प्रमोद भार्गव

अमेरिका के ‘अमेरिका फर्स्ट’ एजेंडे के तहत राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर टैरिफ का दबाव बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधा झटका दिया है। कृषि, डेयरी और पोल्ट्री क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोलने का यह प्रयास न केवल भारत की खाद्य संप्रभुता को चुनौती देता है, बल्कि देश के 70 करोड़ ग्रामीणों की आजीविका पर भी गहरा संकट ला सकता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 27 प्रतिशत जवाबी शुल्क बढ़ाकर भारत के प्रधानमंत्री मित्र नरेंद्र मोदी को बड़ा झटका दिया है। ट्रंप ने दूसरे कार्यकाल में मोदी ही नहीं दुनिया को जता दिया है कि उनके लिए ‘अमेरिका प्रथम’ अर्थात देशहित से अहम् और कुछ नहीं है। अब यदि कोई रियायत मिलती भी है तो ट्रंप  कृषि उत्पाद का बाजार खोलने के बाद ही कुछ छूट दे सकते हैं। ट्रंप भारत के कृषि क्षेत्र में टैरिफ कम कराना चाहते हैं। ताकि अमेरिका के लिए खेती, डेयरी और पोल्ट्री उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खुल जाए। वर्तमान में भारत अमेरिका पर 52 प्रतिशत टैरिफ लगाता है।

दरअसल भारत की 70 करोड़ से भी अधिक आबादी कृषि, दूध और मछली एवं चिकन व अन्य समुद्री उत्पादन पर आश्रित है। इन उत्पादों से जुड़े लोग आत्मनिर्भर रहते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं। भारत सरकार इनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाए रखने की दृष्टि से मुफ्त अनाज, खाद्य सब्सिडी एवं किसानों को छह हजार रुपए प्रतिवर्ष अनुदान के रूप में देती है, जबकि अमेरिका अपने किसान को 26 लाख रुपए की छूट देता है। भारत अपने कृषि बाजार में किसी का दखल नहीं चाहता,क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि है।

भारत की 70 प्रतिशत अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि और उससे जुड़े उत्पाद हैं। अब अमेरिका इस परिप्रेक्ष्य में भारत पर व्यापक दबाव बनाकर द्विपक्षीय बातचीत करने का दबाव बना रहा है। अमेरिका चाहता है कृषि उत्पादों के लिए भारतीय बाजार तो खुले ही उत्पादों पर शुल्‍क भी कम करे। यदि भारत कोई समझौता करता है तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ भी मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए दबाव बनाएंगे। यूरोपीय संघ चीज व अन्य दुग्ध उत्पादों पर शुल्क कटौती की इच्छा जता चुका है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हावर्ड लुटनिक और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि जेमीसन ग्रीर ने भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल से बातचीत में इन मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता में शामिल करने की बात कही है। किंतु भारत के लिए कृषि में बाहरी दखल एक संवेदनशील मसला है, क्योंकि हमारे किसान विदेशी पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं।  

भारत में कृषि केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का एक सांस्कृतिक तरीका भी है। इसीलिए भारत के जितने भी पर्व हैं, उनका पंचांग कृषि पद्धति पर ही आधारित है। जबकि अमेरिका व यूरोपीय देश कृषि को मुनाफे का उद्योग मानते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2024 में अमेरिका का कृषि निर्यात 176 अरब डाॅलर था, जो उसके कुल व्यापारिक निर्यात का लगभग 10 प्रतिशत हैं। बड़े पैमाने पर मशीनीकृत खेती और भारी सरकारी सब्सिडी के साथ अमेरिका और अन्य विकसित देश भारत को अपने निर्यात का विस्तार करने के लिए आकर्शक बाजार के रूप में देखते हैं। जबकि भारत अपने कृषि क्षेत्र को मध्यम से उच्च शुल्‍क की कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा संरक्षित किए हुए हैं ताकि अपने किसानों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सके। कृषि क्षेत्र को मुक्त बाजार बनाने का मतलब है कि आयात प्रतिबंधों और शुल्कों को कम करना। कृषि को बाहरी सब्सिडी वाले विदेशी आयातों के लिए खोलने का अर्थ होगा, सस्ते खाद्य उत्पादों का भारत में आना, यह खुलापन भारतीय किसानों की आय और आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी।  

 ऐसा ही दबाव भारत पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने जेनेवा में 2022 में हुई बैठक में बनाया था। यहां तक कि अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों ने भारतीय किसानों को दी जाने वाली कृषि अनुवृत्ति (सब्सिडी) का जबरदस्त विरोध किया था। ये देश चाहते हैं कि किसानों को जो सालाना छह हजार रुपए की आर्थिक मदद और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की सुविधा दी जा रही है, भारत उसे तत्काल बंद करे। यही नहीं राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देशभर के 81 करोड़ लोगों को जो मुफ्त अनाज दिया जा रहा है उस पर भी आपत्ति जताई थी। देश की करीब 67 फीसदी आबादी को मुफ्त अनाज मिलता है। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में प्रति वर्ष होता है। परंतु भारत ने अपने किसान और गरीब आबादी के हितों से समझौता करने से साफ इंकार कर दिया था। इसे डब्ल्यूटीओ के तय नियमों का खुला उल्लंघन करार दिया गया था। क्योंकि नियमानुसार अनाजों के उत्पादन मूल्य पर 10 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। जबकि भारत इससे कई गुना ज्यादा सब्सिडी देता है।

