अभी पिछले हफ्ते अफगानिस्तान में लडकियों के एक स्कूल के पास हुआ बम विस्फोट, जिसमें करीब पचास लोगों की जानें गई थीं, उन अनेक गंभीर वारदातों में से एक है जो अमरीकी सैनिकों की वापसी की घोषणा के बाद लगातार हो रही हैं। आखिर अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की विदाई के क्या निहितार्थ हैं?
अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर अमरीका आज जैसा घिरा है वैसा शायद पहले कभी नहीं था। राष्ट्रपति जो बाइडन इस बिसात पर जो भी चाल चलने की सोचते हैं वहीं सीधी मात सामने दिखाई देती है। शक्ति की शतरंज पर बेबस अमरीका ! बाइडन का चुनावी नारा था – ‘लौट रहा है अमरीका !’ वे कहना चाहते थे कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अमरीका को जिस परिस्थिति में डाल रखा है, वे वहां से उसे वापस विश्व रंगमंच पर स्थापित करेंगे। यह चुनावी नारा तो अच्छा था, लेकिन इसे करना इतना मुश्किल होगा, बाइडन को संभवत: इसका इल्म नहीं था।
अफगानिस्तान आज उन्हें इस कठोर वास्तविकता से रू-ब-रू करवा रहा है। अभी-अभी उन्होंने घोषणा की है कि 11 सितंबर 2021 तक अमरीकी फौजें अफगानिस्तान से पूरी तरह निकल आएंगी। ‘आका’ बनने और बने रहने की अमरीकी विदेश-नीति का यह वह दमतोड़ बोझ है जिसकी कहानी कोई 32 साल पहले, 1989 में लिखी गई थी। सन् 1978 में अमरीकी कठपुतली दाउद खान की सरकार का तख्ता वामपंथी फौजी नूर मुहम्मद तराकी ने पलटा था और सत्ता हथिया ली थी। इसी वामपंथी सरकार की रक्षा के नाम पर रूस अफगानिस्तान में दाखिल हुआ था।
अफगानिस्तान में रूसी प्रवेश अमरीका को क्यों कर बर्दाश्त होता। उसने स्थानीय कबीलों को भड़काकर तराकी व सोवियत संघ दोनों के लिए मुसीबत खड़ी करनी शुरू की। मामला बिगड़ा और बाजी हाथ से निकलती देख तत्कालीन सोवियत संघ ने 24 दिसंबर 1979 की रात में 30 हजार फौजियों के साथ अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और हफिजुल्ला अमीन की सरकार को बर्खास्त कर बबराक कर्माल को गद्दी पर बिठा दिया। कठपुतलियां नचाने का अमरीकी खेल अब तथाकथित वामपंथियों ने खेलना शुरू किया, लेकिन जितना भी नचाओ, कठपुतलियां तो कठपुतलियां ही रहती हैं, भरतनाट्यम की उस्ताद नहीं बन जातीं।
सन् 1989 तक रूसी कठपुतलियां नचा सके, लेकिन अमरीकी धन, छल और हथियारों की शह पर खड़े हुए कट्टर खूनी कबीलों के संगठन, इस्लामी धर्मांध मुजाहिदीन लड़ाकों ने उसे असहाय करना शुरू कर दिया। अमरीका का पिछलग्गू पाकिस्तान मुजाहिदीनों की पीठ पर था। पराजय के घूंट पीकर सोवियत संघ तब अफगानिस्तान से जो विदा हुआ तो फिर उसने इधर का मुंह भी नहीं किया। अब अमरीकी वहां कठपुतलियां नचाने लगे, लेकिन हुआ यह कि इतने लंबे अनुभवों के बाद कठपुतलियों ने नाचना नहीं, नचाना भी सीख लिया था। असंगठित कबीलों और भाड़े के हत्यारों को अलकायदा और तालिबान की छतरी के नीचे जमा होता देख अमरीका ने अपनी फौजी उपस्थिति बढ़ानी शुरू की और फिर एक ऐसा युद्ध शुरू हुआ जिसमें लाशें तो थीं, गिनने वाला कोई नहीं था।
अमरीका ने अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति के औचित्य में कहा था कि हमें अफगानिस्तान को एक ऐसा स्थिर व लोकतांत्रिक देश बना देना है जो अलकायदा व तालिबान के दवाब में काम न करता हो। ऐसा कहते हुए अमरीका ने इसे अनदेखा कर दिया कि ऐसा स्वतंत्र अफगानिस्तान अमरीकी दवाब से भी मुक्ति चाहेगा ! लेकिन अमरीकी समाज इसकी अनदेखी कैसे कर सकता था कि उसके वर्दीधारी बच्चे रोज-रोज अफगानिस्तान में मारे जा रहे हैं ! अमरीकी युवाओं की लाशें, युद्ध का लगातार बढ़ता आर्थिक बोझ और दिनों-दिन गाढ़ी होती आर्थिक मंदी अमरीकी राष्ट्रपतियों को मजबूर करती जा रही थी कि वे अफगानिस्तान से वैसे ही निकल आएं जैसे सोवियत संघ निकला था। चक्रव्यूह में प्रवेश से भी कहीं जटिल होता है, उससे बाहर निकलना। यह बात जान देकर महाभारत के अभिमन्यु ने सीखी थी, जान पर बन आने पर अमरीका ने भी समझी।
