4 अगस्त को हुए विस्फोट के बाद से लेबनान की जनता एक तरफ अपने शहर को बनाने, खड़ा करने में जुटी है तो दूसरी तरफ वहाँ के सत्ता वर्ग को चुनौती दे रही है। आंदोलन को हिंसा और दमन भी झेलना पड़ा है लेकिन वावजूद उनके जोश और हौसले में कमी नहीं आयी है। फिलहाल वहाँ का शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचाने के लिए आपसी जोड़तोड़ और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के साथ शतरंज की बाजियाँ लगा रहा है और वैसे में यह रोचक होगा की आने वाले समय में क्या अक्टूबर क्रांति लेबनान की जनता को सही मायने में आज़ादी दिला सकेगा।
4 अगस्त को बेरूत बंदरगाह पर हुए विस्फोट ने सिर्फ लेबनान ही नहीं पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। कहा जा रहा है इस विस्फोट के पीछे पिछले 6 साल से वहाँ खड़े जहाज़ का 2750 टन अमोनिया नाइट्रेट का भंडार है जो एक गोदाम में रखा पड़ा था और आज तक जिसे नष्ट नहीं किया गया था। लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं है कि विस्फोट कैसे हुआ, किसने किया, यह बारूद का ढेर क्यों और कैसे इतने समय तक इकट्ठा हुआ और जहाज़ किसका था और वहाँ क्यों था ? मलबों का ढ़ेर अभी पूरी तरह साफ़ भी नहीं हुआ है लेकिन लेबनान हमेशा की तरह एक अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक अखाड़ा बना हुआ है। लेबनान के राजनैतिक हालात और जन प्रदर्शनों के अक्टूबर से चल रहे आंदोलन के ऊपर जिसे ‘अक्टूबर क्रांति’ भी कहा जा रहा है।
इस विस्फोट में 170 से ज्यादा लोगों की मौतें, करीब 5000 लोग घायल और तीन लाख लोग विस्थापित हुए हैं। इसके बाद वहाँ के राजनैतिक पटल में तेज सरगर्मी हुई और एक सप्ताह के भीतर 10 अगस्त को प्रधानमंत्री हसन दीआब ने अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति माइकल एओन को दे दिया।
फिलहाल राजनैतिक अस्थिरता बनी हुई है और पहले से राजनैतिक भ्रष्टाचार, आर्थिक मंदी, महँगाई और बेरोजगारी से त्रस्त जनता के प्रदर्शन जो पिछले साल 17 अक्टूबर को शुरू हुए थे, और तेज हो गए हैं । एक तरफ विस्फोटों के लिए पूरे राजनैतिक वर्ग को जनता ने दोषी ठहराया है तो दूसरी तरफ स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय जांच की मांग तेज हो रही है। विस्फोट के दो दिनों के भीतर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन बेरूत पहुँचे और अंतर्राष्ट्रीय और निष्पक्ष जाँच की मांग की, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है की, फ्रांस किसके साथ खड़ा है, वहाँ के राजनैतिक वर्ग के साथ या फिर जनता के साथ। लेबनान को फ्रांस के उपनिवेशवाद से भले ही 40 के दशक में आज़ादी मिल गयी हो लेकिन आज भी फ्रांस का हस्तक्षेप वहाँ की राजनीति में पूर्णतः है।
बेरुत : मध्य पूर्व एशिया का पेरिस ?
