योगेश कुमार गोयल

बढ़ते भौतिक विकास की दौड़ में मानव ने प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है, उसके दुष्परिणाम अब स्पष्ट दिखने लगे हैं—असामान्य तापमान, बदलता मौसम और प्राकृतिक आपदाएं इसका प्रमाण हैं। ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ हमें यह याद दिलाता है कि पर्यावरण संरक्षण अब विकल्प नहीं, अनिवार्यता है। यदि हमने अभी भी चेतना नहीं दिखाई, तो पृथ्वी पर जीवन संकट में पड़ जाएगा।

World Earth Day April 22

मानव सभ्यता आज जिस तेजी से विकास की ओर अग्रसर हो रही है, उसी रफ्तार से वह अपने पर्यावरण को भी क्षति पहुंचा रही है। सुख-सुविधाओं और संसाधनों की अंधाधुंध होड़ में मानव ने प्राकृतिक संतुलन को इस हद तक बिगाड़ दिया है कि अब उसके दुष्परिणाम स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे हैं। तापमान का असामान्य बढ़ना, मौसम चक्रों में बदलाव, अप्रत्याशित वर्षा, सूखा, बर्फबारी और तूफान जैसी घटनाएं अब सामान्य बनती जा रही हैं। भारत में भी अब फरवरी-मार्च में ही गर्मी का अहसास होने लगा है और मार्च में ही तापमान अपने पुराने रिकॉर्ड तोड़ने लगा है।

भारतीय मौसम विभाग के अनुसार अप्रैल से जून के बीच इस बार सामान्य से अधिक तापमान रहने की संभावना है, जो जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है। दुनियाभर में इन्हीं चेतावनियों को समझते हुए प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है, ताकि मानव जाति पर्यावरण की महत्ता को समझ सके और पृथ्वी के संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठा सके।

पृथ्वी दिवस पहले 21 मार्च और 22 अप्रैल को कुल दो बार मनाया जाता था लेकिन वर्ष 1970 से यह तय किया गया कि पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल को ही मनाया जाएगा। 21 मार्च को यह केवल मौसमीय परिवर्तनों के प्रतीक रूप में मनाया जाता था जबकि 22 अप्रैल का पृथ्वी दिवस सामाजिक और राजनीतिक चेतना का प्रतीक बन चुका है। पहली बार इस दिन को वैश्विक स्तर पर 1970 में मनाया गया और तब से यह सिलसिला जारी है। हालांकि इस दिवस का वास्तविक उद्देश्य तभी पूरा होगा, जब हम इसे महज एक आयोजन न समझें बल्कि इसके मूल उद्देश्य ‘पृथ्वी की रक्षा’ को जीवन का हिस्सा बनाएं।

वनस्पतियों की भूमिका कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर वातावरण को संतुलित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन बीते कुछ दशकों में जिस तीव्र गति से वन क्षेत्रों को खत्म कर कंक्रीट के जंगल उगाए गए हैं, उसने पर्यावरणीय संकट को और गहराया है। यदि वैश्विक परिदृश्य देखें तो वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीच्यूट के अनुसार दुनिया के अधिकांश हिस्सों में गर्मी का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है और कई देश तो ऐसे हैं, जहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर जा चुका है। नासा के गोडार्ड इंस्टीच्यूट फॉर स्पेस स्टडीज की रिपोर्ट बताती है कि 1880 के बाद से पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और यह बढ़ोतरी खासकर 1975 के बाद से तीव्र हुई है।

