कुमार प्रशांत

म्यांमार और इस्रायल में इन दिनों जो हो रहा है, उसे किसी दूसरी तरह से समझना संभव ही नहीं है। इसे म्यांमार के तानाशाहों व म्यांमार की जनता का अंदरूनी मामला मान लिया गया है। वहीं फलस्तीन को यह समझना चाहिए कि पिछले 70 से अधिक सालों में इस्रायल विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना चुका है। इस्रायल को भी यह सच अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसे जितना भू-भाग मिला है, वही उसकी सीमा है। इसमें विस्तार की कोई भी कोशिश आत्मघाती होगी।

हमारे मिजोरम से कोई 636 किलोमीटर दूर स्थित म्यांमार हो कि हमसे 4532 किलोमीटर दूर -फलस्तीन-इस्त्रायल हो, दोनों आज एक ही कहानी कहते नजर आते हैं कि संसार इतना क्रूर, कायर, स्वार्थी और असंवेदनशील कभी नहीं था, जितना आज है। स्वार्थ और भय, दो ही भाव हैं कि जो इस संसार को दौड़ाए चल रहे हैं जबकि सच यह है कि स्वार्थ व भय दोनों के ही अपने पांव नहीं होते हैं। लंड़गी दुनिया दौड़ रही है और अंधी दुनिया उसे रास्ता बता रही है।

म्यांमार और इस्रायल में इन दिनों जो हो रहा है, उसे किसी दूसरी तरह से समझना संभव ही नहीं है। म्यांमार में 8-9 फरवरी 2021 को जिन सैनिक तानाशाहों ने लोकतांत्रिक सरकार का गला घोंट कर, अपनी तानाशाही स्थापित की थी, उसने इन तीन महीनों में जन प्रतिरोध को कुचल कर, अपने बूट उसकी गर्दन पर मजबूती से जमा लिये हैं। अश्वेत अमरीकी जॉर्ज फ्लायड की तरह म्यांमार के नागरिक भी कह रहे हैं कि ‘देखो, हम सांस नहीं ले पा रहे हैं’ लेकिन अब कोई नहीं है कि जो उसे सुने। सनसनी व ‘न्यूजवैल्यू’ की रोटी चबाने वाला अंतरराष्ट्रीय मीडिया वहां से अपनी आंखें फेर चुका है। अब इसे म्यांमार के तानाशाहों व म्यांमार की जनता का अंदरूनी मामला मान लिया गया है। अब कहीं कोई जयप्रकाश नारायण नहीं हैं कि जो चीख कर कहें कि लोकतंत्र की हत्या किसी देश का आंतरिक मामला नहीं होती है।

अब कहीं कोई गांधी भी नहीं हैं कि जो इस्रायल को सावधान करें कि तुम धर्म से भी गिर रहे हो और मानवता से भी। 5 मई 1947 को रायटर के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने फलस्तीन-इस्रायल मामले पर उनकी राय पूछी तो वे बोले : “यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। अगर मैं यहूदी होता तो उनसे कहता : ‘ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो। ऐसा कर के तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है।’ अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ है। आखिर यहूदियों को फलस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए ? यह महान जाति है। इसके पास महान विरासतें हैं। मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं। अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही यहां आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़ कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी हो, किसी की भी सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए।” गांधी ने अमरीकी और ब्रिटिश चाल में न फंसने की सलाह यहूदियों को दी थी। लेकिन वे उसी जाल में फंसे और सत्ता के उस अंतरराष्ट्रीय शतरंज के मोहरे  बन गये जिससे छूट पाना कठिनतर होता गया।

अब सब तरफ सन्नाटा है। भारत की घिघियाती आवाज यदि कुछ कहती है तो इतना ही कि अब उसके पास विदेश-नीति जैसा कुछ बचा नहीं है। बालू में सर छुपाए शुतरमुर्ग की तरह वह अब हर तूफान के गुजर जाने का इंतजार करता है ताकि बाद में कुछ रटे-रटाए मुहावरों से लिपा-पोती की जा सके। बाइडेन का अमरीका इस सावधानी के साथ बोल रहा है कि जिससे इस्रायल की बमबारी भी न रुके और उसकी आवाज भी दर्ज होती रहे। चीन जिसे लोकतंत्र समझता है उसमें लोक की जगह कब रही है कि आज वह बोलेगा ! वह पहले दिन से ही म्यांमार की तानाशाही के साथ खड़ा है। भारत समेत अधिकांश विश्व शक्तियों की मुसीबत यह है कि इन सबके अपने-अपने म्यांमार व येरूसलम हैं। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्रसंघ है जो अब व्यक्तित्वहीन सफेद हाथी भर रह गया है।   

