
सिर्फ तीन महीना पहले दूसरी बार अमेरिकी राष्ट्रपति बने डोनॉल्ड ट्रम्प ने जो कारनामे कर दिए हैं उनसे समूची दुनिया हलाकान है। ‘अमरीका को फिर से महान’ (‘मेक अमरीका ग्रेट अगेन’ यानि ‘मागा’) बनाने की खब्त में उन्होंने आर्थिक ताने-बाने भर को मटियामेट नहीं किया है, बल्कि शिक्षा, यु्द्ध, हथियार, पर्यावरण, स्वास्थ्य, कूटनीति, लोकतंत्र सरीखे अनेक बुनियादी मसलों की बखिया उधेड़ दी है।
साठ-पैंसठ साल पहले, जब अरब देशों में तेल की खोज और उत्पादन परवान पर था और उनकी समृद्धि से अमेरिका और यूरोप भी मालामाल हो रहा था, तब इन अरब देशों ने ‘ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कन्ट्रीज’ (ओपेक) समेत कई संगठन बनाए जिनके पीछे अकूत पैसों की ताकत के चलते कई तरह की संभावनाएं नजर आ रही थीं। इनमें एक संभावना तो उनके राजनैतिक और राजनयिक रूप से इतना मजबूत होने की भी थी कि लगता था कि अरब-इजरायल संघर्ष में इस नई उभरती ताकत के चलते सम्मानजनक फैसला हो जाएगा और इजरायल को समर्थन देने वाले अमेरिका और यूरोप ही समाधान कराने वाले होंगे, क्योंकि उनको तेल की ही नहीं अरब जगत के पैसों की भी जरूरत थी।
तब नए जुमले गढ़ने वाले अकादमिक जगत में अरब दुनिया के लिए ‘चौथी दुनिया’ पद भी प्रयोग किया जाने लगा था और इजरायल से शांति के साथ अरब जगत की उपनिवेशवादी शोषण से मुक्त नई दुनिया की तरह उभरने की भविष्यवाणी भी की जाने लगी थी। कहा गया था कि अरबों को वह सब नहीं भोगना पड़ेगा जो कई सौ साल के औपनिवेशिक शासन के चलते हमको या तीसरी दुनिया के देशों को भुगतना पड़ा है। तब समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कहा था कि यह अरब समृद्धि मृगमरीचिका ही बनेगी और अमेरिका समेत पश्चिमी देश अरबों को भोग-विलास का ऐसा गुलाम बना देंगे कि उनके पास दौलत तो रहेगी, लेकिन राष्ट्रीय या क्षेत्रीय गौरव का मान नहीं होगा। समृद्धि और सम्मान अब सिर्फ पश्चिम की चीज रह जाएंगे।
आज अमेरिकी गौरव लौटाने (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) के दावे के साथ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जो कुछ कर रहे हैं उसमें भी कहा जा सकता है कि यह ‘चौबेजी’ के ‘छब्बेजी’ बनने की आकांक्षा में ‘दुबेजी’ बनकर लौटना साबित होगा। सीमा शुल्क की दरों में अतार्किक बढ़ोत्तरी के बाद दुनिया में जो क्रिया-प्रतिक्रिया हो रही है और अमेरिका जिस तरह प्रभावित हो रहा है उससे साफ लगता है कि यह संकट जब भी खत्म होगा अमेरिका अपनी पुरानी या वर्तमान हैसियत से छोटा होकर ही लौटेगा।
एक ओर ट्रम्प सैकडों देशों के ‘गिड़गिड़ाने,’ अर्थात सीमा-शुल्क की दरों में कमी करके अमेरिका से संबंध सुधारने की पेशकश का दावा कर रहे हैं, तो दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों समेत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सीमा-शुल्क की वृद्धि को नब्बे दिनों के लिए स्थगित करने का फैसला भी करते हैं। उनके सामने डटकर खड़ा चीन इतने पर भी नहीं मान रहा है। उसने न सिर्फ अमेरिकी सामानों पर जबाबी सीमा-शुल्क बढ़ाया है, बल्कि अपने यहां से अमेरिका को होने वाले खास निर्यात को भी रोक दिया है। इससे अमेरिका के वे बहुमूल्य उत्पाद प्रभावित होंगे जो सत्तर से अस्सी फीसदी चीनी पुर्जों या सेवाओं पर निर्भर हैं।
