डॉ. ओ.पी.जोशी

मुम्बई में मेट्रो-शेड के लिए जिस हड़बड़ी, कानून और पर्यावरण की अनदेखी के साथ ‘हरित फेफडे़’ माने जाने वाले आरे कॉलोनी के जंगल काटे गए, उसने एक बार फिर मौजूदा विकास की बेहूदी, खाऊ-उडाऊ अवधारणा के साथ यह भी साबित कर दिया है कि पूंजी, मुनाफा और बाजार किसी की परवाह नहीं करते।

मुंबई की आरे कॉलोनी में हजारों पेड़ काटकर मेट्रो शेड बनाने की कार्यवाही षडयंत्र-पूर्वक रची गयी प्रतीत होती है। वर्ष 2014 में आरे कॉलोनी के लगभग 2000 पेड़ काटकर मेट्रो शेड बनाने का निर्णय महाराष्ट्र राज्य सरकार ने लिया था। निर्णय का पता लगते ही वृक्ष-प्रेमियों, पर्यावरणविदों, फिल्मी कलाकारों, नागरिक संगठनों तथा सामाजिक संस्थाओं ने इसका जमकर विरोध किया था। विरोध का प्रमुख कारण यह था कि यहां फैली हरियाली को मुंबई का ‘हरा फेफड़ा’  मानी जाती थी। यह कालोनी ‘संजय नेशनल पार्क’ तथा मीठी, वलबट या ओशिविरा नदियों का भी इलाका है जहां नए एवं पुराने 3000 पेड़ों की हरियाली फैली थी। लगातार बढ़ते विरोध को देखकर सरकार पीछे खिसक गयी एवं एक मार्च 2015 को विधान परिषद की बैठक में मुख्यमंत्री ने मेट्रो शेड निर्माण को स्थगित करने की घोषणा की और एक समिति बनकर उसे वैकल्पिक स्थान तलाश कर बताने को कहा गया। इसी बीच कुछ लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका भी लगा दी। 

वर्ष 2019 के प्रारंभ में हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई कर पेड़ कटाई पर लगी रोक को जारी रखा। अदालत ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण बचाना जरूरी है, पेड़ों से ही हमारा अस्तित्व है, यदि पर्यावरण इसी प्रकार बिगड़ता रहा तो रहने के लिए दूसरा गृह तलाशना होगा। जून 2019 में राज्य सरकार फिर इस योजना पर सक्रिय हुई, परंतु इस बीच आरे कालोनी की हरियाली को गैर-वनीवृत वन माना गया एवं एक नोटिफिकेशन द्वारा इसे ‘इको-सेंसिटिव जोन’ की श्रेणी से भी अलग कर दिया गया। महानगर पालिका की 29 अगस्त की बैठक में ‘वृक्ष प्राधिकरण’ (ट्री-अथॉरिटी) ने मेट्रो शेड निर्माण हेतु 2700 पेड़ काटने की स्वीकृति प्रदान की। ‘वृक्ष’ प्राधिकरण’ में शामिल शिवसेना के छः नगर सेवकों ने इसका विरोध किया। सरकार की इस स्वीकृति के बाद से फिर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए एवं 15 सितंबर को इसमें तीन लाख लोगों ने भाग लिया।

इस भारी विरोध के बीच मेट्रो रेल कार्पोरेशन ने बताया कि शेड के लिए काटे जाने वाले 2700 पेड वर्ष भर में लगभग 600 टन कार्बन डाय-आक्साइड का अवशोषण करते हैं। मेट्रो आने से लोग अपने वाहन छोड़कर इसका प्रयोग करेंगे जिससे प्रदूषण घटेगा। रेल कार्पोरेशन की इस गणना में गड़बड़ लगती है। हाल ही में विस्कान्सीन विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार एक पेड़ एक वर्ष में 20 टन कार्बन डाय -आक्साइड को अवशोषित कर 700 किलोग्राम प्राणवायु (ऑक्सीजन) प्रदान करता है। गैसों के आदान-प्रदान के साथ पेड़ धूल एवं प्रदूषणकारी अन्य पदार्थों को सोखने, तापमान व बाढ़ नियंत्रण, भूमि-कटाव की रोकथाम एवं हजारों पक्षियों को आवास भी प्रदान करते हैं।

इसी बीच एनजीओ एवं पेड़ प्रेमियों ने भी पेड़ों को बचने हेतु चार याचिकाएं दायर कीं। याचिकाओं पर 30 सितंबर को सुनवाई हुई जिसमें पक्ष-विपक्ष ने अपने-अपने तर्क रखे। चार अक्टूबर को हाईकोर्ट ने चारों याचिकाएं खारिज करते हुए पेड़ काटने पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। रोक हटते ही रातों-रात ताबड-तोड पेड़ काटना शुरू कर दिया गया। यह पेड़ काटने का कार्य इतनी तेजी से हुआ, मानो पहले से सारी तैयारी कर रखी हो। चार अक्टूबर की रात एवं 5 तथा 6 के दिन-रात, यानी लगभग 60 घंटे में 2141 पेड़ काट दिये गये। गजब की तैयारी एवं गजब की तेजी से 35 पेड़ प्रति घंटे की दर से धराशायी किये गये। पेड़ काटते समय कालोनी  के रास्ते रोके गये, पुलिस फोर्स लगाया गया, धारा 144 लगायी गयी एवं कई लोग गिरफ्तार भी किये गये। पेड़ों को काटकर जिस तरह से उनकी हत्या की गयी उससे सारा माहौल जलियावाला बाग के समान प्रतीत हुआ। सौ वर्ष पूर्व अंग्रेज जनरल डायर के आर्डर से जिस प्रकार अमृतसर के जलियांवाला बाग में हजारों लोगों को गोलियों से भून दिया गया था, लगभग वैसे ही आरे के जंगल के पेड़ों को तत्परता से काटा गया। पेडों की कटाई के विरोध में कोर्ट में याचिका दायर करने वाले नगर सेवक यशवंत जाधव पर 30 हजार का जुर्माना भी लगाया गया।

पेड़ या जंगल बचाने हेतु न्यायालय का साथ लेने वालों पर यदि इस प्रकार जुर्माना लगाया गया तो फिर पेड़ बचाने कौन आगे आयेगा? इसी बीच आन लाईन लगी एक याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका मानकर 6 अक्टूबर को तत्काल प्रभाव से पेड़ कटाई पर रोक लगायी एवं आगामी सुनवाई हेतु 21 अक्टूबर का दिन निर्धारित किया। सुप्रीम कोर्ट की रोक पर मेट्रो रेल कार्पोरेशन ने कहा कि हमारी जरूरत के पेड़ तो कट गये। जाहिर है, कार्पोरेशन जरूरत से लगभग 600 पेड़ ज्यादा काटना चाहता था। आरे जंगल कटाई के मामले में कई प्रश्न उभरे हैं। जैसे मार्च 2015 में मुख्यमंत्री ने जिस कमेटी का गठन करके वैकल्पिक जगह बताने को कहा था, उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ? हाईकोर्ट के फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले रहते हैं, फिर हाईकोर्ट के फैसले पर इतनी जल्दी पेड़ क्यों काटे गये? ‘राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण’ (एनजीटी) एवं ‘केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय’ की भूमिका कहीं स्पष्ट नहीं हुई। मुंबई निवासी इस मेट्रो शेड को कैसे भी देखें पर पेड़-प्रेमी इसे पेड़ों की कब्रगाह पर खड़ी रचना ही मानेंगे। (सप्रेस)

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