‘वेटलेंड’ यानि आर्द्रभूमि के नाम से पहचाने जाने वाले अपने आसपास के ताल-तलैया, विशाल जलाशय और तटीय इलाके हजारों हजार जैविक इकाइयों का ठिकाना भर नहीं होते, बल्कि उनके भरोसे आज के सबसे बड़े जलवायु परिवर्तन के संकट से भी निपटा जा सकता है। क्या हैं, इन नमी वाले इलाकों की खासियतें?
जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए आर्द्रभूमि (वेटलैंड) हमारा सबसे प्रभावी पारिस्थितिकी तंत्र है। ये कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर तापमान कम करने और प्रदूषण घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ईरान के शहर रामसर के केस्पियन सागर तट पर दो फरवरी 1971 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय आर्द्रभूमि कन्वेंशन’ का आयोजन हुआ था जिसमें ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने दो फरवरी को ‘आर्द्रभूमि दिवस’ घोषित किया था। इस दिवस का आयोजन ग्लोबल वार्मिंग का सामना करने में हमारी धरती के लिए आर्द्रभूमि की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में वैश्विक जागरूकता बढ़ाने के लिए किया जाता है।
वर्ष 2023 में ‘आर्द्रभूमि दिवस’ की थीम ‘जलाशयों को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित करना थी।’ 2024 की थीम ‘आर्द्रभूमि और मानव कल्याण’ है। दलदली भूमि में कार्बन अवशोषित करने की क्षमता जंगलों की कार्बन भंडारण क्षमता से दोगुनी होती है। मैंग्रोव (मीठे और खारे पानी के मिश्रण के पास के घने वृक्ष) जैसी तटीय आर्द्रभूमि उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों की तुलना में 55 गुणा अधिक तेजी से कार्बन सोखती है। पीटलैंड (जैव-इंधन के प्राकृतिक स्रोत) जो पृथ्वी की भूमि की सतह का 3 फीसदी हिस्सा कवर करता है, सभी भूमि आधारित कार्बन का 30 प्रतिशत संग्रहित करता है।
वर्ष1970 से लेकर अब तक दुनिया की 35 प्रतिशत आर्द्रभूमि विलुप्त हो चुकी है। ‘वेटलैंड इंटरनेशनल’ के अनुसार भारत की करीब 30 प्रतिशत आर्द्रभूमि पिछले तीन दशकों में विलुप्त हो चुकी है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि मंडला की आदिवासी गोंड रानी दुर्गावती द्वारा जबलपुर शहर में 52 तालाबों का निर्माण कराया गया था, परन्तु अवैध निर्माण और शहरीकरण के कारण अब गिनती के ही, आधे-अधूरे तालाब बचे हैं।
आर्द्रभूमि की हानि का कुचक्र, आजीविका संकट और गहराती गरीबी, ये सब आर्द्रभूमि को बेकार भूमि समझने का परिणाम है, जबकि ये रोजगार, आय और आवश्यक पारिस्थितिकी सेवाओं के जीवन प्रदायी स्रोत हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानव कल्याण में योगदान देती हैं। जो आर्द्रभूमि विश्वभर में जैव-विविधता और मानव के लिहाज से महत्वपूर्ण मानी जाती है, उन्हें ‘रामसर स्थल’ कहा जाता है।
किसी भी आर्द्रभूमि को ‘रामसर साईट’ का दर्जा देने के लिए कुछ मानक तय किए गए हैं जिसमें मुख्य आर्द्रभूमि का दुर्लभ व प्राकृतिक होना और संकटग्रस्त प्रजातियों के जीवन चक्र को प्रतिकूल परिस्थितियों में आश्रय प्रदान करना शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि की सूची में मई 2018 में 2331 ‘रामसर स्थल’ शामिल हैं जो 2.1 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक स्थान कवर करता है। वर्ष1974 में विश्व के सबसे पहले ‘रामसर साईट’ में आस्ट्रेलिया के कोबोर्ग पेनिनसुला को शामिल किया गया।
