बक्सवाहा (Baxwaha) में हीरा खनन की सरकारी कोशिशों और नागरिकों के विरोध पर तदर्थ कमेटी की रिपोर्ट
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में बक्सवाहा का नाम इन दिनों सरकार, कारपोरेट, सामाजिक संगठन और पर्यावरण प्रेमियों की जुबान पर है। वजह है यहां 2.15 लाख पेड़ों की कटाई, जो धरती के गर्भ से हीरे निकालने के लिए की जानी है। इस मसले पर कार्यरत संगठनों की एक टीम ने पिछले दिनों बक्सवाहा का दौरा किया। इस टीम में आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के पूर्व अध्यक्ष राहुल भायजी, सामाजिक कार्यकर्ता और रंगकर्मी अब्दुल हक, समाजवादी पार्टी के पूर्व प्रदेश प्रवक्ता यश भारतीय के साथ संविधान लाइव टीम के सदस्य और पत्रकार सचिन श्रीवास्तव भी शामिल थे। प्रस्तुत है इस रिपोर्ट का सार संक्षेप
मध्यप्रदेश और देश में बक्सवाहा के जंगलों का मामला सुर्खियों में है। मई के पहले सप्ताह से यह मामला सोशल मीडिया के जरिये देश के सोचने-समझने वाले समुदाय के बीच खासी चर्चाएं हासिल कर चुका है। इन चर्चाओं के केंद्र में बक्सवाहा की हीरा खनन परियोजना है। इसके चलते इलाके के 2.15 लाख से ज्यादा पेड़ों को काटा जाना है, जबकि इसके बदले में सरकार और खनन कंपनी को 50 हजार करोड़ रूपये के हीरे मिलने का दावा किया जा रहा है। अनुमान है कि बक्सवाहा के जंगल में मौजूद बंदर ब्लॉक में लगभग 3.42 करोड़ कैरेट के हीरे जमीन में दबे हो सकते हैं। निजी कंपनी इन हीरों के खनन के लिए इलाके की लगभग 382 हेक्टेयर जमीन मांग रही है। इसमें से करीब 65 हैक्टेयर जमीन पर खनन होगा, जबकि अन्य जमीन डंपिंग, आवास और अन्य कार्यों में इस्तेमाल की जाएगी।
तदर्थ कमेटी का गठन
इस मुद्दे पर जन संगठन, युवा समूह और पर्यावरण प्रेमी सक्रिय हैं। बीती 16 जून को मध्य प्रदेश के जन संगठनों, समूहों और संस्थाओं की एक आनलाइन बैठक आयोजित की गई। बैठक में तदर्थ कमेटी का गठन किया गया, जिसके कामों में बक्सवाहा के मसले पर कार्यरत साथियों से समन्वय कर संयोजन समिति का गठन और बक्सवाहा के जमीनी हालात को देखकर आगे की रणनीति बनाने की कोशिशों को मूर्तरूप देना प्रमुख रूप से शामिल है। तदर्थ कमेटी की ओर से बक्सवाहा जाने के लिए इच्छुक साथियों से अपील की गई। 24 और 25 जून को तदर्थ कमेटी के साथी राहुल भायजी, अब्दुल हक, यश भारतीय और सचिन श्रीवास्तव ने बक्सवाहा का दौरा किया।
बक्सवाहा का जंगल
मध्य प्रदेश का छतरपुर जिला जहां बक्सवाहा का जंगल और उसके संकटग्रस्त 2.15 लाख पेड़ हैं, वह उस बुंदेलखंड का हिस्सा है, जो सूखे के लिए पूरे देश में चर्चित रहा है। छतरपुर जिले का बक्सवाहा क्षेत्र का हरा-भरा जंगल इस इलाके की पहचान है, बुंदेलखंड की तपती धरती पर बादलों को खींचकर लाने वाला यह इलाका सिर्फ जंगल नहीं है बल्कि यहां के जीवन की धुरी है। यहां करीब 50 तरह के पेड़ हैं, जिनमें सागौन के अलावा पीपल, तेंदू, जामुन, महुआ बहेड़ा, अर्जुन सहित अनेक प्रजातियों के पेड़ शामिल हैं। साथ ही कई तरह के वन्य प्राणी और पक्षी का ठिकाना भी है। प्रभावित क्षेत्र के 17 गांवों के 8000 से ज्यादा परिवारों की आजीविका यहां के पेड़ों, उनके उत्पादों और वनस्पति से चलती है। यह ऐसा जंगल है जिससे आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन और परंपराएं जुड़ी हैं। हाल ही में यहां हजारों वर्ष पुराने शैल चित्र भी मिले हैं, जिनकी कार्बन डेटिंग अभी तक नहीं हुई है। कुल मिलाकर इस जंगल के नष्ट होने से ईको सिस्टम छिन्न भिन्न हो जाएगा।