बेरुत, जिसे मध्य पूर्व एशिया का पेरिस कहा जाता था, आज एक असफल देश की राजधानी के रूप में देखा जा रहा है। घोर गरीबी और गैरबरारबरी के बीच, बेरुत की सडकों पर कारों की लम्बी कतारें और फुटपाथों पर फैला बाज़ार, भीड़-शोर और प्रदूषण की बीच कूड़ों का अम्बार, पुराने शहर की संकरी गालियाँ और इन सबके बीच आतंक और सरकारी भ्रष्टाचार। सरकार का कानून कहीं लागू होता है और कहीं हिज़्बुल्लाह का। बेरुत या लेबनान के लिए हिंसा और युद्ध कुछ नया नहीं है। इस ताज़ा विस्फोट के पहले बेरुत में 2005 में हुए 1000 टन के बारूदी विस्फोट ने पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हारीरी की जान ली थी। भले ही सीरिया समर्थित हिज़्बुल्लाह को उस विस्फोट के पीछे माना जाता है लेकिन आज तक जांच में कोई स्पष्ट नतीजा नहीं निकला है और कमोबेस शायद इस विस्फोट के साथ भी वही हो।
उस विस्फोट से उपजी राजनैतिक अस्थिरता और जनता के प्रदर्शनों ने सीरिया के 30 साल पुराने सैन्य वर्चस्व और हस्तक्षेप को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था लेकिन उसके बाद भी जनता के लिए कुछ नहीं बदला और सत्ता सिया, सुन्नी और क्रिश्चियन धर्मों के कुछ खास राजनैतिक वर्चस्व के परिवारों के बीच ही सिमट कर रहा। रफीक हारीरी की जगह उनके बेटे शाद हारीरी ने ले लिया और सत्ता का बँटवारा आज़ादी के समय से चले आ रहे 1943 के फॉर्मूले के आधार पर जारी रहा। राष्ट्रपति क्रिश्चियन समुदाय के होंगे, प्रधानमंत्री सुन्नी मुसलमान और संसद का सभापति सिया मुसलमान। यह त्रिपक्षीय फार्मूला कमोबेश वहाँ की राजनैतिक अस्थिरता के लिए भी जिम्मेदार है।
हिंसा, जब आम हो जाए
मध्य पूर्व एशिया में बसे इस देश की चर्चा अंतर्राष्ट्रीय हलकों में तीन कारणों से हमेशा रही है : इसका भौगौलिक महत्त्व क्योंकि टर्की, सीरिया, इजराइल, मिश्र, फिलिस्तीन, ईरान और इराक के करीब होने के कारण एक सामरिक महत्व है; दूसरा कट्टर सांप्रदायिकता जिसकी परिनती वहाँ के 1975 से 1990 तक का गृह युद्ध रहा; और तीसरा उस क्षेत्र में लगातार बदलते समीकरण और तनाव के कारण इजराइल और सीरिया से हिंसक संघर्ष। इन सबके साथ 2011 के बाद सीरिया में छिड़े हिंसक संघर्षों के कारण एक और अध्याय जुड़ गया, जब सालों से रह रहे करीब 5 लाख फिलिस्तीनी शरणार्थियों के अलावा करीब 15 लाख शरणार्थी और सीरिया से आ गए। कुल मिलाकर 68 लाख की आबादी वाले इस देश में 20 लाख शरणार्थी। सीरिया में हालात सुधरने के कारण कुछ अपने देश वापस गए हैं लेकिन आज फिर भी देश में हर पाँचवाँ व्यक्ति एक शरणार्थी है।
अपने देश के हालातों के बारे में लिखती हुई लेखिका और शोधकर्ता किम घटास बताती हैं कि अगर आप जीवन के चौथे दशक में है, तो आपने अपने जीवन में 15 साल का गृह युद्ध, दो इजरायली आक्रमण (1982 और 2006), 30 साल का सीरियाई कब्ज़ा, आर्थिक पतन और मुद्रा अवमूल्यन के कई दौर, लगातार होती इजरायली बमबारी, एक असफल क्रांति (2005 रफ़ीक हारिरी की हत्या के बाद उमड़ा जन संघर्ष, सीडर क्रांति), राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों की लगातार हो रही हत्याएँ जिसने प्रगतिवादियों की रैंक को धीरे – धीरे कम कर दिया, और, 2019 अक्टूबर से भ्रष्ट राजनीतिक अभिजात वर्ग हटाने को लेकर चल रहे जन प्रतिरोध की लहर, अक्टूबर क्रांति। सब कुछ आप देख चुके हैं और आप दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे हों, फिर भी एक लेबनानी होने के नाते आप हमेशा इन घटनाओं से घिरे हैं।
सब मतलब सब, अक्टूबर क्रांति, पूरे राजनैतिक वर्ग के ख़िलाफ़
