‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ (8 मार्च) पर विशेष

बरसों-बरस अपनी मां, बहन, बेटी, बीबी से ‘कुछ नहीं करती हूं’ सुनते और फिर इसी ‘कुछ नहीं’ की बदौलत जिन्दा रहते हम सब क्या इस आधी आबादी को मान देने का कोई तरीका ईजाद कर सकते हैं? क्या एन चुनाव के पहले वोट की खातिर पैसा बांटने की बजाए महिलाओं के प्रति कृतज्ञता स्वरूप कोई निधि तय की जा सकती है? इसी की पडताल करता,‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर योगेन्द्र यादव का विशेष लेख।
“मैं? मैं तो कुछ नहीं करती। घर पे रहती हूँ। हाउसवाइफ हूँ।” मुझे अक्सर इस जवाब का सामना करना पड़ता है। जब कोई दंपत्ति कहीं मिल जाएँ तब अक्सर पुरुष आगे बढ़कर अपना परिचय देता है। उनकी पत्नी पीछे खड़ी रहती है। चुपचाप नमस्ते करती है। जैसे पुरुष से पूछता हूँ, वैसे ही महिला से भी पूछता हूँ, “और आप क्या करती हैं?” इरादा उनकी उपस्थिति को दर्ज करने और बातचीत में उन्हें शामिल करने का होता है, उनकी कमाई के स्रोत के बारे में पूछना नहीं। अगर वो महिला गृहिणी हो तो अक्सर सकुचा जाती है, खासतौर पर अगर वो पढ़ी-लिखी आधुनिक महिला हो। झेंपकर कहती है कि वो “कुछ नहीं” करती।
इस उत्तर से मैं परेशान हो जाता हूँ। कहता हूँ, घर पर काम करना तो “कुछ नहीं” की श्रेणी में नहीं आता। ख़ुद अपनी मिसाल देता हूँ। एक बार मुझे तीन हफ़्ते के लिए अकेले दोनों छोटे बच्चों को संभालना पड़ा था। विदेश था, इसलिए किसी तरह की पारिवारिक मदद नहीं थी। वहाँ मजदूरी इतनी ज़्यादा है कि पैसे देकर घरेलू काम करवाने की हैसियत बहुत कम लोगों की होती है। इसलिए बच्चों को तैयार करने, स्कूल छोड़ने से लेकर रसोई-बर्तन और झाड़ू-पोंछा सब काम अपने हाथ से करना पड़ता था। तीन हफ़्ते तक “कुछ नहीं” करते-करते मेरी कमर टूट गई थी। इसलिए जब कोई “कुछ नहीं” कहता है तो मुझे ध्यान आता है कि यह कितना मेहनत का काम है। यह किस्सा सुनकर गृहणी के चेहरे पर मुस्कान आती है, लेकिन दिल और दिमाग पर पड़ी लकीर को आप एक किस्से से तो पोंछ नहीं सकते। समाज को कैसे समझायें कि औरत कितना काम करती है?
यूँ तो प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन हाल ही में एक आधिकारिक रिपोर्ट ने मेरी इस धारणा की पुष्टि कर दी कि दरअसल एक औसत औरत, एक औसत मर्द से ज़्यादा काम करती है। यह कोई छोटा-मोटा अध्ययन या कोई शौक़िया आंकड़ा नहीं है। भारत सरकार ने पिछले पाँच साल से आधिकारिक रूप से अखिल भारतीय स्तर पर ‘टाइम यूज़ सर्वे’ करवाना शुरू किया है। पाँच साल के अंतराल के बाद ‘नेशनल सैंपल सर्वे’ (एनएसएसओ) द्वारा किये जाने वाले इस सर्वे में देश के लगभग डेढ़ लाख परिवारों के छह साल से बड़े सभी सदस्यों का सर्वे किया जाता है। इस सर्वे में उनके घर जाकर उनसे पूछा जाता है कि आपने कल सुबह चार बजे से लेकर आज सुबह चार बजे तक क्या कुछ किया। हर आधे घंटे या उससे भी कम समयावधि में किए हर काम का ब्यौरा दर्ज कर उसका विश्लेषण किया जाता है, इस रिपोर्ट में। इसकी पहली रिपोर्ट वर्ष 2019 में आई थी। दूसरी रिपोर्ट हाल ही में केंद्र सरकार ने सार्वजनिक की है।