जन सुविधाओं की बात करें तो बक्सवाहा में लगभग 3 करोड़ की लागत से बना एक अस्पताल है, लेकिन यहां डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टाफ की कमी देश के अन्य इलाकों की ही तरह है। ग्रामीण इलाकों में बच्चों की पढ़ाई के लिए पर्याप्त और आवश्यक स्कूल नहीं हैं। पीने के पानी की किल्लत हमेशा से इस तरह से बनी हुई है कि अब इलाके के लोग इसके अभ्यस्त हो चुके हैं और पानी की कमी उन्हें सामान्य लगने लगी है। सागर छतरपुर मुख्य सड़क को छोड़ दिया जाए तो क्षेत्र की ज्यादातर सड़कें उबड़खाबड़ हैं और निमानी से बक्सवाहा जाने की मुख्य सड़क तो जैसे है ही नहीं। हालांकि टीम ने जब दौरा किया तो कुछ जगहों पर गिट्टी पड़ने लगी है और धीमी रफ्तार से ही सही सड़क निर्माण का काम जारी है। निमानी-बक्सवाहा सड़क के आसपास के गांवों के लिए पहुंच मार्ग कच्चे हैं और इस तरह करीब 12 गांवों में पक्की सड़क है ही नहीं।
प्रभावित क्षेत्र में रोजगार के नाम पर छोटी किराना दुकानें और बड़े किसानों के खेतों में कुछ काम है। ज्यादातर खेती बारिश पर निर्भर है। स्थानीय किसान सूखे के मौसम में बमुश्किल खेती कर पाते हैं। देहातों को जोड़ने वाले आवागमन के साधन नगण्य हैं। निमानी से बक्सवाहा जाने के लिए दिन में एक बस चलती है, जो कभी कभी बंद भी हो जाती है, तब स्थानीय लोग पैदल या साइकिल से बक्सवाहा कस्बे तक की यात्रा करते हैं। लोगों का कहना है कि आज भी रात का वक्त भयावह लगता है। कभी यहां राहजनी और डकैती आम बात थी, अब भी रात में निकलना किसी नए खतरे की जद में जाने जैसा ही है।
विभिन्न पक्ष और संबंधितों के हित का विवरण
बक्सवाहा के मसले में मुख्य तौर पर पांच प्रमुख पक्ष हैं।
पहला पक्ष सरकार और कारपोरेट का है, जिनकी दिलचस्पी जंगल के नीचे दबे पड़े हीरों में है। इन हीरों को पाने के लिए जो भी जरूरी-गैरजरूरी काम किए जाने हैं, उससे न तो सरकार को कोई परेशानी है, और न ही कारपोरेट कंपनी को किसी तरह का संकोच है। सरकार और कारपोरेट कंपनी इस मकसद को हासिल करने के प्रति आश्वस्त है। इसके लिए वह अपनी कोशिशें शुरू भी कर चुके हैं। जाहिर है मामले में सबसे मजबूत और ताकतवर पक्ष यही है।
दूसरा पक्ष उन लोगों का है, जिन्हें इलाके में पहले खनन कर चुकी कंपनी रियो टिंटों से फायदा हुआ था। उन्हें नौकरी मिली थी और जब कंपनी ने अपना काम बंद किया तो करीब 400 लोगों को चार-चार लाख रूपये का अतिरिक्त भुगतान भी हुआ था। इन्हें उम्मीद है कि नये खनन प्रोजेक्ट से उन्हें फिर फायदा होगा और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी।
तीसरा पक्ष खनन का विरोध कर रहे पर्यावरण प्रेमियों, युवाओं और सामाजिक संगठनों का है, जो देश और दुनिया के बिगड़ते हालात से चिंतिंत हैं और चाहते हैं कि किसी भी कीमत पर बक्सवाहा के जंगलों को नहीं कटने देना चाहिए। यह समूह बक्सवाहा कस्बे से लेकर छतरपुर जिले और मध्य प्रदेश के विभिन्न शहरों, कस्बों में मौजूद हैं। इन्हें उम्मीद है कि जंगलों को बचाने के लिए एक तीखा आंदोलन शुरू होगा तो आने वाले दिनों में देश और विश्व भर के पर्यावरण प्रेमी इस लड़ाई में एकजुट होंगे।
