दिनों-दिन बढ़ते-फैलते शहर धीरे-धीरे हमारे जीवन के विपरीत और असहनीय होते जा रहे हैं। कोविड-काल में हजारों-हजार मजदूरों ने महानगरों से वापस अपने-अपने गांवों की ओर लौटकर इसकी तस्दीक भी की है। तो क्या शहरों को छोड़कर जीवन की कोई कल्पना की जा सकती है?
विगत दो शताब्दियों में औद्योगिक विकास के साथ-साथ शहरीकरण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, परिणामस्वरूप पर्यावरण की गुणवत्ता घटी है। पिछले दो-तीन वर्षों में हमने कोविड महामारी का अनुभव किया, तो सामान्य लोगों के मन में भी यह विचार आया है। दुनिया में तेज गति से फैल रहे रोगों और महामारियों के द्वारा प्रकृति हमें हमेशा संकटों से सावधान करती है। ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) की प्रमुख इंगर एंडरसन कहती हैं, “प्रकृति के निरंतर क्षरण ने हमें वन्य पशुओं के इतने समीप ला दिया है कि उन पशुओं के शरीरों पर पनपने वाले जीवाणु मनुष्य को रोगग्रस्त कर सकते हैं।”
ऐसे समय में अगर हम वर्तमान स्थिति को देखें तो हमारे मन में कुछ प्रश्न उठेंगे:
1. क्या प्रकृति से दूर शहरों का विकास हमारे लिये अच्छा है?
2. क्या हमारे वर्तमान विकास के विचार तथा योजनाएँ ठीक हैं, या हमें उन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है?
3. क्या हमें प्रकृति के नियमों के अनुरूप नहीं रहना चाहिये?
4. क्या ग्रामीणीकरण आज की आवश्यकता है?
उपरोक्त प्रश्नों पर एक भिन्न दृष्टिकोण से विचार करते हैं। अगर हम पृथ्वी को एक शरीर या जीव मानें तो? वैज्ञानिक कहते हैं कि पिछले छह सौ वर्षों में इस शरीर (पृथ्वी) का तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इसका अर्थ यह है कि इस शरीर को ज्वर है। इसका कारण क्या है? इस पृथ्वी पर चल रहे असंख्य मानव-निर्मित उद्योग! जेम्स वाट के भाप-इंजन के आविष्कार के पश्चात औद्योगिक क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ तथा लाखों कारखानों का निर्माण हुआ।
कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों (धुआँ, प्रदूषित पानी, कचरा आदि) ने प्रदूषण को बढ़ाया, जिससे पर्यावरण की हानि हुई। कारखानों के अतिरिक्त संचार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप ईंधन के उपयोग में वृद्धि हुई तथा हवा में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा में भी वृद्धि हुई। वनों की अत्यधिक कटाई के कारण कार्बन-डाइऑक्साइड का अवशोषण करने के लिये पर्याप्त वृक्ष शेष नहीं रहे। कार्बन-डाइऑक्साइड पृथ्वी के तापमान की वृद्धि का कारण है। क्या यह पृथ्वी के रोगग्रस्त होने का लक्षण नहीं है?
प्रकृति के कुछ मूलभूत नियम हैं। यदि हम प्रकृति का बारीकी से अध्ययन करें तो पाते हैं कि प्रकृति की रचना उत्तम है। प्रकृति में विभिन्न प्रक्रियाएँ प्रकृति के नियमों के अनुसार अबाधित रूप से चलती रहती हैं। विभिन्न जीव भी प्रकृति के नियमों के अनुसार जीते हैं। कोई भी परिवेश तथा उसमें दिखाई देने वाले जीव एक दूसरे के लिए उपयोगी और पूरक होते हैं। जब तक उपयुक्त वातावरण उपलब्ध नहीं होता, तब तक जीव प्रकट नहीं होता। कोई भी जीव अपनी आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करता, उपभोग तो कदापि नहीं। इसका एकमात्र अपवाद, दुर्भाग्य से, मनुष्य है। हम देख रहे हैं कि वस्तुओं के उत्पादन में अपरिमित वृद्धि के परिणामस्वरूप पर्यावरण की कितनी हानि हुई है।
कोविड-काल में हमने अनेक अनावश्यक उद्योगों को बंद कर दिया तथा केवल आवश्यक सेवाओं को जारी रखा। इसके कारण पर्यावरण की गुणवत्ता में वृद्धि हुई। हमने लॉकडाउन अवधि में कई शहरों में वायु-प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी देखी। दिल्ली में यमुना के पानी की गुणवत्ता में सुधार हुआ। ये सारी घटनाएँ हमें सिखाती हैं कि हम अनेक अनावश्यक वस्तुओं के अभाव में भी रह सकते हैं। यदि हम इन सभी अनावश्यक वस्तुओं का उपयोग सदा के लिए बंद कर दें तो?
