डीजल, पेट्रोल की आसमान छूती कीमतों के लिए केन्द्र और राज्यों की सरकारों के भारी-भरकम टैक्स जिम्मेदार माने जाते हैं, लेकिन इनमें भी गैर-बराबरी साफ दिखाई देती है। जहां आम गरीब, निम्न और मध्यंमवर्ग के जरूरी वाहन स्कूटर-कार में डाले जाने वाले पेट्रोल पर कई-कई गुना टैक्स लगाया जाता है, वहीं हवाई जहाजों के ईंधन पर टैक्स की दर इनसे कई गुनी कम होती है।
16 मार्च को हवाई जहाज में प्रयोग किए जाने वाले ईंधन (एविएशन टर्बाइन फ्यूल, एटीएफ) की कीमतों में लगातार छठी बार बढ़ोतरी की खबर आई। इस रिकार्ड 18% से अधिक बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में हवाई ईंधन के दाम 110 रुपये प्रति लीटर के पार चले गए। इसके साथ ही खबरों में यह भी रेखांकित किया गया कि हवाई ईंधन में बढ़ोतरी के विपरीत 2 दिसंबर से पेट्रोल के दाम स्थिर हैं। बरसों में पहली बार हवाई ईंधन स्कूटर के ईंधन से महँगा हुआ है, वरना तो स्कूटर का ईंधन हवाई ईंधन से महंगा ही रहा है।
एक ही शहर दिल्ली में पेट्रोल अब से पहले लगातार हवाई ईंधन से महंगा बिकता रहा है। हवाई ईंधन तो अब 100 रुपये के पार, बल्कि 110 रुपये के पार हो गया है, जबकि पेट्रोल तो 2 नवम्बर को ही 110 रुपये के पार और 7 जुलाई को 100 रुपये के पार चला गया था। स्कूटर का ईंधन हवाई ईंधन से महंगा क्यों? जबकि ज्यादा संभावना तो यह है कि हवाई ईंधन की उत्पादन लागत पेट्रोल से ज्यादा हो, क्योंकि हवाई जहाज स्कूटर-कार के मुकाबले ज्यादा जटिल मशीन है। तर्कशील मन ने कहा कि हो सकता है ऐसा न हो और पेट्रोल की उत्पादन लागत ज्यादा होने के कारण यह ‘एटीएफ’ से महंगा बिकता हो।
इसकी पड़ताल करनी चाही तो तेल विक्रेता कम्पनियों के वेबसाईट पर पेट्रोल की कीमत में टैक्स और उत्पादन लागत आदि का विवरण सहज उपलब्ध हो गया, परन्तु ‘एटीएफ’ के बारे में नवीनतम विवरण नहीं मिला। पेट्रोलियम मंत्रालय से पुराने आंकड़े ही मिल पाए। एक अप्रैल 2020 को पेट्रोल का खुदरा विक्रय मूल्य, इसकी उत्पादन लागत से 2.6 गुना था, जबकि ‘एटीएफ’ में यह अनुपात मात्र 1.6 गुना था। यानी अगर पेट्रोल पर ‘एटीएफ’ की दर से टैक्स लगते तो पेट्रोल के दाम में लगभग 35% की कटौती संभव थी। डीजल पर भी करों की दर ‘एटीएफ’ से ज्यादा है; डीजल पर ‘एटीएफ’ के समान कर होने पर डीजल की कीमत 18% कम होती।
एक और बात हैरान करने वाली है। ‘एटीएफ’ के एक अप्रैल 2020 के दाम 4 साल पहले यानी एक अप्रैल 2016 के मुकाबले आधे से भी कम रह गए हैं। ‘एटीएफ’ की कीमतों में 50% से अधिक की गिरावट आ गई है, जबकि इस अवधि में डीजल के दामों में 12% से अधिक की बढोतरी हुई थी। यानी 4 सालों में ‘एटीएफ’ के दाम घटकर आधे से कम हो गए, जबकि डीजल के दाम बढ़ गए। इसलिए आज तक स्कूटर-ट्रैक्टर चलाना हवाई जहाज चलाने से महंगा रहा है और ऐसा मुख्यत: इसलिए कि पेट्रोल एवं डीजल पर करों की दर ‘एटीएफ’ पर करों की दर के मुकाबले ज्यादा हैं। हैरानी की बात है कि इसके बावजूद विमानन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कुछ माह पहले राज्यों से ‘एटीएफ’ पर कर में कटौती करने की अपील करते हुए पत्र लिखा था।
एक अन्य ताजा खबर के अनुसार कार खरीदने के लिए बैंकों से कर्ज लेने पर ब्याज दर किसान क्रेडिट कार्ड पर लगने वाले ब्याज से 5% तक ज्यादा है। ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ में यह अंतर 2.55% है, यानी किसान अगर ट्रैक्टर खरीदने के लिए कर्ज लेता है तो उसे कार खरीदने के लिए कर्ज के मुकाबले ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ता है।
प्रचलित अर्थशास्त्र के दो सिद्धांत सर्वमान्य हैं। एक तो यह कि कर निर्धारण में कर वहन करने की क्षमता को ध्यान में रखा जाता है, यानी जो वहन करने में ज्यादा सक्षम है उस पर ज्यादा कर और जो कम सक्षम है उस पर कम कर। दूसरा सिद्धांत यह है कि जिस वस्तु का उपभोग सामाजिक रूप से वांछनीय हो, उस पर कम कर (या सब्सिडी) और जिस वस्तु का उपभोग सामाजिक रूप से अवांछनीय हो, उस पर अतिरिक्त कर। इसीलिए शराब और सिगरेट पर ज्यादा कर लगता है।
मुक्त बाजार के समर्थक अर्थशास्त्री भी इन सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं, परन्तु व्यवहार में हम इसका ठीक उलटा पाते हैं। हवाई यात्रा ज्यादा प्रदूषण करती है एवं इसलिए अवांछनीय है। इसके साथ ही हवाई यात्रा करने वाले ज्यादा कर वहन करने में सक्षम भी होते हैं। इन दोनों कारणों से हवाई ईंधन पर पेट्रोल की तुलना में ज्यादा कर लगना चाहिए, जबकि हो रहा है ठीक इसका उलटा। इसी तरह ट्रैक्टर खरीदना निवेश है जबकि कार मूलत: उपभोग की वस्तु है। इस के साथ ही कार खरीदने वाले किसान की तुलना में ज्यादा सक्षम हैं। इसलिए कार पर ऋण महंगा होना चाहिए, परन्तु है ठीक इसका उलटा।
अर्थशास्त्र की एक कमी सर्व विदित है। ‘मुक्त बाजार’ क्रय शक्ति को महत्व देता है न कि मानवीय जरूरत को। इसलिए अमीर घर के पालतू कुत्ते-बिल्ली पर होने वाला खर्च उसी घर में काम करने वाले सफाई कर्मचारी के बच्चे पर होने वाले खर्च से ज्यादा हो सकता है। सरकारों से अपेक्षा होती है कि वह बाजार की इस कमी को दूर करें, परन्तु महंगा पेट्रोल और सस्ता ‘एटीएफ,’ महंगा ट्रैक्टर-ऋण और सस्ता कार-ऋण यह दिखाता है अगर लोकतंत्र कमज़ोर हो तो सरकारें भी ऐसा ही कर सकती हैं। (सप्रेस)
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