चौथा पक्ष ऐसे लोगों का है, जो पेड़ों और पर्यावरण को बचाने की बात करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी उन्हें जरूरी लगता है कि स्थानीय निवासियों के पास रोजगार का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए इनका मानना है कि प्रोजेक्ट के माध्यम से अगर कुछ लोगों को रोजगार मिल जाता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है।
पांचवां और सबसे जरूरी पक्ष उन ग्रामीणों का है, जो दशकों से मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं। भूखे पेट सोने को मजबूर, अपनी इच्छाओं, सपनों पर अंकुश लगाए हुए यह आबादी रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का इंतजार कर रही है। साथ ही सामंती अत्याचार में पिस रही है। हीरा खनन में रोजगार की उम्मीद उन्हें वह औजार लगता है जिससे एक बेहतर भविष्य और बच्चों का मुस्तकबिल सुरक्षित किया जा सकता है।
सोशल मीडिया अभियान और आंदोलन पर तदर्थ कमेटी के निष्कर्ष
- सोशल मीडिया कैंपेन के कारण मामला चर्चित तो हो गया है, लेकिन स्थानीय सहयोग के बिना अंतिम जीत हासिल करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर मामला चर्चित होने के बाद जंगलों में कुछ लोग आए और उन्होंने ग्रामीणों का पक्ष जानने की कोशिश नहीं की, इससे ग्रामीणों में बाहरी लोगों के प्रति वितृष्णा है।
सरकारी स्तर पर बंदर ब्लाॅक परियोजना के लिए तैयारी शुरू हो गई है। इसके लिए स्थानीय लोगों के बीच प्रशासन की ओर से शुरू दिया गया है, क्योंकि आखिरकार स्थानीय ग्रामीणों का पक्ष ही नैतिक रूप से सर्वाधिक प्रभावी होगा। - राज्य शासन ने स्थानीय जरूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया। साथ ही वन विभाग में फैले भ्रष्टाचार के कारण पहले ही लगातार पेड़ काटे जा रहे हैं, इससे ग्रामीणों को लगता है कि जब अवैध रूप से जंगल पहले ही कट रहा है, तो क्यों न जंगल की वैध कटाई हो, और बदले में उन्हें जैसा है, जो है, वह रोजगार मिले।
- राज्य सरकार सौदे से सिर्फ 17 गांव ही प्रभावित नहीं होंगे, बल्कि 30 गांव से ज्यादा गांव इन जंगलों पर सीधे तौर पर आश्रित हैं। इन लोगों की आजीविका तेंदू पत्ता, महुआ आदि वनोपज पर निर्भर है। वे जंगल को बचाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें परियोजना में रोजगार की संभावना भी दिख रही है। परियोजना से हजारों परिवारों का जीवन प्रभावित होने वाला है और वे सरकारी दावों और वायदों की हकीकत से वाकिफ भी हैं, लेकिन फिलहाल ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं है।
- ग्रामीणों के बीच परियोजना का पक्ष लेने वाला तबका ज्यादा मुखर है और परियोजना के फायदों को गिना रहा है। यह तबका रियो टिंटो के प्रोजेक्ट से लाभ ले चुका है या फिर उसके आसपास के लोगों को पिछले प्रोजेक्ट में काम मिला था। इससे उन्हें लगता है कि इस बार उन्हें भी कोई नौकरी मिल जाएगी और आर्थिक मुश्किल से राहत मिल जाएगी।
क्षेत्र में ज्यादातर ग्रामीण अशिक्षित हैं और इसलिए परियोजना में केवल मजदूरी या चतुर्थ श्रेणी का काम ही ग्रामीणों को मिलेगा। प्रोजेक्ट के लाभ का स्थानीय स्तर पर प्रभाव देखें तो उन ग्रामीणों को थोड़ा बहुत फायदा पहुंचने की उम्मीद है, जिनका क्षेत्र में प्रभाव है और जो कंपनी के लिए माहौल बनाए रखेंगे। ऐसे लोगों ने प्रोजेक्ट के समर्थन में माहौल बनाना शुरू भी कर दिया है। - ग्रामीणों को रोजगार की सख्त आवश्यकता है। साथ ही सिंचाई, उचित स्वास्थ्य व्यवस्था, सुचारू आवागमन के लिए सड़कें और पहुंच के अंदर स्कूलों के लिए ग्रामीण बाट जोह रहे हैं। ग्रामीणों को पेड़ों-जंगलों से लगाव है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उन्हें रोजगार और सम्मानपूर्ण जीवन की जरूरत है, जिसकी उम्मीद उन्हें नए प्रोजेक्ट से लगती है। ग्रामीणों को लगता है जंगल कट जाएंगे तो खेत बन जाएंगे और वो उस पर खेती कर पाएंगे।
