फलस्तीन-इसरायल विवाद

कुमार प्रशांत

फलस्तीन-इसरायल विवाद पर प्रारंभ से महात्मा गांधी की नजर थी और वे हर संभव मौके पर उस विवाद को एक रचनात्मक मोड़ देने की कोशिश करते रहे थे. अपने देश की आजादी की अनोखी लड़ाई का नेतृ्त्व करते हुए भी वे अंतरराष्ट्रीय सवालों के बारे में न केवल उदासीन नहीं रहे, बल्कि सत्याग्रह का कैसा प्रयोग इन मामलों में किया जा सकता है, इसकी बात भी कहते रहे. फलस्तीन-इस्रायल विवाद के बारे में उनके हस्तक्षेप के इतिहास में उस दौर का जिक्र है जब जर्मनी में गांधी के खिलाफ वातावरण गर्म हो उठा था.

“और अब कुछ शब्द फलीस्तीन के यहूदियों के बारे में. मुझे इसमें कोई शक ही नहीं है कि वे गलत रास्ते जा रहे हैं. बाइबिल में जिस फलस्तीन की बात है, उसका तो आज कोई भौगोलिक आकार नहीं है. वह तो आपके ह्रदय में बसता है. आज के भौगोलिक फिलीस्तीन को यदि वे अपना राष्ट्रीय घर बनाना चाहते हैं तो भी ब्रिटिश बंदूकों के साये तले वहां उनका प्रवेश करना गलत होगा. किसी संगीन या बम के सहारे कोई धार्मिक काम नहीं किया जा सकता. अरबों की सदाशयता से ही वे फलीस्तीन में बस सकते हैं. उन्हें अरबों का ह्रदय जीतने की कोशिश करनी चाहिए. अरबों के ह्रदय में भी वही ईश्वर बसता है जो यहूदियों के ह्रदय में बसता है. वे अरबों के सामने सत्याग्रह करें और उनके खिलाफ एक अंगुली भी उठाए बिना खुद को समर्पित कर दें कि वे चाहें तो उन्हें गोलियों से भून डालें या समुद्र में फेंक दें. विश्व जनमत इस धार्मिक प्रेरणा के समर्थन में उठ खड़ा होगा. एक बार वे ब्रिटिश संगीनों के साये से बाहर निकलेंगे तो अरबों से संवाद के अनेक रास्ते निकल आएंगे. आज तो हालत यह है कि ब्रिटिश लोगों के साथ मिलकर यहूदी उन लोगों को बर्बाद कर रहे हैं जिनका कोई अपराध ही नहीं है. 

“मैं अरबों द्वारा की गई ज्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूं, लेकिन मैं जरूर मानता हूं कि वे सही ही अपने देश पर की जा रही अनुचित दखलंदाजी का विरोध कर रहे हैं. मैं यह भी चाहता हूं कि वे अहिंसक तरीके से इसका मुकाबला करते. लेकिन सही और गलत की जो सर्वमान्य व्याख्या बना दी गई है, उस दृष्टि से देखें तो बड़ी प्रतिकूलताओं के समक्ष अरबों ने जिस रास्ते प्रतिकार किया है, उसकी आलोचना कैसे करेंगे? इसलिए अब यहूदियों पर ही है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का जैसा दावा करते हैं, उसे अहिंसक तरीके अपना कर संसार के सामने प्रमाणित करें…” 

गांधीजी का यह लेख सारी दुनिया में पहुंचा, और फिर जो होना था, वही हुआ. जर्मनी में गांधी के तीखे विरोध की घनघोर आंधी उठी. गांधी ने फिर कहा : “जर्मनी में यहूदियों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में मेरे लेख की जैसी क्रोध भरी प्रतिक्रिया हुई है, मैं उसकी अपेक्षा कर ही रहा था. मैंने तो यूरोप की राजनीति के बारे में अपना अज्ञान पहले ही कबूल कर लिया था. लेकिन यहूदियों की बीमारी का इलाज बताने के लिए मुझे यूरोप की राजनीति का जानकार होने की जरूरत ही कहां थी ! उन पर किए जा रहे जुर्म विवाद से परे हैं. मेरे लिखे लेख पर उनका गुस्सा जब कम होगा और उनकी मन:स्थिति किसी हद तक शांत होगी तब मुझसे सबसे अधिक क्रोधित जर्मन भी यह पहचान सकेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है उसके भीतर जर्मनों के लिए दुर्भावना नहीं, मित्रता का सोता ही बह रहा है. 