यह सारा हंगामा 6 मई 2021 से शुरू हुआ जब इस्रायल के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया कि पूर्व येरूसलम से 6 फलस्तीनी परिवारों को विस्थापित किया जाए। इस्रायल में अभी भी कोई 15 लाख अरबी लोग रहते हैं यानी इस्रायल की जनसंख्या के 20%. इससे इस्रायल का नक्शा करीब-करीब वैसा ही बनता है जैसा बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान का था। ऐसी अप्राकृतिक राजनीतिक संरचना साम्राज्यवाद की कुटिलता की देन है जो हमेशा सावधान थी, और आज भी है कि वह कहीं से निकल भी जाए तो भी वहां उसकी दखलंदाजी चलती रहे और इस्रायल तो साम्राज्यवादी ताकतों की सबसे दुष्टतापूर्ण संरचना है जिसे यहूदियों के गले में जबरन बांध दिया गया जबकि उनके वहां होने का कोई औचित्य था ही नहीं। यह कुछ वैसा ही है जैसे मुहल्ले का कोई गुंडा मेरे घर के एक कमरे में किसी दूसरे को ला बिठाए और धमकी भी दे जाए कि इसे परेशान किया तो हम तुम्हें देख लेंगे।

ऐसे में तीन ही रास्ते थे : एक यह कि जिसे मेरे घर में जबरन ला बिठाया जा रहा है वह वहां बसने से इंकार कर दे; दूसरा यह कि जिसके घर में जबरन किसी को बसाया जा रहा है वह इसका परिणामकारी प्रतिकार करे; तीसरा यह कि दुनिया की न्यायप्रिय ताकतें इस मानमानी को रोक दें। जब इन तीनों में से कुछ भी न हो तो पाकिस्तान भी बन जाता है, इस्रायल भी; और दोनों नासूर की तरह रिसते रहते हैं।

साम्राज्यवादी ताकतों की जबर्दस्ती से इस्रायल बना तो उसने इसी जबर्दस्ती को अपनी अस्तित्व रक्षा का हथियार बना लिया। जबर्दस्ती का मुकाबला करने का दूसरा कोई रास्ता न पा कर फलस्तीन ने भी जबर्दस्ती का ही रास्ता पकड़ा। आज की दुनिया में जबर्दस्ती का एक ही मतलब होता है – आतंकी कार्रवाई ! इस तरह येरूसलम की पवित्र धरती आतंकवाद का आतंकवाद से मुकाबला करने की अभिशप्त धरती में बदल गई जिसे पर्दे के पीछे से उकसाया-भड़काया जाता रहा।

1993-95 के बीच लंबी वार्ता के बाद जो ओस्लो समझौता हुआ वह कागज पर ही रहा, इस्रायल के मन में नहीं उतरा। हमें पाकिस्तान के साथ हुए अपने शिमला समझौते से इसे समझना चाहिए। इसलिए 6 फलस्तीनी परिवारों को विस्थापित करने के आदेश को अपने लिए स्वर्णिम मौका मान कर, अरबी आतंकवादी संगठन हमास ने लपक लिया और उसने इस्रायली बसाहट पर रॉकेट दागे। इस रॉकेट को लपक लिया इस्रायल के हैसियतविहीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने। प्रधानमंत्री बनने की लगातार तीन असफल कोशिशों के बाद होना तो यह चाहिए था कि नेतन्याहू चुनावी राजनीति से अलग हो जाते लेकिन ऐसा लोकतंत्र किसे पसंद आता है कि जो आपका विकल्प भी खोज सकता हो। इसलिए जब तक दूसरी कोई सरकार नहीं बन जाती है, नेतन्याहू नाममात्र के प्रधानमंत्री बने बैठे हैं और किसी तिकड़म का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में हमास के रॉकेट ने उन्हें मुंहमांगा अवसर दे दिया। अब वे इस्त्रायली राष्ट्रवाद का नारा उठा कर फलस्तीन पर टूट पड़े हैं। यह सत्ता में बने रहने का वही फार्मूला है जिससे हमारा खासा परिचय है।

फलस्तीन को यह समझना ही चाहिए कि चाहे जैसे भी बना हो लेकिन पिछले 70 से अधिक सालों में इस्रायल विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना चुका है। जैसे हम अब पाकिस्तान से इंकार नहीं कर सकते हैं, वैसे ही फलस्तीनी इस्रायल से इंकार नहीं कर सकते। इस्रायल को भी यह सच अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसे जितना भू-भाग मिला है, वही उसकी सीमा है। इसमें विस्तार की कोई भी कोशिश आत्मघाती होगी। आतंकी कार्रवाइयों से न कोई मुकम्मल मुल्क बनता है, न टिकता है, न सुख-शांति-समृद्धि पा सकता है। इस संदर्भ में भारत समेत दुनिया के सभी न्यायप्रिय मुल्कों की एक ही भूमिका हो सकती है कि इन दोनों के बीच न आग भड़के, न भड़काई जाए। यहां मौन कायरता बन जाती है, अनदेखी अन्याय में हिस्सेदारी। वैश्विक ताकतें यही कर रही हैं। (सप्रेस)

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें