जावेद अनीस

अभी, करीब डेढ महीना पहले अपनी आजादी की आधी शताब्दी मना चुके बांग्लादेश ने 1971 में अपने गठन के साथ दो-राष्ट्रवाद के उस बेहूदे सिद्धांत को ही खारिज कर दिया था जिसने भारत विभाजन सरीखे तीखे, दर्दनाक संकट पैदा किए थे। उस बांग्लादेश में आज क्या हालात हैं?

हाल ही में बांग्लादेश ने अपनी आजादी के 50 साल पूरे किये हैं। उनका ‘मुक्ति संग्राम’ किसी औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ नहीं, बल्कि 1947 में धर्म के नाम पर बने  मुल्क पाकिस्तान के खिलाफ, उसी के एक हिस्से पूर्वी पाकिस्तान के द्वारा लड़ा गया था। 16 दिसम्बर 1971 को बांग्लादेश नामक नये देश का अस्तित्व में आना ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ पर सबसे बड़ा कुठाराघात था। भारत विभाजन के बाद भी दक्षिण-एशिया पर लगातार धार्मिक उन्माद और उग्र राष्ट्रवाद का साया मंडराता रहा है जो कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। भारत और पाकिस्तान की सीमा का शुमार दुनिया की सबसे खतरनाक और संवेदनशील सीमाओं में किया जाता है।

ऐसे में बांग्लादेश के वजूद ने इस ‘कुतर्क’ को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है कि एक मुल्क बनाने के लिए सभी लोगों का सामानधर्मी होना बुनियादी शर्त है। बांग्लादेश ने मजहब पर अपनी भाषा और संस्कृति को तरजीह दी, जिसके चलते पाकिस्तान को अपना एक हिस्सा खोना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान की आबादी भले ही मुस्लिम बहुल रही हो, लेकिन सिर्फ यही उनके लिये काफी नहीं था। वे बंगाली भी थे, जिसे पाकिस्तान के संस्थापकों द्वारा नजरअंदाज किया गया।

संयोग से आज बांग्लादेश की राजसत्ता और सिविल सोसायटी अपने आप को इस उन्माद से बचाने में कामयाब साबित हो रही है और अपने देश को उस रास्ते पर ले जाती हुयी दिखाई पड़ रही है जो कुछ वर्षों पहले भारत का रास्ता था। आज 50वीं वर्षगांठ पर दुनिया बांग्लादेश को दक्षिण-एशिया के एक नये उभरते हुए सितारे के तौर पर देख रही है, जो संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता द्वारा संचालित होकर आर्थिक, सामाजिक विकास की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है।  

एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का आधी सदी का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है जिसमें बांग्लादेश के संस्थापक बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की हत्या, दो सैन्य तानाशाहों का राज, सैन्य तख्तापलट और राष्ट्रपति जियाउर रहमान की हत्या, तीन कार्यवाहक सरकारें, दो महिला प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व वाली सरकारें शामिल हैं। दरअसल अपनी स्थापना के समय से ही बांग्लादेश अपनी इस्लामी बनाम बंगाली पहचान के द्वंद्व के बीच उलझा रहा है और इस दौरान जो भी पलड़ा भारी हुआ उसी के अनुसार इस मुल्क का मिजाज भी बदलता रहा है।

वर्ष 1971 में, जब बांग्लादेश आजाद हुआ तो वह एक तबाह देश था, नया युद्धग्रस्त मुल्क, बुनियादी ढांचे, भोजन की कमी और सामूहिक अवसाद से घिरा हुआ। दुनिया इसे “बास्केट केस” मानती थी, लेकिन इसके संस्थापक नेता शेख मुजीबुर्रहमान के पास अपने देश के भविष्य का एक नक्शा था। उन्होंने आजादी के नौ महीने के भीतर ही बांग्लादेश के लिए एक प्रगतिशील संविधान के निर्माण को सुनिश्चित किया। इस संविधान के चार बुनियादी सिद्धांत थे: लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता। इस बीच बांग्लादेश की मुक्ति के तीन वर्ष के भीतर ही बंगबंधु की हत्या कर दी गई। उनकी मृत्यु के बाद बांग्लादेश में लम्बे समय तक उथल-पुथल का दौर रहा और सेना, सेना से संबद्ध दलों और लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारों का शासन रहा।

पिछले करीब तेरह वर्षों से बंगबंधु की बेटी शेख हसीना बांग्लादेश का नेतृत्व कर रही हैं और इस दौरान वहां राजनीतिक स्थिरता आयी है, जिसका असर बांग्लादेश की आर्थिक विकास दर और सामाजिक विकास संकेतकों में भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। पिछले एक दशक के दौरान बांग्लादेश एक गरीब से विकासशील राष्ट्र में बदल गया है, यहां तक कि बांग्लादेश की आर्थिक विकास दर अपने हमसाया मुल्क भारत से आगे निकल गई है। इसकी वजह साफ़ है, इस दौरान दोनों मुल्कों के फोकस में बदलाव आया है। जहाँ एक तरफ बांग्लादेश अपने आप को कट्टरपंथी और प्रतिगामी ताकतों के चंगुल से बाहर निकालने में कामयाब हुआ है, वहीं भारत इस दलदल में धंसता गया है। आज जहाँ बांग्लादेश अपने भविष्य की यात्रा में है, वहीं भारत इतिहास को भविष्य मानकर पीछे की तरफ बढ़ रहा है।