“यह मेरी समझ से परे है कि मेरे उस मासूम लेख में ऐसा क्या था कि कोई जर्मन मुझ पर क्रोधित हो. यह तो मैं समझ सकता हूं कि कोई जर्मन आलोचक यह कहे, जैसा कि दूसरे भी कह सकते हैं कि यह सब खामख्याली की वैसी बातें हैं जिनकी विफलता निश्चित है. मैं अपने लेख पर वैसी प्रतिक्रिया और गुस्से का स्वागत ही करूंगा, हालांकि उसका कोई औचित्य नहीं है. क्या मेरी बात आप तक पहुंची ? क्या आप यह समझ सके कि मेरा सुझाया रास्ता दरअसल उतना उपहासपूर्ण नहीं है, जितना लगता है ? बदला लेने की भावना से ऊपर उठकर, कष्ट सह जाने के आनंद का अनुभव यदि आपने कर लिया तो मेरा सुझाया रास्ता आपको खासा अनुकरणीय लगने लगेगा. 

“यह कहना कि मेरे लेख से न मेरा, न मेरे आंदोलन का, न भारत-जर्मनी संबंधों का कोई भला हुआ, मुझे किसी मतलब का तर्क नहीं लगता है, बल्कि मुझे इसमें धमकी जैसा भी कुछ छिपा लगता है. मैं खुद को कायर समझूंगा यदि मैं खुद को, अपने देश को या भारत-जर्मनी संबंधों को नुकसान पहुंचने के डर से वह सलाह न दूं जो मुझे अपने दिल की गहराइयों से सौ फीसदी सच्ची लगती है. 

“बर्लिन के उस लेखक ने तो कमाल का यह सिद्धांत बना दिया है कि जर्मनी के बाहर के किसी भी व्यक्ति को, दोस्ताना भाव से भी, जर्मनी के किसी कदम की आलोचना नहीं करनी चाहिए. मैं अपने लिए तो कह ही सकता हूं कि जर्मनी या किसी भी देश का कोई भी आदमी भारत की आलोचना के लिए कोई दूर की कौड़ी भी खोज लाए तो मैं उसका स्वागत करूंगा. मैं ब्रिटिश लोगों को जितना जानता हूं उस आधार पर कह सकता हूं कि वे भी किसी दुर्भावना या अज्ञान के आधार पर की गई निंदा के अलावा, बाहरी लोगों की आलोचना का स्वागत ही करेंगे. आज के दौर में, जब दूरियां सिकुड़ती जा रही हैं, कोई भी राष्ट्र कुएं का मेंढ़क बनकर रह नहीं सकता. कभी-कभी दूसरों की आंख से खुद को देखना ताजगी भरा अनुभव होता है. इसलिए मुझे लगता है कि जर्मन आलोचक यदि मेरा यह जवाब देखेंगे तो वे भी मेरे लेख के बारे में अपनी राय बदलेंगे और बाहर से हो रही आलोचना की कीमत समझ सकेंगे.”

सन् 1946 के मध्य में गांधी अपने प्रिय आरामगाह पंचगनी पहुंचे तो 14 जुलाई 1946 को यहूदी और फिलीस्तीन शीर्षक से संपादकीय लिखा : “ यहूदियों और अरबों के बीच के विवाद पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने से अब तक मैं बचता रहा हूं, और इसके कारण हैं. कारण यह नहीं है कि मेरी इस मामले में दिलचस्पी नहीं है, बल्कि कारण यह है कि मुझे लगता रहा है कि इस बारे में मेरी जानकारी पर्याप्त नहीं है. ऐसे ही कारण से मैं कई अंतरराष्ट्रीय सवालों पर अपनी बात कहने से बचता हूं. वैसे ही मेरे पास जान जलाने को कुछ कम तो है नहीं ! लेकिन एक अखबार में छपी चार पंक्तियों की खबर ने मुझे अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह भी तब, जब एक मित्र ने उसकी तरफ मेरा ध्यान खींचते हुए, मुझे वह कतरन भेजी… मैं मानता हूं कि संसार ने यहूदियों के साथ बहुत क्रूर जुल्म किया है. जहां तक मैं जानता हूं, यूरोप के बहुत सारे हिस्सों में यहूदी बस्तियों को ‘घेटो’ कहा जाता है. उनके साथ जैसा निर्दयतापूर्ण बर्ताव हुआ, वह नहीं हुआ होता तो इनके फिलीस्तीन लौटने का कोई सवाल ही कभी पैदा नहीं होता. अपनी विशिष्ट प्रतिभा और देन के कारण सारी दुनिया ही उनका घर होती. 

