठाए हैं और तबाह हो रही प्रकृति को उसके मूल स्वरूप में लाने के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण, दूरगामी व ऐतिहासिक कानून का ड्रॉफ्ट सार्वजनिक किया है।
‘यूरोपीय संघ’ की कार्यकारी शाखा, ‘यूरोपीय आयोग’ (ईसी) ने यूरोप महाद्वीप पर प्रकृति को बहाल करने और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए विगत 22 जून को एक ऐतिहासिक कानून का विस्तृत ड्रॉफ्ट जारी किया है। विकास की अंधाधुंध दौड़ में यूरोपीय देशों का यह क़दम दुनिया के लिए मिसाल है। इससे 10 साल पहले भी पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्य तय किए गए थे, पर वे हासिल नहीं हो पाए थे। इस बार संघ ने आक्रामक नीति अपनाई है। इसके पीछे संघ की जो भी मंशा हो, उससे इतर प्रकृति व मानव सभ्यता को बचाने के जो नियम-कायदे बनाए हैं वे अनुकरणीय हैं। इसमें ऐसे कानूनों की बात की गई है जो अपने आप में अद्भुत हैं।
इस मसौदा कानून में सन 2030 तक पूरे यूरोप में कीटनाशकों के उपयोग को आधा करने और नदियों पर बने बांध तोड़कर नदियों को पुनः मुक्त-प्रवाह देने के लिए सभी देशों से आह्वान किया गया है। प्रस्ताव का उद्देश्य पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करके यूरोपीय संघ की भूमि, गांवों, कस्बों, मैदानों आदि के साथ समुद्री क्षेत्रों में जैव-विविधता को पुनः समृद्ध करना है।
गौरतलब है, ‘यूरोपीय संघ’ मुख्यत: यूरोप में स्थित 27 देशों (कहीं यह संख्या 44 है तो कहीं 51 भी) का एक राजनैतिक एवं आर्थिक मंच है जिसमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रों पर लागू होती है। इसका अभ्युदय एक जनवरी 1957 में ‘रोम की संधि’ द्वारा ‘यूरोपीय आर्थिक परिषद’ के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था।
वैश्विक स्तर पर ‘इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ (आईपीसीसी) ने भी अपने छठे आंकलन में तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए यह विषय उठाया है। इसमें तबाह हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र को युध्द स्तर पर संरक्षित कर तत्काल मूल प्राकृतिक स्वरूप में लाने का आह्वान किया गया है। ‘ग्लासगो जलवायु समझौते’ ने भी जलवायु बदलाव के प्रभावी नियंत्रण के लिए प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने की अपील दुनिया से की है।
इसी तारतम्य में ‘यूरोपीय संघ’ का यह प्रस्ताव वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र की एक विस्तृत श्रृंखला को बचाने और दायित्वों के निर्वाह के लिए बन्धनकारी है। इसमें 2030 तक ‘यूरोपीय संघ’ की भूमि और समुद्री क्षेत्र के 20 प्रतिशत जल व भूमि पर क्षेत्र-आधारित इकोसिस्टम की बहाली के तमाम उपायों के व्यापक उद्देश्य शामिल हैं। ‘यूरोपीय संघ’ की ‘जैव-विविधता और पर्यावरण ब्यूरो’ की प्रभारी लौरा हिल्ड्ट एक बयान में कहती हैं कि “यह मुमकिन है, बशर्ते सभी राज्य अपनी उचित भागीदारी व हिस्सेदारी के साथ प्रकृति को उसके मूल स्वरूप में बहाल करने के ईमानदार प्रयास करें।”
प्रस्ताव कहता है कि प्राकृतिक और अर्ध-प्राकृतिक जैव-विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र – आर्द्रभूमि, जंगल, घास के मैदान, नदी और झीलें और यहां तक कि उजड़े पर्वत-पहाड़ियों को बड़े पैमाने पर पुनर्जीवित किया जाएगा।
कानून का रोचक तथ्य यह भी है कि सन 2030 यानी अगले 8 बरसों तक मधुमक्खियों, तितलियों, भौंरों, होवरफ्लाइज़ और अन्य परागण कर जैव-विविधता को बनाए रखने वाले कीट पतंगों, पक्षियों आदि की आबादी में हो रही लगातार कमी को तत्काल रोकने के लिए रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग और इसके जानलेवा दुष्प्रभाव को सन 2030 तक 50 प्रतिशत कम कर दिया जाएगा। जाहिर है, कीट-पतंगों व छोटे-बड़े प्राणियों की यह कितनी बड़ी अनमोल विरासत है जो हमारे व अन्य राष्ट्रों के लिए गौण है।