दरअसल इन देशों का मानना है कि सब्सिडी की वजह से ही भारतीय किसान चावल, गन्ना, कपास और गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम हुए हैं। इसी का परिणाम है कि भारत गेहूं व चावल के निर्यात में अग्रणी देश बन गया है। बांग्लादेश, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, फिलीपींस और नेपाल के अलावा 68 देश भारत से गेहूं आयात करते हैं। भारत दुनिया के कुल 150 देशों को चावल का निर्यात करता है। अमेरिका को भारत की यह समृद्धि फूटी आंख नहीं सुहा रही है। 

किसी भी देश की प्रतिबद्धता विदेशी हितों से कहीं ज्यादा देश के किसान, गरीब व वंचित तबकों की खाद्य उत्पादन और सुरक्षा के प्रति ही होनी चाहिए। लिहाजा नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के समय से ही किसानों के हित में खड़े दिखाई दिए हैं। अतएव 2014 में इसी जेनेवा में डब्ल्यूटीओ के हुए सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने भागीदारी करते हुए ‘समुचित व्यापार अनुबंध‘  ‘ट्रेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश,अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता है। जबकि भारत में खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है।

दरअसल सकल फसल उत्पाद मूल्य की 10 फीसदी सब्सिडी  का निर्धारण 1986-88 की अंतरराष्‍ट्रीय  कीमतों के आधार पर किया गया था। इन बीते साढ़े तीन दशक में मंहगाई ने कई गुना छलांग लगाई है। इसलिए इस सीमा का भी पुनर्निर्धारण जरूरी है। यही वह दौर रहा है, जब भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद की अवधारणा ने बहुत कम समय में ही यह प्रमाणित कर दिया कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम मुनाफा बटोरने का उपाय भर है। टीएफए की सब्सिडी संबंधी शर्त, औद्योगिक देश और उनकी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के इसी मुनाफे में और इजाफा करने की दृष्टि से लगाई गई है। जिससे लाचार आदमी के आजीविका के संसाधनों को दरकिनार कर उपभोगवादी वस्तुएं खपाई जा सकें। नवउदारवाद की ऐसी ही इकतरफा व विरोधाभासी नीतियों का नतीजा है कि अमीर और गरीब के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल देशी व विदेशी उद्योगपति पूंजी का निवेश दो ही क्षेत्रों में करते हैं, एक उपभोक्तावादी उपकरणों के निर्माण और वितरण में, दूसरे प्राकृतिक संपदा के दोहन में। यही दो क्षेत्र धन उत्सर्जन के स्त्रोत हैं। उदारवादी अर्थव्यवस्था का मूल है कि भूखी आबादी को भोजन के उपाय करने की बजाय विकासशील देश पूंजी का केंद्रीकरण एक ऐसी निश्चित आबादी पर करें,जिससे उसकी खरीद क्षमता में निरंतर इजाफा होता रहे।

अमेरिका जैसे विकसित देश भारत में किसानों को यूरिया, खाद और बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी विरोध कर रहे हैं। ये देश भारत के मछली पालन और उसके मांस के निर्यात में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी से भी परेशान हैं। मछली पालकों को आर्थिक मदद मिलने से इसके उत्पादन में इजाफा हुआ है और मछली पालक वैश्विक बाजार में मांस-निर्यात की प्रतिस्पर्धा में विकसित देशों के मुकाबले में बराबरी करने लगे हैं। यही कारण है कि अमेरिका भारतीय मछुआरों को मिलने वाली सब्सिडी को प्रतिबंधित करना चाहता है।

अमेरिका और यूरोपीय देषों की निगाह भारतीय दूध और दुग्ध उत्पादनों के व्यापार पर भी टिकी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी आइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है। अमेरिका भी अपने देश में बने दूध के सह उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। हालांकि फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है।

अमेरिका चीज ‘पनीर’ भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहारियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गौ-सेवक व गउ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। अमेरिका में गायों को मांसयुक्त चारा खिलाया जाता है, जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैंसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों,लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता ? लिहाजा अमेरिका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है।

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प्रमोद भार्गव
स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं। लेखन में किशोरावस्था से ही रुचि रही। पहली कहानी मुम्बई से प्रकाशित नवभारत टाइम्स में छपी। फिर दूसरी प्रमुख कहानी ‘धर्मयुग’ में और सिलसिला चल निकला। 1987 में ‘जनसत्ता’ में पत्रकारिता से जुड़ गए। जिला एवं प्रदेश स्तरीय पत्रकरिता करते हुए धर्मयुग में भी कई रपटें लिखीं। सम्प्रति सम्पादक, शब्दिता संवाद सेवा, संवाददाता आज तक, शिवपुरी से जुडे है। देश के हिंदी अखबारों के लिए स्‍वतंत्र लेखन करते है। सप्रेस से बहुत प्रारंभ से जुडे हुए है।