“लेकिन उनकी बहुत बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने फिलीस्तीन पर खुद को जबरन थोप दिया – पहले अमरीका और ब्रिटेन की मदद से, और अब नंगे आतंकवाद की ताकत से ! उनकी विश्व नागरिकता उनको संसार के किसी भी देश का सम्मानित नागरिक बना सकती थी. उनकी कुशलता, उनकी बहुमुखी प्रतिभा और सूझ-बूझ से काम करने की उनकी महान क्षमता का स्वागत कौन नहीं करता ! ईसाई समाज के माथे पर यह काला धब्बा है कि उसने ‘न्यू टेस्टामेंट’ का गलत अध्ययन और उसकी गलत व्याख्या करके यहूदी समाज को निशाना बनाया कि एक यहूदी कोई गलती करता है तो सारे यहूदी समाज को उसका अपराधी माना जाएगा. यदि आइंस्टाइन जैसा एक यहूदी कोई महान अविष्कार करता है या कि कोई संगीतकार अश्रुतपूर्व संगीत रचता है तो उसे एक व्यक्ति की उपलब्धि माना जाएगा, नहीं कि उसका श्रेय उनके समुदाय को भी दिया जाएगा. 

“किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहूदियों को जैसी तकलीफदेह स्थिति में डाल दिया गया है, उस कारण मेरी सहानुभूति उनके साथ है. लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि प्रतिकूल परिस्थितियां हमें शांति का पाठ भी तो पढ़ाती हैं ! जहां उनका सहज स्वागत नहीं है वैसी जगह जाने और वहां के लोगों पर खुद को अमरीकी दौलत व ब्रिटिश हथियारों के बल पर थोप देने की जरूरत ही क्या थी ? फिलीस्तीनी धरती पर अपनी जबरन उपस्थिति को मजबूत बनाने के लिए आतंकवादी उपायों का भी सहारा लेना यहूदियों को कैसे सुहाया ? उनके अवतारी गुरुओं ने, यहूदी जीसस ने, जिन्होंने खुशी-खुशी कांटों का ताज पहना था, इन सबने अहिंसा का जो अचूक हथियार दिया है, यदि क्षत-विक्षत संसार के सामने यहूदियों ने उसका इस्तेमाल किया होता तो सारी दुनिया उनके मामले को अपना मामला बना लेती. यहूदियों ने संसार को जो नायाब देनें दी हैं उनमें अहिंसा की यह देन सबसे नायाब है. वे इसका इस्तेमाल करते तो यह दोहरी ईशकृपा होती. ऐसा होता तो सही अर्थों में जिसे आनंद और समृद्धि कहते हैं वह उन्हें प्राप्त होती और कराहती मानवता को चंदन का लेप मिल जाता.” 

5 मई 1947 को ‘रायटर’ के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा : “ फिलीस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं ?” जबाव में गांधी ने कहा : “यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता : ‘ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा करके तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है.’ अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है. आखिर यहूदियों को फिलीस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए ? यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए… यहूदियों को आगे बढ़कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी हो, किसी की भी सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए.”

लेकिन किसी को, किसी की विरासत तो संभालनी नहीं थी. सबको संभालनी थी गद्दी ! गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए : “ यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है.” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसके करीब 75 साल पूरे होने को हैं, लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इस्रायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं. विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी, लेकिन क्या कोई उन्हें ऐसा करने देगा ? (सप्रेस)

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