13 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रों में फैले 75 ‘रामसर स्थलों’ के साथ भारत दक्षिण एशिया का सबसे अधिक आर्द्रभूमि वाला देश है। वर्ष 1981 में भारत के पहले ‘रामसर स्थल’ के रूप में ओडिशा की ‘चिल्का झील’ और राजस्थान का ‘केवलादेव पक्षी अभ्यारण्य’ शामिल किया गया था। इसके अलावा गुजरात का ‘नलसरोवर,’ केरल की ‘अष्टमुडी झील,’ ओडिशा का ‘भितरकनिका मैंग्रोव,’ मणिपुर की ‘लोकताक झील,’ पश्चिम बंगाल की ‘सुंदरवन आर्द्रभूमि,’ तामिलनाडु में मन्नार की खाङी, महाराष्ट्र की ‘लोनार झील,’ कर्नाटक का ‘रंगनथीपति अभ्यारण्य,’ उत्तरप्रदेश का ‘समसपुर पक्षी अभ्यारण्य,’ जम्मू कश्मीर की ‘कलुर झील’ और बिहार की ‘कांवर झील’ प्रमुख हैं।
मध्यप्रदेश में भोपाल का ‘राजा भोज तालाब,’ इंदौर का ‘सिरपुर’ एवं ‘यशवंत सागर’ तालाब और शिवपुरी जिले के ‘माधव राष्ट्रीय उद्यान’ में स्थित ‘सांख्य सागर’ ‘रामसर स्थलों’ में शामिल हैं। जबलपुर में नर्मदा का 30 किलोमीटर प्रवाह क्षेत्र और ‘संग्राम सागर,’ ‘मढोताल,’ ‘बाल सागर,’ ‘देवताल’ आदि अनेकों तालाब पर्याप्त संसाधन के बाबजूद प्रबंधन की कमी के कारण ‘रामसर साईट’ में जगह नहीं बना पाए हैं।
देश में कुल 24 लाख 24 हजार 540 जल निकायों में प्राकृतिक या मानव निर्मित इकाइयां शामिल हैं जिनमें से 20 लाख 30 हजार 40 इकाइयां ही उपयोग में हैं। ये आमतौर पर टेंक, जलाशय, तालाब और बंधी आदि नामों से जाने जाते हैं। बर्फ के पिघलने से बनी संरचना जैसे धारा, झरने भी इसके दायरे में आते हैं। मध्यप्रदेश में 82 हजार 643 कुल जल निकाय हैं जिनमें आधे से भी अधिक 45 हजार 386 उपयोग में नहीं हैं।
समुद्री आर्द्रभूमि में खाङी का जलडमरूमध्य, कोरल रीफ, कैल्थला समुद्री तट, लेगून आदि प्रमुख हैं, परन्तु 6907 किलोमीटर में फैला भारत का समुद्री तट कटाव से ग्रस्त है। पश्चिम बंगाल अपनी 60 प्रतिशत से अधिक तट रेखा के कटाव के साथ सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है। तटीय कटाव के कारणों में चक्रवातों की संख्या में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि और मानव जनित गतिविधियां, जैसे-बंदरगाहों का निर्माण, समुद्र खनन और बांधों का निर्माण शामिल हैं।
देश के तीन शहरों इंदौर, भोपाल और उदयपुर को ‘वेटलैंड सिटी’ का दर्जा दिलाने के लिए ‘केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ ने ‘रामसर सचिवालय, स्विट्जरलैंड’ को प्रस्ताव भेजा है। किसी शहर को यदि ‘वेटलैंड सिटी’ का दर्जा मिल जाता है तो वहां पर्यावरण संरक्षण के लिए दिए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए दरवाजे खुल जाते हैं।
वर्ष 2017 में ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा आर्द्रभूमि से संबंधित नियमों को अधिसूचित किया गया है। यह ‘आर्द्रभूमि (संरक्षण एवं प्रबंधन) नियमावली 2017’ 2010 में लागू दिशा- निर्देशों के स्थान पर आई है। इन नियमों में आर्द्रभूमि प्रबंधन के प्रति विकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित कर सके। ज्यादातर निर्णय राज्य के ‘आर्द्रभूमि प्राधिकरण’ द्वारा लिए जाएंगे, जिसकी ‘राष्ट्रीय आर्द्रभूमि समिति’ द्वारा निगरानी की जाएगी। (सप्रेस)
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जल-जंगल-जमीन बचाने की पैरवी करने वाले श्री राजकुमार सिन्हा ने वेटलैंड को लेकर बहुत अच्छी जानकारी दी। भोपाल मे वेटलैंड एरिया अतिक्रमण से भरता जा रहा है। वहां दुकानें बन गई, पक्के मकान खड़े हो गए। होटल , मेरिज गार्डन, अस्पताल सब बन गए ।
बनते जा रहे हैं। इनका वेस्ट सीधा तालाब मे जा रहा है।
वेटलैंड के नाम पर पिछले 20 साल मे कितना पैसा कहां से आया और उसका क्या उपयोग हुआ ?
इस पर जिम्मेदार लोगों को जवाब देना चाहिए।