इन सबके बीच फिर भी उम्मीद की किरण नज़र आती है 2019 में शुरू हुए जन प्रदर्शनों से जिसे लोग ‘अक्टूबर क्रांति’ भी कहते हैं। इसकी नींव 2005 के सीडर क्रांति से भी जुडी है और अगर देखें तो वहाँ की बिखरी हुई और धर्म और समुदाय के आधार पर बँटी हुई राजनीति में मौजूदा प्रदर्शन कई कदम आगे हैं। इन प्रदर्शनों में लोगों की एकजुटता साफ़ नज़र आयी है और लोगों की राजनैतिक समझदारी ही कहें की उन्होंने पूरे राजनैतिक वर्ग को देश के हालत के लिए जिम्मेदार ठहराया है और उनकी माँग है की एक स्वतंत्र और विश्वसनीय लोगों की सरकार बने जो किसी भी बाहरी ताकत पर निर्भर ना हो। जैसा कि अभी सभी राजनैतिक दलों के तार ईरान, सऊदी अरबिया, संयुक्त अरब अमीरात, सीरिया, फ्रांस या अन्य लोगों से जुड़े हैं जिनका एक ख़ास मकसद है अपनी सत्ता बरक़रार रखना और उसके लिए कभी जरूरत पड़े तो एक- दूसरे के खिलाफ पैंतरे बदलना और झूठी बयानबाज़ी करना।
मौजूदा प्रदर्शनों के बारे में लिखते हुए लेबनानी पत्रकार और फिल्मकार वालिद अल हौरी लिखते हैं कि अक्टूबर में प्रदर्शनों की शुरुआत के बाद से बोलने वाले सभी प्रमुख राजनेताओं के भाषण, विशेष रूप से राष्ट्रपति माइकल एओन, उस समय के प्रधानमंत्री साद हरीरी, या हिजबुल्ला के महासचिव हसन नसरल्लाह, सभी ने अनिवार्य रूप से एक ही बात कही है, “हम अच्छे लोग हैं, हम आपके साथ हैं और दूसरे लोग समस्या की जड़ हैं। हम जनता की माँगों का समर्थन करते हैं। हमने हमेशा कहा है कि हमें भ्रष्टाचार से लड़ने की जरूरत है। हमें एक और मौका दें क्योंकि हमारे अलावा कोई विकल्प नहीं है।
“लेकिन वास्तविकता यही है की लेबनान में राज्य के सभी पहलू अर्थव्यवस्था से लेकर न्यायपालिका, पुलिस, बैंकिंग, आदि तक … एक ही नेटवर्क द्वारा नियंत्रित होते हैं जिसमें इन तीनों धड़ों के लोगों का दबदबा है। मूल रूप से यह सामंती और सैन्य ताकतों, पूंजीपतियों, धार्मिक गुरुओं, बैंकरों और भूस्वामियों आदि का एक नेटवर्क है … इस नेटवर्क का मुकाबला करना आसान नहीं है, इसकी वित्तीय, सैन्य और सामाजिक पूंजी बेतहाशा है और इसके तार कई देशों से जुड़े हैं।
विफलताओं की नींव पर
और शायद यही वजह है की पूर्व में हुए कई आंदोलनों में लोगों को सफलता नहीं मिली। 2005 में सीडर क्रांति ने सीरियन सेना के क़ब्ज़े ख़त्म किया लेकिन संवैधानिक बदलाव करने में नाकाम रही। उसके बाद 2006 में इजराइल की भारी बमबारी के बीच जनता के सॉलिडेरिटी अभियान ने ज़ोर पकड़ा और दक्षिण लेबनान से आये लाखों की संख्या में शरणर्थियों की मदद के लिए आगे आए, लेकिन कोई कारगर संगठित शक्ति नहीं उभर पायी। 2011 में पूरे अरब क्षेत्र में उमड़े जन शैलाब, जिसने कई देशों में तख्ता पलट किया, की तर्ज़ पर लेबनान में भी प्रदर्शन हुए लेकिन लम्बे नहीं चले। लेकिन इन सभी प्रदर्शनों ने जनता की राजनीती को दो कदम आगे ही बढ़ाया और सत्ता वर्ग को चुनौती दी।
इन सबके बीच 2015 में बेरुत शहर में भयानक गंदगी और कूड़ा प्रबंधन में सरकार की विफलता के बीच उभरे जन प्रदर्शन ने पहली बार वहाँ एक सिविल सोसाइटी प्लेटफार्म “बेरुत मेदिनाती (बेरुत मेरा शहर)” को जन्म दिया जिसने 2016 के म्युनिसिपल चुनावों में भागीदारी की। बेरुत मदिनति ने संप्रदाय-विरोधी समूहों के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की, और 2018 के संसदीय चुनावों में अन्य जन समूहों को प्रोत्साहित किया। इस तरह 2018 के राष्ट्रीय चुनाव में लेबनान के आधुनिक इतिहास में पहली बार, कुललुना वतनी (हम ही देश हैं) नामक एक राष्ट्रीय गठबंधन उभरा, जिसमें 11 स्वतंत्र नागरिक समूह (30% महिलाओं सहित) के 66 उम्मीदवारों ने 15 चुनावी जिलों में से 9 में पारंपरिक दलों और नेताओं के आधिपत्य को चुनौती दी। इस कारण मध्यम वर्ग के बीच थोड़ी आशा तो जगी लेकिन सिर्फ एक सीट पर जीत ने लोगों को निराश किया और ठीक विपरीत पारंपरिक राजनीतिक दलों द्वारा 128 में से 103 सीटें पर जीत ने यह दिखा दिया की चुनावी खेल में वह अब भी माहिर हैं।
