कोरोना महामारी के दौरान सर्वाधिक याद किया जाने वाला तत्व ऑक्सीजन या प्राणवायु रहा है जो हमारे आसपास के पेड-पौधों की मेहरबानी से वायुमंडल में इफरात में मौजूद है, लेकिन उसके साथ हम क्या करते हैं? ‘केजी-1’ में पढने वाले बच्चे तक जानते हैं कि पेड हमारी ऑक्सीजन की आपूर्ति के कारखाने हैं, लेकिन हम किसी आसमानी-सुल्तानी विकास की चकाचौंध में आकर उन्हें बेरहमी से लगातार खत्म करने में लगे हैं। तो क्या कृत्रिम तरीकों से बनाई जाने वाली ऑक्सीजन प्राकृतिक रूप से फोकट में मिलने वाली प्राणवायु पर भारी पड रही है?
कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की खपत और उसकी भारी कमी ने पहली बार उसकी तरफ आम लोगों का ध्यान खींचा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि अधिकतम ऑक्सीजन देने वाले पेड़ धरती पर लगाए गए होते तो कृत्रिम ऑक्सीजन की जरूरत ही नहीं पड़ती? समय के साथ आधुनिक होती दुनिया ने पेड़ों की बेरहमी से कटाई की है और हम जीवन देने वाली प्राणवायु का भयावह संकट झेल रहे हैं। जानकारों का मानना है कि अगर दुनिया में पेड़ न हों तो ऑक्सीजन बनाने के कितने भी संयंत्र लगा लीजिए, आपूर्ति नहीं होगी?
फिलहाल कृत्रिम ऑक्सीजन तैयार करने के जितने भी उपाय जताए जा रहे है, वे आग लगने पर कुआं खोदने जैसे हैं। हालांकि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। रोजाना आठ हजार टन ऑक्सीजन की जरूरत है, जिसका उत्पादन हो रहा है, लेकिन यह जो आपदा आई थी, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। नतीजतन ऑक्सीजन की आवाजाही के लिए जितने टैंकरों की जरूरत थी, उसके दस फीसदी भी उपलब्ध नहीं थे। इसी कारण कई जगह ऑक्सीजन समय पर नहीं पहुंच पाई और कोरोना संक्रमित काल के गाल में समा गए।
ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जहां वायु होने के कारण जीवन संभव है। वायु में नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 21 प्रतिशत होती है। इसके अलावा ऑक्सीजन 0.03 प्रतिशत और अन्य गैसें 0.97 प्रतिशत होती हैं। वैज्ञानिकों के आकलन के अनुसार पृथ्वी के वायुमंडल में करीब 6 लाख अरब टन हवा है। हवा, पृथ्वी, जल, अग्नि और आकाश जैसे जीवनदायी तत्वों में से एक है। कोई भी प्राणी भोजन और पानी के बिना तो कुछ समय जीवित रह सकता है, लेकिन हवा के बिना कुछ मिनट ही बमुश्किल जीवित रह पाता है।
मनुष्य दिन भर में जो भी खाता-पीता है, उसमें 75 फीसदी भाग हवा का होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य एक दिन में 22,000 बार सांस लेता है। इस तरह से वह प्रतिदिन 15 से 18 किलोग्राम यानी 35 गैलेन हवा ग्रहण करता है। हवा दूषित हो तो मानव शरीर पर उसके दुष्प्रभाव पड़ना तय हैं और हवा मिले ही नहीं तो प्राण निकलना तय मानिए। वायु में उसके जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन हो, जिसके द्वारा स्वयं मनुष्य या अन्य जीवों को सांस लेने में दिक्कत आने लगे तो जान लीजिए हवा प्रदूषित है अथवा हवा की कमी है।
वन-सरंक्षण को लेकर चलाए गए तमाम उपायों के बावजूद भारत में इसका असर दिखाई नहीं दे रहा है। पिछले 25 वर्षों में भारत में वन तेज रफ्तार से कम हुए हैं। ‘वैश्विक वन संशोधन आकलन-2015’ रिपोर्ट के मुताबिक 1990 से 2015 तक दुनिया में जंगल का दायरा 3 फीसदी तक सिमट गया है। जब से मानव सभ्यता के विकास का क्रम शुरू हुआ है,तब से लेकर अब तक वृक्षों की संख्या में 46 प्रतिशत की कमी आई है। इस समय विश्व में तीन लाख करोड़ वृक्ष हैं। यानी मोटे तौर पर प्रति व्यक्ति 422 पेड़ हैं। हालांकि यह आंकड़ा पूर्व में आंकलित अनुमानों से साढ़े सात गुना ज्यादा बताया जा रहा है।
दरअसल पूर्व के वैश्विक आंकलनों ने तय किया था कि दुनिया भर में महज 400 अरब पेड़ लहरा रहे हैं। मसलन प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 61 है। पेड़ों की यह गिनती उपग्रह द्वारा ली गई छवियों के माध्यम से की गई है। इस गणना को तकनीक की भाषा में ‘सेटेलाइट इमेजरी’ कहते हैं। इस अध्ययन की विस्तृत रिपोर्ट प्रतिष्ठित जनरल ‘नेचर’ में छपी है। रिपोर्ट के मुताबिक पेड़ों की उच्च सघनता रूस, स्कैंडीनेविया और उत्तरी अमेरिका के आर्कटिक क्षेत्रों में पाई गई है। इन घने वनों में दुनिया के 24 फीसदी पेड़ हैं। पृथ्वी पर विद्यमान 43 प्रतिशत, यानी करीब 1.4 लाख करोड़ पेड़ उष्ण कटिबंधीय वनों में हैं। इन वनों का चिंताजनक पहलू यह भी है कि वनों की घटती दर भी इन्हीं जंगलों में सबसे ज्यादा है।