स्क्रीप्स इंस्टीच्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के अनुसार, 1880 के बाद से हर दशक में पृथ्वी के तापमान में 0.08 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है। 1900 से 1980 के बीच तापमान हर 13.5 वर्ष में बढ़ता था लेकिन 1981 से 2024 के बीच यह अवधि घटकर मात्र 3 वर्ष हो गई है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अभी तापमान में 2.4 डिग्री सेल्सियस की और वृद्धि हो सकती है। इसका सीधा असर ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ के पिघलने और समुद्री जलस्तर के बढ़ने के रूप में देखा जा रहा है, जिससे कई तटीय शहरों के डूबने का खतरा मंडरा रहा है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों की बात करें तो पहले इनका ठंडा और सुहावना वातावरण लोगों को खूब आकर्षित करता था परंतु अब पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक निर्माण कार्य, भारी वाहनों का आवागमन, औद्योगीकरण और सुरंगों के निर्माण के लिए पहाड़ों को काटने जैसी गतिविधियों के चलते वहां की प्राकृतिक ठंडक भी कम होती जा रही है और पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ता जा रहा है। प्रकृति समय-समय पर समुद्री तूफानों, भूकंपों, सूखा, बाढ़, भारी वर्षा या अकाल के रूप में हमें चेतावनियां देती रही है परंतु हमने इन चेतावनियों को गंभीरता से लेना छोड़ दिया है। कहीं भयंकर सूखा है तो कहीं भीषण वर्षा, कहीं अधिक गर्मी तो कहीं असमय ठंड, यह सब प्रकृति के साथ हुए छेड़छाड़ के ही परिणाम हैं।

आज के समय में विकास का अर्थ केवल ऊंची-ऊंची इमारतें और चौड़ी सड़कें ही नहीं रह गया है बल्कि इसके साथ बढ़ता वनों का ह्रास, हरियाली की कमी और प्रदूषण की विकराल होती स्थिति भी इसका हिस्सा बन चुका है। शहरों के फैलते विस्तार ने प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करने का काम किया है, जिसके परिणामस्वरूप विश्वभर में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण हर साल लगभग 70 लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं, यहां तक कि नवजात शिशुओं पर भी इसका दुष्प्रभाव देखा जा रहा है। इन गंभीर परिस्थितियों में जब हम जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं तो यह मान लेना चाहिए कि इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हमने जिस लापरवाही से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है, अब वह हमारे ही अस्तित्व के लिए संकट बन चुका है। इसीलिए अब समय आ गया है कि हम इस संकट से उबरने के लिए अपनी जिम्मेदारी समझें।

पृथ्वी दिवस के आयोजन मात्र से कुछ नहीं होने वाला, जब तक कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव नहीं लाते और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता नहीं देते। इसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। हमें यह समझना होगा कि यदि हम एक स्वच्छ, सुरक्षित और सुंदर पृथ्वी की कल्पना करते हैं तो हमें उसे वैसा बनाने के लिए मेहनत करनी होगी और यह तभी संभव है, जब हम प्रदूषण से मुक्ति, हरियाली के विस्तार, जल-संरक्षण, अपशिष्ट प्रबंधन और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के उपयोग की दिशा में ठोस कदम उठाएं।

प्रकृति की विशाल सम्पदा और जैव विविधता की रक्षा करना केवल सरकारों या संगठनों का ही काम नहीं है बल्कि इसमें हर व्यक्ति का योगदान आवश्यक है। हमें यह निर्णय लेना होगा कि हम किस प्रकार के भविष्य की ओर बढ़ना चाहते हैं, एक ऐसा भविष्य, जिसमें शुद्ध वायु और जल की उपलब्धता हो और जीवन सुखद एवं स्वस्थ हो या एक ऐसा भविष्य, जिसमें सांस लेना भी दूभर हो जाए और स्वास्थ्य समस्याएं जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाएं। यदि हम धरती मां के ऋण को कुछ हद तक भी चुकाना चाहते हैं तो पृथ्वी दिवस को साल में एक दिन मनाने की औपचारिकता से आगे बढ़कर इसे अपने दैनिक जीवन में शामिल करना होगा। हमें अपने बच्चों को भी प्रकृति से प्रेम करना सिखाना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस सुंदर पृथ्वी का आनंद ले सकें।

बहरहाल, पृथ्वी को बचाना अब केवल एक विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्यता बन चुका है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं, जब पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम आज से ही अपने प्रयासों की शुरुआत करें और पृथ्वी को बचाने की दिशा में ठोस कदम उठाएं, यही विश्व पृथ्वी दिवस की सच्ची सार्थकता होगी।