ग्रामीणों को लगता है कि पर्यावरण बचाने के नाम पर जो लोग बक्सवाहा में परियोजना का विरोध कर रहे हैं, उनके अपने राजनीतिक हित हैं और अन्य शहरों में बैठकर उनकी बदहाली को कायम रखते हुए खुद वाहवाही लूटना चाहते हैं। - ग्रामीणों में सरकार के प्रति खासा गुस्सा है। सरकारी स्तर पर रोजगार या रोजगार संबंधी योजनाओं के भ्रष्टाचार के कारण उन्हें लाभ नहीं मिला है। इसलिए ग्रामीणों को लगता है कि कंपनी के आने से ही उन्हें रोजगार मिल सकेगा। इसके अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है।
तदर्थ कमेटी की अनुशंसाएं
- जंगल बचाने के लिए एक समग्र रणनीति बनाकर ग्रामीणों के बीच जाकर काम करना एकमात्र विकल्प है। इस आंदोलन का केंद्र स्थानीय युवा और ग्रामीण ही बन सकते हैं। साथ ही संयोजन समिति या अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वाले लोगों में महिला व वंचित समुदायों की समान भागीदारी सुनिश्चित करना जरूरी है। अन्यथा किसी भी मुहिम का सिरे पर पहुंचना खासा मुश्किल है।
- जंगल के अधिकार को बचाने के लिए स्थानीय नागरिकों की उम्मीदों, उनकी जरूरतों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। अगर ग्रामीण इस लड़ाई में पूरे वेग से साथ आएंगे, तभी किसी तरह की सफलता की उम्मीद की जा सकती है।
जंगल को बचाने की लड़ाई तीन स्तरों पर लड़ी जानी है। इसके लिए पहला काम ग्रामीणों के बीच जाना और उन्हें परियोजना से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान से आगाह करना है। साथ ही ग्रामीणों के रोजगार के विकल्प को तलाशना एक बड़ी जरूरत है। ग्रामीणों को अगर सरकारी योजनाओं के लाभ मिलें और बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा की उनकी बरसों की मांग को पूरा किया जाए तो वे किसी भी कीमत पर जंगलों को कटने न देने के लिए संकल्पबद्ध हो सकते हैं। इसके लिए कोशिशें की जानी चाहिए। - दूसरा, देश के स्तर पर इस पूरी लड़ाई से जन संगठनों, पर्यावरण समूहों, संस्थाओं, बुद्धिजीवियों को जोड़ा जाना जरूरी है। इसके लिए स्थानीय निवासियों, सक्रिय युवा समूहों के नेतृत्व में एक संयोजन समिति बनाई जानी चाहिए। यह संयोजन समिति ही आगे के काम को जमीनी तौर पर अंजाम दे सकती है। इसका केंद्र बक्सवाहा के जंगल और बक्सवाहा ब्लाॅक मुख्यालय हो सकता है।
- तीसरे स्तर पर इस लड़ाई को कानूनी और संवैधानिक स्तर पर लड़ा जाना जरूरी है। इसके लिए वन अधिकार कानून के प्रावधानों को ग्रामीणों तक पहुंचाना। विभिन्न फोरम और कोर्ट आदि में जंगल को बचाने के लिए अपील करना शामिल है। साथ ही राष्ट्रपति के पास प्रतिनिधि मंडल जाए और सांसदों से मदद के लिए अपील की जाए। इसमें वन के साथ जंगल, जानवरों और पर्यावरण के मामले में संवेदनशील सांसदों से संपर्क करना जरूरी है।
अभी तक इस पूरे मामले में महिलाओं की राय बहुत मुखरता से नहीं आई है। अगर आगे जंगल को बचाने की किसी भी लड़ाई को किसी भी मंच पर ले जाना है तो महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। नेतृत्वकारी भूमिका में महिलाओं की भागीदारी के बिना जंगल बचाने की किसी भी मुहिम की सफलता संदिग्ध है।