पेड़ मनुष्य जीवन के लिए कितने उपयोगी हैं, इसका वैज्ञानिक आकलन ‘भारतीय वन अनुसंधान परिषद्’ ने किया है। इस आकलन के अनुसार, उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पर्यावरण के लिहाज से एक हेक्टेयर क्षेत्र के वन से 1.41 लाख रुपए का लाभ होता है। इसके साथ ही 50 साल में एक वृक्ष 15.70 लाख की लागत का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ देता है। पेड़ लगभग 3 लाख रुपए मूल्य की भूमि की नमी बनाए रखता है। 2.5 लाख रूपए मूल्य की ऑक्सीजन, 2 लाख रुपए मूल्य के बराबर प्रोटीनों का सरंक्षण करता है। वृक्ष की अन्य उपयोगिताओं में 5 लाख रुपए मूल्य के वायु व जल-प्रदूषण नियंत्रण और 2.5 लाख रुपए मूल्य का भागीदारी पक्षियों, जीव-जंतुओं व कीट-पतंगों को आश्रय-स्थल उपलब्ध कराने के रूप में करता है।
पेड़ों के महत्व का तुलनात्मक आकलन अब शीतलता पहुंचाने वाले विद्युत उपकरणों के साथ भी किया जा रहा है। एक स्वस्थ्य वृक्ष जो ठंडक देता है, वह 10 कमरों में लगे वातानुकूलितों के लगातार 20 घंटे चलने के बराबर होती है। घरों के आसपास पेड़ लगे हों तो वातानुकूलन की जरूरत 30 प्रतिशत घट जाती है। इससे 20 से 30 प्रतिशत तक बिजली की बचत होती है। एक एकड़ क्षेत्र में लगे वन छह टन कॉर्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं। इसके उलट वे चार टन ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं जो 18 व्यक्तियों की वार्षिक जरूरत के बराबर होती है। देश में फैल रही जहरीली हवा और ऑक्सीजन की कोरोना काल में कमी की पृष्ठभूमि इस बात की तस्दीक है कि बोतलबंद हवा का जो कारोबार भारत में शुरू होने जा रहा है, इसका विस्तार दिन-दूना, रात-चौगुना फैलने की उम्मीद है। इससे शंका यह उभरती है कि हवा का कारोबार कहीं प्रदूषण से मुक्ति के स्थायी सामाधान के उपायों पर भारी न पड़ जाए?
‘वाइटैलिटी एयर बैंक एंड लेक’ कंपनी ने 2014 में प्रयोग के तौर पर हवा से भरी थैलियां बेचने की शुरूआत की थी। उस वक्त किसी को अंदाजा नहीं था कि यह पहल भविष्य में वाणिज्यिक दृष्टि से कितनी महत्वपूर्ण होने जा रही है। कंपनी के संस्थापक मोसेज लेम का कहना है कि उनके द्वारा बाजार में लाई गई थैलियों की पहली खेप तुरंत बिक गई। इससे उनके हौसले को बल मिला और फिर इस कारोबार को फुलटाइम व्यवसाय में बदल दिया। कंपनी ने हाल ही में चीन में बोतलबंद हवा का व्यापार शुरू किया है। यहां कारोबार के उद्घाटन वाले दिन ही 500 बोतलें हाथों-हाथ बिक गईं और अब अमेरिका व मध्य-पूर्व के देशों के बाद चीन बोतलबंद हवा का सबसे बड़ा खरीददार देश बन गया है।
भारत में खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी इस जहरीली हवा और अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के चलते कंपनी भारत में कारोबार करने जा रही है। मोसेज लेम का कहना है कि 2015 की गर्मियों में कनाडा के कलागेरी नामक स्थान पर जंगल में आग लग गई थी, तब पूरे क्षेत्र में धुआं फैल गया था। लोगों को सांस लेना मुश्किल हो रहा था। तब उन्हें बोतलबंद हवा बाजार में उतारने का आइडिया मिला। भारत में ऐसी ही कठिन स्थिति कोरोना के प्रकोप ने बना दी है। कृत्रिम हवा की यह उपलब्धता आशंका भी उत्पन्न करती है कि कहीं भारत में प्राणवायु की कमी हवा के स्थायी बाजार के रूप में न बदल जाए। बोतलबंद पानी आने के बाद जलस्त्रोतों का भी यही हश्र हुआ था।
हमारी ज्ञान परंपराओं में आज भी ज्ञान की यही महिमा अक्षुण्ण है, लेकिन यंत्रों के बढ़ते उपयोग से जुड़ जाने के कारण हम प्रकृति से निरंतर दूरी बनाते जा रहे हैं। तय है, वैश्विक रिपोर्ट में पेड़ों के नष्ट होते जाने की जो भयावहता सामने आई है, यदि वह जारी रहती है तो पेड़ तो नष्ट होंगे ही, मनुष्य भी नष्ट होने से नहीं बचेगा? गोया, ऐसे जैविक हमलों (बायोलॉजिकल वार) से मानव आबादियों को बचाए रखना है, तो ऑक्सीजन निर्माण के कृत्रिम उपायों से कहीं ज्यादा बेहतर होगा कि स्थाई रूप से प्राणवायु देने वाले पेड़ घर-घर और गली-गली लगाए जाएं। (सप्रेस)
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