फैसले के बाद काफी सारी चीजों पर की गई सीमा-शुल्क बढ़ोत्तरी को रोकने का फैसला अकेले चीन की जबाबी कार्रवाई के चलते नहीं किया गया है। चीन समेत कई देश विरोध वाले हैं तो वियतनाम जैसे देश पूरा समर्पण करने वाले भी हैं। अपना भी हाल लगभग वही है, पर यह विषय ही हमारी प्राथमिकता से दूर है। हमारी शासक जमात अभी वक्फ के बहाने मुसलमानों को ‘ठीक’ करने में जुटी है। बढ़ोत्तरी रोकने की असल वजह अमेरिकी वित्त-बाजार में आया भूचाल था जिसने एक दिन में ही हमारे ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) की तीन गुनी रकम भस्म कर दी थी। अगले दिन सरकारी फैसले के बाद बाजार वापस उमड़ा, लेकिन पुरानी स्थिति से काफी नीचे रहा।
अमेरिकी सरकारी बांड और वित्तीय उपकरणों को दुनिया का सबसे सुरक्षित निवेश माना जाता है। सन् 2008 के बाद एक बार फिर दुनिया अमेरिकी सरकारी वित्तीय उपकरणों पर शक करती नजर आती है। दूसरी तरफ सुरक्षित और फलदायी निवेश के लिए सोने-चांदी की खरीद भी बढ़ी है। अमेरिकी मुद्रा की गिरावट भी जारी है। पेट्रोलियम सस्ता होता जा रहा है और अमेरिकी समाज अचानक चीजें महंगी होने और अपना भविष्य देखकर चिंतित है। लोगों का सड़क पर आना जारी है।
मामला अमेरिका भर का नहीं है। अब अमेरिका वापस इस्पात, अल्युमीनियम और अन्य धातु, आटोमोबाइल-कार, इलेक्ट्रॉनिक सामान से लेकर जरूरत की हर चीज पैदा करने में फिर से पुराने दिनों जैसी स्थिति में आ जाए और अमेरिकी लोग फिर फैक्टरियों में काम ही न करें, बल्कि कंप्यूटर और साफ्टवेयर के काम में प्रवीण होकर अपना पूरा सिस्टम संभाल लें – यह कल्पना तो अच्छी है, लेकिन व्यावहारिक नहीं है। खुद अमेरिका ने अपने यहां मुख्य रूप से साफ्टवेयर, जैव-रसायन, दवा, बीज वगैरह का उत्पादन केंद्र बनाया है और रसायन से लेकर वे सारे उद्योग बाहर भेज दिए हैं जिनमें श्रम ज्यादा लगता है और प्रदूषण का खतरा है।
सन् 2021 में, जब जेलेन (जैनेट) येलेन अमेरिकी वित्तमंत्री बनी थीं तब उन्होंने ऐसे ही चुनिंदा उद्योगों की रखवाली का इंतजाम पुख्ता किया था। भूमंडलीकरण का अभियान भी इसी सोच से चला था। इससे यह भी होना ही था कि दुनिया को अपने उत्पाद और निवेश से पाटने की इच्छा के बावजूद अमेरिका और यूरोप के बाजार चीन और सस्ते, श्रम-प्रधान देशों के उत्पाद से पट गए।
आज अमेरिकी कदम से वहां का और दुनिया का नुकसान सबको समझ आता है, लेकिन चीन जैसे देशों पर उसका असर वैसा ही होगा। अगर अमेरिका और चीन, अर्थात दुनिया की दोनों प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी तो दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आये बगैर नहीं रह सकती। करों की यह दर बाजार की मांग घटाएगी, क्योंकि इससे सामान महंगे होंगे। अमेरिका की तो दिक्कत ही यह है कि अब उसके यहां ही नहीं, वैश्विक मामलों में आम तौर पर उसका साथ देने वाले यूरोप के पास भी न तो काम करने वाली आबादी है, न उसका पहले जैसा मानस ही बचा है।
चालाकी, व्यापार के अनुकूल नियमों, पूंजी-निवेश की पक्षपातपूर्ण नीतियों और फैसलों के साथ मानव आव्रजन के मामलों में भेदभाव उसके स्वभाव में शामिल हो गया है। अभी तक उसको समृद्धि और शान की आदत पड़ी है। यह चीज काफी कुछ उपनिवेशवाद और उसके बाद दुनिया में सौ साल से चल रही नीतियों का परिणाम है। अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक का मानना है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपने शासन के दौरान 45 ट्रिलियन डालर की लूट की थी। आज जितना भी कहा जाए, जुल्म किया जाए पर इस किस्म का अनर्थ तो नहीं ही चल सकता। इसलिए ट्रम्प की हरकतें अमेरिका और दुनिया को कहीं ले जा पाएंगी, यह दिखाई नहीं देता। (सप्रेस)