हालाँकि 2018 में चुनाव पहली बार नए कानून के तहत हो रहा था, जो की मौजूदा प्रदर्शनों की एक महत्वपूर्ण माँग है। दरअसल 1943 के सांप्रदायिक फॉर्मूले के आधार पर और ‘फर्स्ट पास्ट द पोल सिस्टम’ (first past the pole system) के कारण समाज में धार्मिक और सामुदायिक विभाजन किसी स्वतंत्र राजनीती को पनपने ही नहीं देता और इसलिए जनता के घोर असंतोष के बीच 2017 में ‘प्रोपोरशनल रिप्रजेंटेशन’ (proportional representation) को लागू किया गया। जो कि अपने आप में महत्वपूर्ण है लेकिन एक स्वतंत्र चुनाव आयोग, और चुनावी खर्चों की नीयत सीमा के अभाव में नया सिस्टम बेकार है क्योंकि पुरानी स्थापित पार्टियों के नेटवर्क समाज में अपनी जड़ें जमा चूका है और उसे तोडना इतना आसान नहीं है।
नयी राजनीति का आग़ाज़
इन सबके वावजूद अक्टूबर क्रांति से लोगों को उम्मीदें हैं। प्रदर्शनों के शुरू होने की तुरंत बाद प्रधानमंत्री शाद हारीरी ने इस्तीफ़ा दे दिया और कई महीनों की अनिश्चितता के बाद हसन दियाब प्रधान मंत्री बने। यह अपने आप में एक मत्वपूर्ण जीत है और उसके आगे बढ़ कर देखें तो यह आंदोलन कई मायनों में पुराने प्रदर्शनों से अलग है। इसकी कुछ ख़ास बातें जैसे वालिद अल हौरी लिखते हैं :
– यह आंदोलन किसी भी आइकन के खिलाफ है। कई मान्यताओं को तोड़ते हुए और अपने नारों और गीतों के माध्यम से इन्होने ‘अपमान / insult’ को एक औजार बनाया है सत्ता वर्ग को कठघरे में खड़ा करने के लिए ।
– एक ऐसा देश जहां लगभग आधी आबादी राजधानी शहर बेरुत और उसके आसपास रहती है, जिसका अधिकांश व्यापारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि पर एकाधिकार है वहाँ इसकी शुरुआत त्रिपोली, सैदा और तैयरा जैसे अन्य शहरों से होती है। कई मायनों में मार्जिन पर खड़े लोगों की क्रान्ति है।
– एक नयी लेबनानी नैरेटिव का निर्माण जो की प्रतिक्रियावादी नहीं है, और जिसकी जड़ में सीरिया और फिलिस्तीन से विरोध या वहाँ के शरणार्थियों के खिलाफ उभरता नस्लवाद नहीं है। दरअसल आर्थिक मंडी से जूझ रहे देश में मौजूद 20 लाख शरणार्थी और लगभग ढाई लाख शोषित प्रवासी मज़दूर हमेशा शासक वर्ग के लिए जनता को बरगलाने में काम आते रहे हैं।
– पहली बार धर्म और सम्प्रदाय से आगे बढ़कर एक नई उभरती हुई राष्ट्रीय पहचान के साथ लोगों का जुड़ाव हो रहा है ।
– एक दुर्लभ क्रॉस-रीजनल सॉलिडैरिटी का उदय, जिसने देश में बहुत से सांप्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजन को तोड़ दिया है और एक ठोस राष्ट्रीय सामंजस्य और वर्ग जागरूकता स्थापित किया है, जो की यूनियनों, छात्र आंदोलन और महिलाओं के संघर्षों के माध्यम से देश भर में फैल गया है।
– और सबसे आखिरी में वर्षों से हिंसा और सांप्रदायिकता से जूझ रहे समाज में लोगों के द्वारा सिर्फ स्व-आयोजन ही नहीं बल्कि सामूहिक जनतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया या फिर कई तरह के नए अनुभव, वह चाहे प्रदर्शनों को सुचारु रूप से चलाने में हो या फिर, सडकों की सफाई, कचरा प्रबंधन, सामूहिक किचन चलाना आदि।
बिना किसी केंद्रीकृत लीडरशिप के लम्बे समय तक देश भर में प्रदर्शन और अपनी माँगों पर टिकी जनता के प्रदर्शन अभी थमे नहीं। 4 अगस्त को हुए विस्फोट के बाद से लेबनान की जनता एक तरफ अपने शहर को बनाने, खड़ा करने में जुटी है तो दूसरी तरफ वहाँ के सत्ता वर्ग को चुनौती दे रही है। आंदोलन को हिंसा और दमन भी झेलना पड़ा है लेकिन वावजूद उनके जोश और हौसले में कमी नहीं आयी है। फिलहाल वहाँ का शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचाने के लिए आपसी जोड़तोड़ और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के साथ शतरंज की बाजियाँ लगा रहा है और वैसे में यह रोचक होगा की आने वाले समय में क्या अक्टूबर क्रांति लेबनान की जनता को सही मायने में आज़ादी दिला सकेगा।
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