प्रस्ताव का उद्देश्य है कि हरित शहरी स्थानों यानी शहरीकरण से तबाह होती हरियाली, उपजाऊ भूमि, हरे-भरे खुले मैदान, जल-संरचनाओं आदि को हर सम्भव तरीके से बचाया जाये। इसके लिए शहरीकरण की धारणा व नीतियों में आमूलचूल बदलाव होगा, ताकि 2030 तक हरित शहरी स्थानों का और विनाश न हो। वास्तव में यूरोपीय देशों ने सन 2050 तक इन हरित स्थानों में पांच प्रतिशत की वृद्धि सुनिश्चित करने का ठोस लक्ष्य रखा है। शहर ही नहीं, गांवों-कस्बों को भी घने वृक्षों की हरियाली से घटाटोप करने के लिए सभी शहरों और कस्बों में कम-से-कम 10 प्रतिशत ‘ट्री कैनोपी कवर’ में वृद्धि करना बन्धनकारी होगा।
प्रस्ताव में 2030 तक 25 हजार किलोमीटर तक नदियों को बांध आदि किसी भी तरह की बाधा से मुक्त, पुनः प्राकृतिक बहाव पुनर्स्थापित करने का तय किया गया है। इसके लिए ‘वाटर कैचमेंट एरिया’ व सतही-जल की कनेक्टिविटी को रोकने या बाधित करने वाले अवरोधों की पहचान की जाएगी और उन्हें हटा दिया जाएगा।
यूरोपीय संघ के देशों और ‘यूरोपीय संसद’ को कानून बनने से पहले मसौदा कानून को मंजूरी देनी होगी। ‘यूरोपीय संघ’ के सदस्यों से दो साल के भीतर आयोग की बहाली पर राष्ट्रीय स्तर की योजना प्रस्तुत करने की उम्मीद है। इकोसिस्टम बहाली सहित जैव-विविधता खर्च के लिए लगभग 100 बिलियन यूरो (105 बिलियन डॉलर ) उपलब्ध होंगे। लक्ष्यों की निगरानी और प्रगति की जिम्मेदारी के लिए एक निगरानी एजेंसी होगी।
‘यूरोपीय संघ’ 2011 और 2020 के बीच अपनी जैव-विविधता रणनीति के अनुसार जैव-विविधता के नुकसान को रोकने में सफल नहीं हो पाया था। लक्ष्य के अनुसार 2020 तक कम-से-कम 15 प्रतिशत खराब पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करना था। प्रकृति संरक्षण का यह कानून प्रकृति को उसके मूल रूप में वापस लाने का एक बड़ा अवसर है, इससे पहले कि जलवायु और जैव-विविधता संकट पूरी तरह नियंत्रण से बाहर हो जाए।
‘विकासशील देशों’ की आँखें खोल देने के लिए यह पर्याप्त है। जिस आधुनिक विकास के पश्चिमी मॉडल को अब वहीं के देश त्याग रहे हैं, उसी मॉडल को हमारे जैसे देश छाती से लगाकर नदियों पर विशालकाय बाँधों को खडा करना उपलब्धि मानते हैं और गर्व महसूस करते हैं। यह जानते हुए कि नदियों, घाटियों, वन, वन्य-जीवों, उपजाऊ जमीन, गाँव, संस्कृति, आदिम, वनवासी समुदाय के जीवन-जीविका आदि के इकोसिस्टम को छिन्न-भिन्न करने पर ही बड़े बांधों, बड़े माईनिंग प्रोजेक्ट, बड़े हाईवे, उद्योगों व शहरों आदि का निर्माण सम्भव है। इससे खत्म होने वाले प्राकृतिक संसाधनों की कीमत सरकारी ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) से कई गुना ज्यादा है।
इसके बावजूद हर कहीं सरकारें प्रकृति विनाश की कीमत पर खड़े किये जा रहे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेन्ट को जन-समुदाय की समृद्धि का पर्याय साबित कर रही हैं। यह कभी भी सच नहीं था, आधा सत्य भी नहीं। शेष आधे से ज्यादा सच प्रकृति विनाश की कीमत का है जिसे निजी, राजनीतिक व सत्ता-स्वार्थों के कारण सरकारें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करतीं। बीते कई दशकों से इस सच को बताने वालो से दुनिया भर की सरकारें पुलिस के बूटों, बन्दूकों की बट व गोलियों से बात करती रही है।
असल में पश्चिमी देशों की तर्ज पर आधुनिक विश्व ने उद्योगों को ही दुनिया की प्रगति मान लिया था। बड़े बांधों को आर्थिक विकास का प्रतीक मान लिया था। कीटनाशकों को भूख मिटाने व भरपूर पैदावार का रामबाण ईलाज मान लिया था। इस सबके जहरीले प्रभाव सामने आ रहे हैं। निराशा के इस माहौल में और कोई नहीं, यूरोप के देश जागे हैं। शायद इन्हें अपने किए का एहसास हो रहा है इसलिये प्रकृति को बचाने के लिए “प्रकृति के अपने कानून” की तरह यूरोपीय कानून लाए हैं। यह समयबद्ध कानूनी प्रस्ताव प्रकृति की रक्षा और बहाली में ‘यूरोपीय संघ’ के वैश्विक नेतृत्व का एक प्रदर्शन तो है ही, वहीं दिसंबर 2022 में मॉन्ट्रियल, कनाडा में होने वाली ‘जैव-विविधता समिट’ (सीओपी15) में अपनी महत्ता साबित करने का प्रयास भी है।
(सप्रेस)