किसी भी पर्यावरण का स्वास्थ्य और संतुलन उस पर्यावरण की जैव-विविधता पर निर्भर होता है और उस जैव-विविधता में ही प्रकट होता है। यदि कोई प्रजाति की संख्या अत्यधिक बढ़ती है तो यह अन्य जीवों के लिए हानिकारक हो सकती है और फलस्वरूप स्वयं के लिए भी। इसका आधुनिक काल में उदाहरण है, मनुष्य। वर्ष 1900 में जनसंख्या 150 करोड के आसपास थी, लेकिन गत 120 वर्षों में इसमें पांच गुना से अधिक वृद्धि हुई है।
इससे भी अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हुई है। प्रकृति को समझ नहीं आ रहा कि इन सब वस्तुओं का क्या किया जाये। सीमित संसाधनों पर अत्यधिक भार डाला जा रहा है। इसलिये प्रकृति की प्रदूषण को अवशोषित करने और निकालने की क्षमता अनेक स्थानों पर शेष नहीं बची है। प्रकृति की दृष्टि से क्या मानव का कभी न समाप्त होने वाला लोभ ही पृथ्वी के लिए विषाणु नहीं है? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस लोभ के कारण हमने जो वस्तुएँ बनाई हैं उन्होंने हमारे भौतिक जीवन को सुखी अवश्य बनाया है, किंतु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इनसे पर्यावरण को हानि भी पहुँची है।
कृषि से आय बढ़ाने की लालसा के कारण रासायनिक खाद का उपयोग तेजी से बढ़ा है। परिणामस्वरूप कृषि उत्पाद की मात्रा में वृद्धि तो हुई है, किंतु गुणवत्ता घटी है। जल, थल, वायु प्रदूषित हैं। बढ़ते शहरीकरण से शहरों की सांस घुट रही है। सीमेंट के जंगलों के कारण शहरों का तापमान गाँवों की तुलना में हमेशा अधिक रहता है। भूमि पर उपजाऊ मिट्टी की मात्रा कम हो गयी है। भूमिगत जल-निकासी के कारण कई स्थानों पर भूमि सूख गई है।
हवा, पानी, मिट्टी, पेड़ क्यों महत्वपूर्ण हैं? इन सब समस्याओं के समाधान के लिये चिंतन करने पर यह प्रतीत होता है कि अगर हम प्रकृति से दूरी के कारण हुई हानि की भरपाई करना चाहते हैं तो हमें एक बार फिर से प्रकृति की ओर लौटना चाहिये और अपने तथा प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने में योगदान देना चाहिये।
क्या होगा, अगर हम बढ़ते शहरों तथा घटते गाँवों का समन्वय कर सकें? शहर कुछ सहजता से सांस ले सकेंगे तथा गाँवों को भी नयी संजीवनी मिल जायेगी। गाँव समृद्ध तथा सम्पन्न होंगे। इससे ग्रामीण लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा। शारीरिक सुख, शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी के विभिन्न विकल्प उपलब्ध होंगे। प्रकृति से दूर जा चुके हम, पुनः प्रकृति की ओर लौटें तो अपने और प्रकृति के बीच सामंजस्य को पुनः बिठा कर सकते हैं। कोरोना का दुष्प्रभाव शहरों में अधिक तथा गाँवों में कम था। शहरीकरण के अवांछित प्रभावों से मुक्त करने के लिए ग्रामीणीकरण सबसे अच्छा समाधान हो सकता है।
कोविड-काल में जो काम घर बैठे होते थे, उनमें से अधिकतर काम अब भी घर से ही हो रहे हैं। कोरोना ने हमें घर में बिठाकर सोचने पर विवश कर दिया है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि शहरी लोगों के लिये ऐसी विवशता आवश्यक थी, क्योंकि शहरी जीवन की घातक गतिशीलता के कारण उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संकट में पड़ गया था। कोरोना ने शहर के लोगों को मूलभूत आवश्यकता तथा अनावश्यक विलासिता के प्रति स्पष्ट रूप से जागरूक किया है।
जो लोग शहर का गतिशील जीवन नहीं चाहते वे गाँव अवश्य जा सकते हैं। दूरभाष, इंटरनेट, संचार की सहज उपलब्ध सुविधाओं के कारण सम्पूर्ण जगत छोटा हो गया है। छोटे गाँव में रहना अब पाषाण युग में रहने जैसा नहीं है। दरिद्र गाँवों के लिये अपनी उच्च शिक्षा तथा अनुभव का योगदान देकर हम भी अल्प व्यय में शांति, आराम तथा प्रकृति के साथ समरस होकर रह सकते हैं।
ग्रामीणीकरण करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम गाँवों में नये शहर नहीं बसायें, किन्तु वहां के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करें। अगर हम गाँव के जीवन पर दृष्टि डालें तो यह देखा जा सकता है कि गाँव में कचरा प्रबंधन और निपटान अच्छी तरह से किया जाता है। वही वस्तुएँ गाँव में ले जायें जिन्हें प्राकृतिक रूप से प्रबंधित किया जा सके।
वर्तमान समय में भू-ग्राम को हम एक आदर्श गाँव कहेंगे जो आधुनिक सुविधाओं का त्याग किये बिना प्रकृति के नियमों का पालन करेगा। पूरे विश्व में ऐसे भू-ग्राम स्थापित करने की आवश्यकता है। भू-ग्राम की स्थूल परिभाषा है, प्रकृति से जुड़ा एक जनसमूह, जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखता है। यह जन-समूह प्रकृति पर बोझ कम करने का प्रयत्न करता है – भू-ग्राम की भौतिक संरचना तथा निवासियों की जीवनशैली के माध्यम से भी। (सप्रेस)
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