आजादी के समय बांग्लादेश की जीडीपी 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब थी, जो कि आज लगभग 324 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गयी है। इन पचास वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति आय भी 93 डॉलर से बढ़कर दो हजार डॉलर से अधिक हो गई है। पिछले एक दशक के दौरान बांग्लादेश की ‘जीडीपी’ छह फीसदी से ऊपर रही है, जबकि पिछले तीन वर्षों से बांग्लादेश ने लगातार सात प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर हासिल की है, जो कि एशिया में सर्वाधिक है। पचास साल पहले बांग्लादेश दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक था, जिसकी 71 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। वर्ष 2016 में घटकर यह 24 प्रतिशत रह गयी। पिछले डेढ़ दशक के दौरान ही बांग्लादेश करीब ढाई करोड़ लोगों को गरीबी से उबारने में कामयाब हुआ है।

इसके अलावा ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (वैश्विक भूख सूचकांक) जैसे सूचकांक में भी बंगलादेश (76) अपने हमसाया मुल्कों – भारत (101) और पाकिस्तान (92) की तुलना में बेहतर स्थिति में है। महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक समावेशन में भी यह देश आगे बढ़ रहा है। ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ (डब्ल्यूईएफ) की ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट’ (2021) ने बांग्लादेश को 156 देशों में 65वें स्थान पर रखा है, जो 2006 के 91वें स्थान से काफी बेहतर है। इसी प्रकार बांग्लादेश में श्रम बल में महिला भागीदारी की दर 40 प्रतिशत के करीब है जो कि भारत (22.3 प्रतिशत) की तुलना में काफी बेहतर है।

‘जीडीपी’ आधारित विकास माडल होने की वजह से बांग्लादेश का विकास व्यापक असमानताओं से भी ग्रस्त है। ‘विश्व असमानता रिपोर्ट – 2022’ के अनुसार बांग्लादेश की 10 प्रतिशत आबादी का देश की 43 प्रतिशत राष्ट्रीय आय पर कब्ज़ा है, जबकि 50 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय आय का केवल 17 प्रतिशत हिस्सा है। बंगबंधु के बाद सेना अधिकारी से राष्ट्रपति बने ज़ियाउर रहमान “बांग्लादेशी मुस्लिम राष्ट्रवाद” लेकर आये। रहमान ने प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी को भी शह दी जिसकी वजह से आज बंगलादेश में इसकी जड़ें काफी मजबूत हैं। इसके बाद एक और सैन्य तानाशाह हुसैन मुहम्मद इरशाद ने संविधान में संशोधन करते हुये इस्लाम को बांग्लादेश का राजकीय धर्म बना दिया।

आज बांग्लादेश की राजनीति स्पष्ट रूप से दो ध्रुवीय धाराओं में विभाजित है, एक – ‘सेक्युलर’ और दूसरी ‘कट्टरपंथी धार्मिक।’ बंगबंधु की बेटी शेख हसीना प्रथम खेमे का नेतृत्व कर रही हैं जो 2008 से लगातार प्रधानमंत्री हैं। उनके कार्यकाल के दौरान बांग्लादेश में लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील ताकतें मजबूत हुयी हैं। इसी वजह से 2013 में वहां शाहबाग जैसा व्यापक आन्दोलन हो सका जो 1971 के युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों को सजा और पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध जैसी मांगों पर आधारित था, लेकिन वे अभी भी 1972 के संविधान को बहाल करने का अपना वादा पूरा करने का साहस नहीं दिखा सकीं हैं। जाहिर है, कट्टरपंथी खत्म नहीं हुए हैं, बल्कि नेपथ्य में जाकर अपने मौके के इन्तेजार में हैं। शेख हसीना के बाद बांग्लादेश किस दिशा में आगे बढ़ेगा इसको लेकर चिंता करने की वाजिब वजहें भी हैं।

पचास साल पहले बांग्लादेश जैसे मुल्क का वजूद में आना ही इस उपमहाद्वीप के लिए एक सबक की तरह था। इसने विभाजन के सिद्धांत पर पानी फेर दिया था और अब एक बार फिर इस उपमहाद्वीप, खासकर भारत के लिए एक सबक की तरह है कि कैसे कट्टरपंथ और धर्मान्धता को परे रखकर एक प्रगतिशील और सफल राष्ट्र के रूप में आगे बढा जाए। हालांकि यह रास्ता कभी भारत का हुआ करता था, लेकिन आजकल भारत विभाजन के ‘कुतर्क’ को सही ठहराने और इतिहास में गोते लगाने में व्यस्त है, जो कि दरअसल पाकिस्तान का रास्ता रहा है। बांग्लादेश की कहानी प्रगतिशील और विकासशील दक्षिण-एशिया की कहानी का एक नया अध्याय है, जिसका जश्न मनाया जाना चाहिए। (सप्रेस)

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