बाइडन अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों की उपस्थिति के कटु आलोचक रहे हैं और वहां चल रहे युद्ध को ‘अंतहीन युद्ध’ कहते रहे हैं। जब वे राष्ट्रपति ओबामा के उपराष्ट्रपति थे तब भी हर संभव मौके पर वे अमरीकी वापसी की पैरवी करते रहे थे। यह राष्ट्रपति ओबामा की स्वीकृति व सहमति के बिना नहीं होता था। ओबामा चाहते थे कि अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी का श्रेय उन्हें मिले, लेकिन ऐसा कोई मौका वे बना नहीं सके। सबसे नायाब मौका उन्हें मिला था 2011 में, जब पाकिस्तान के एटाबाबाद शहर में घुसकर अमरीकी सैनिकों ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला था और उसकी लाश समुद्र में दफन कर अमरीका लौटे थे। तब ‘व्हाइट हाउस’ के वाररूम में बैठकर इस पूरे अभियान का जीवंत नजारा ओबामा ने देखा था।
यह वह क्षण था जब वे दुनिया से कह सकते थे कि अफगानिस्तान में अमरीकी उपस्थिति का एक अध्याय पूरा हुआ और अब हम अपनी फौज वहां से हटा रहे हैं। यह विजयी अमरीका का ऐसा निर्णय होता जिसे अमरीकी शर्तों पर अलकायदा, तालिबान, अफगानिस्तान सरकार और लोमड़ी जैसी चालाकी दिखाता पाकिस्तान भी स्वीकार करता। जीत का स्वाद और जीत का तेवर अलग ही होता है, लेकिन यह नाजुक फैसला लेने से ओबामा हिचक गये। इतिहास आखिर कब दूसरा मौका देता है कि ओबामा को देता ! हाथ मलते हुए वे विदा हुए।
अब बाइडन अफगानिस्तान के ‘अंतहीन युद्ध’ का अंत करना अपनी नैतिक जिम्मेवारी मानते हों तो स्वाभाविक ही है। अब वे फैसला करने वाली कुर्सी पर बैठे हैं तो उन्हें वह फैसला करना ही चाहिए जिसकी वे अब तक पैरवी करते रहे हैं, लेकिन राजनीति का सच यह है कि आप जो कहते हैं वह कर भी सकते हैं, यह न जरूरी है, न शक्य ! अफगानिस्तान से अमरीकी फौजों की वापसी का आज एक ही मतलब होगा – भयंकर खूनी गृहयुद्ध, इस्लामी अंधता में मतवाले तालिबान का आधिपत्य और पाकिस्तानी स्वार्थ का बोलबाला। यह अमरीकी कूटनीति की शर्मनाक विफलता, अमरीकी फौजी नेतृत्व के नकारापन की घोषणा और एशियाई मामलों से सदा के लिए हाथ धो लेने की विवशता को कबूल करना होगा। यह बहुत बड़ी कीमत होगी।
इसलिए 11 सितंबर से पहले अमरीका को अपनी पूरी ताकत लगाकर अफगानिस्तान के सभी पक्षों को एक टेबल पर लाना होगा। सामरिक विफलता को कूटनीतिक सफलता में बदलने का एकमात्र यही रास्ता है। कितना भी टेढ़ा लगता हो, लेकिन करीब तीन हजार अमरीकी व ‘नाटो संधि’ के कोई सात हजार सैनिकों की उपस्थिति में ही अफगानिस्तान में एक मिली-जुली सरकार का गठन हो यह जरूरी है। यह सरकार भले लूली-लंगड़ी भी हो, बार-बार टूटती-बिखरती भी हो, लेकिन उसका बनना एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया को जन्म देगा जिससे अफगानी समाज आज बहुत कम परिचित है। अफगानिस्तान को अफगानी लोकतंत्र का यह स्वाद चखने देना चाहिए।
तालिबान अभी जिस हालत में है उसमें ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन अफगानिस्तान के दूसरे सारे कबीलों को साथ लेने की अमरीकी कुशलता तालिबान पर भारी पड़ेगी। यहीं अमरीका को हमारी जरूरत भी पड़ेगी। हमें आगे बढ़कर अमरीकी कूटनीति में हिस्सेदारी करनी चाहिए, ताकि पाकिस्तान को खुला मैदान न मिल सके। हिस्सेदारी व पिछलग्गूपन में क्या फर्क है, यह बताने की जरूरत है। अफगानी लोगों को अफगानिस्तान के मामले में पहल करने का जितना मौका दिया जा सकेगा, अतिवादी ताकतें उतना ही पीछे हटेंगी। लोग भयभीत हों तथा चुप रहें, अतिवादी इसी की फसल काटते हैं। बाइडन यह समझें और यह भी समझें कि लोकतंत्र का संरक्षण और विकास थानेदारी से नहीं, भागीदारी से ही हो सकता है। अमरीका को अफगानिस्तान से निकलना ही चाहिए, लेकिन भागना नहीं चाहिए। (सप्रेस)
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सारगर्भित लेख है जिसमे मुझ जैसे मुद्दे पर कम समझ रखने वाले व्यक्ति की समझ और परिष्क्र्त होती है साथ ही वक्त बेवक्त गाँधी का नाम लेकर वाहवाही लेने वालों के लिए मौका है वहां गाँधीवादी हस्तक्षेप के तरीके अपनाये और एक सक्षम पडोसी के साथ भागीदारी करे वैसे इसके अवसर कम ही लगते हैं