वर्ष 2024 के आंकड़े पर आधारित यह नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में एक औसत औरत हर दिन, एक औसत पुरुष की तुलना में एक घंटा ज़्यादा काम करती है। सटीक आँकड़े देखें तो हर पुरुष प्रतिदिन 307 मिनट (यानी 5 घंटे और 7 मिनट) काम करता है तो एक औसत महिला प्रतिदिन 367 मिनट (यानी 6 घंटे और 7 मिनट) काम करती है। फ़रक यह है कि पुरुष को अधिकांश काम की कमाई मिलती है, लेकिन महिला के अधिकांश काम की कमाई नहीं होती। एक औसत पुरुष के 307 मिनट में 251 मिनट का काम पैसे देता है, उसके सिर्फ 56 मिनट ऐसे काम में लगते हैं जिसकी कमाई नहीं होती, लेकिन महिला की स्थिति ठीक उलटी है। उसके 367 मिनट में सिर्फ 62 मिनट के काम से कमाई होती है और 305 मिनट का काम “कुछ नहीं” की श्रेणी में रह जाता है। यानि सिर्फ़ इतना कहना ठीक नहीं है कि आदमी बाहर का काम करता है और महिला घर का। अंदर-बाहर दोनों काम जोड़ दें तो महिला का काम भारी होता है।
अभी 2024 के सभी आंकड़े नहीं आए हैं, लेकिन 2019 के आंकड़े देखकर हम कुछ गहराई में जा सकते हैं। यह “कुछ नहीं” वाला काम मुख्यतः दो श्रेणी में आता है – एक तो घर में रसोई, सफ़ाई, कपड़ा धोना, पानी भरना जैसा घर चलाने का काम और दूसरा, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल का काम। इन दोनों तरह के कामों में महिला पर बोझ हर वर्ग के परिवार में देखा जा सकता है। यह एक सामान्य भ्रांति है कि अगर औरत कमाने लग जाय तो यह बोझ घट जाता है। यह रिपोर्ट बताती है कि दरअसल ‘कामकाजी’ यानी पैसा कमाने वाली महिला दोनों तरफ़ से पिसती है। ग्रामीण परिवार में कमाने के लिए काम करने के बाद भी इन दोनों घरेलू कामों में महिला औसतन 348 मिनट खर्च करती है तो शहरी परिवार में भी 316 मिनट। अगर पुरुष बेरोजगार हो तब भी वह घर के काम में हाथ नहीं बँटाता।
पिछली रिपोर्ट इस भ्रांति का भी खंडन करती है कि औरतें साज-श्रृंगार में ज़्यादा समय खर्च करती हैं। एक औसत दिन में पुरुष नहाने-धोने-तैयार होने में 74 मिनट लगाते हैं, और महिलायें उससे कम 68 मिनट। खाने-पीने में भी पुरुष महिलाओं से दस मिनट फ़ालतू लेते हैं। गृहिणी को सुस्ताने, आराम करने, बातचीत करने और मनोरंजन के लिए दिन में 113 मिनट मिलते हैं, जबकि पुरुष को 127 मिनट।अब सवाल यह उठता है कि यह कौन तय करता है कि किस काम के लिए पैसा मिले और किसके लिए नहीं? जाहिर है यह काम के महत्व के आधार पर तय नहीं होता। दफ्तर और फैक्ट्री के काम के बिना तो फिर भी दुनिया चल सकती है, लेकिन रसोई और बच्चों की देखभाल के बिना नहीं। पुरुष प्रधान समाज ने अपने फायदे के लिए यह व्यवस्था बना रखी है। तो क्या इस अन्याय को ठीक करने की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए?
पिछले कुछ वर्षों में अनेक राज्यों में महिलाओं को कुछ पैसा नियमित रूप से देने का चलन निकला है। अलग-अलग नाम से चली इन योजनाओं को पैसा बांटने की खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में देखा और दिखाया गया है, लेकिन अगर यह देश पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं की मेहनत पर चल रहा है तो राष्ट्र निर्माण में उनके इस योगदान के एवज़ में उन्हें कुछ भुगतान करने में क्या बुरा है? इसे चुनाव से पहले रिश्वत या भीख की तरह देने की बजाय क्यों नहीं महिलाओं के लिए “कृतज्ञता निधि” जैसी कोई राष्ट्रव्यापी योजना बनाई जाती? 8 मार्च को इस महिला दिवस पर देश में विचार क्यों नहीं होता? (सप्रेस)