वन विभागों की मार्फत कथित ‘सांटिफिक फॉरेस्ट्री’ उर्फ ‘वैज्ञानिक वानिकी’ की आजमाइश के डेढ़ सौ से ज्यादा साल गुजर जाने के बावजूद आज वन, वन्यप्राणी और वनों में बसे आदिवासी बदहाल ही नजर आते हैं। इसके बरक्स जंगल से अपनी जिन्दगी चलाने वाले आदिवासी, वन-निवासी अपनी तरह से वनों का संरक्षण करते रहे हैं।
दुनिया में जब से खेती का काम शुरू हुआ होगा तभी से वनों का महत्व इंसान की समझ में आया होगा। खेती का काम मिट्टी, पानी, गोबर के बिना नहीं चल सकता। गोबर पशुपालन से ही संभव है। पशुपालन तभी तक जिंदा है जब तक जंगल और उसके बीच में चरागाह हैं। पशुओं का गोबर भी अकेला नहीं है। उसमें भी पेड़- पौधों की पत्तियां जब पशुओं के नीचे बिछायी जाती हैं तभी खाद बनती है।इसी तरह पानी भी ग्लेशियर और पेड़ों के बीच से ही आता है जो गांव के किनारे नदियों और अन्य जलधाराओं के रूप में धीरे-धीरे बहकर आगे जा रहा है।
इसलिए खेती-बाड़ी, पानी, हवा, मिट्टी हमारा जीवन है और इसके कारखाने हमारे चारों ओर के जंगल हैं। आदिकाल से ही लोगों ने वन बचाने के लिए वन पंचायतें बनायी हैं। गांव में खेती एवं वन सुरक्षा के लिए चौकीदारी व्यवस्था को महत्व दिया गया था। जंगल पर निर्भर लोगों ने वनों से घास और लकड़ी लेने के नियम भी बनाये थे। इसके संकेत आज भी पहाड़ी और आदिवासी गांवों में दिखाई देते हैं।
कई जगह, खासकर पहाडों में जंगल के रास्ते पर लकड़ी के तराजू बने हुए हैं। जब लोग जंगल से घास, लकड़ी लेकर आते हैं तो वन-पंचायत द्वारा नियुक्त चौकीदार हरेक के बोझ को तौलता है। इसका वजन 70-80 किलोग्राम से अधिक होता है तो वन-चौकीदार बोझ से घास या लकड़ी निकालकर अलग करेगा और जिसके बोझ में कम वज़न है उसमें मिला देगा। सभी लोग चौकीदार को हर फसल पर अनाज के रूप में मदद करते हैं। जून से सितंबर के बीच चारागाहों में पशुओं को नहीं भेजा जाता। इन महीनों में नई-नई घास और पौधे जंगल में उगते हैं जिनकी सुरक्षा के लिए लोग पशुओं को घर पर रखकर चारे की व्यवस्था करते थे।
ये बातें आजकल स्कूलों में नहीं पढ़ायी जातीं। फलस्वरुप जीवन शैली उस तरह की नहीं है जिससे पर्यावरण स्वस्थ रहे। जीवन को सुखमय बनाने वाली मिट्टी, पानी, जंगल, हवा प्रदूषणमुक्त हो। इस बारे में जितना पढ़ रहे हैं उतना ही हमारा प्रकृति के प्रति विपरीत आचरण सामने आ रहा हैं। ताजुब होगा कि जब न कोई विज्ञान का सिद्धांत था और न कोई पुस्तक और न ही इस तरह की चकाचौंध थी, जैसे कि आज हमारे चारों ओर है, लेकिन मनुष्य ने आदिकाल से ही अपनी खेती-बाड़ी के महत्व के लिए जंगलों का प्रबंधन करना शुरू कर दिया था।
वर्ष 1815 से पहले जब अंग्रेज यहां आए थे तो लोग अपनी आजीविका के लिए वनों का प्रबंधन करते थे। उदाहरण है कि 1850 तक अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन ने गंगा घाटी के उद्गम में स्थित हर्षिल में रहकर तत्कालीन टिहरी नरेश सुदर्शन शाह से सिर्फ 400 रुपये में शंकुधारी वनों का पट्टा ले लिया था। उसने वहां के वनों का अंधाधुंध दोहन किया। गंगा घाटी से तमाम प्रकार की प्रजाति के पेड़ों को काटकर नदी के बहाव के साथ हरिद्वार और वहां से रेलवे लाइन बिछाने के लिए कोलकाता तक पहुंचाया गया। विल्सन ने इसकी आड में जंगली जानवरों का शिकार भी किया।
इसी दौरान वर्ष 1823 में गांव की सीमाओं का भी निर्धारण किया गया था जिससे लोगों के अधिकारों को वनभूमि पर सीमित करने का प्रयास आरंभ हुआ था। अंग्रेजों ने इसके लिए वर्ष 1865 में पहला वन-अधिनियम बनाया था। इसके बाद सन् 1877 में वनों की सीमाओं को भी निर्धारित करने का काम हुआ। जिसमें मुनारा बनाकर वन-सीमायें तय की गई थीं। इस प्रक्रिया में खेती की जमीन को छोड़कर संपूर्ण भूमि सुरक्षित वनभूमि के रूप में बदली गई।
अंग्रेजों के इसी कानून के कारण वनभूमि पर लोगों को अतिक्रमणकारी मानने का सिद्धांत लागू हुआ, लेकिन अंग्रेजों की इस व्यवस्था के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए। लोगों ने विरोध में वनों को आग के हवाले किया। यह घटना 1915-21 के बीच हुई थी। इसके बाद अंग्रेज शासन ने एक ‘शिकायत समिति’ का गठन कर आरक्षित वनों को ‘दर्जा एक’ और ‘दर्जा दो’ में वर्गीकृत किया। इसमें लोगों के अधिकारों को लौटाने की व्यवस्था की गई।
इसके बाद भी 1925 में ‘शिकायत समिति’ की संस्तुतियों के आधार पर मद्रास प्रेसीडेंसी के कम्युनिटी फॉरेस्ट की तर्ज पर उत्तराखंड में भी पंचायती वन व्यवस्था को आरंभ किया गया। वर्ष 1931 में वन-पंचायत नियमावली बनाई गई जिसका गठन 1932 में प्रारंभ हुआ। उस समय उत्तराखंड में राजस्व ग्रामों की संख्या 13,739 थी। इसके अंतर्गत ‘दर्जा एक’ और ‘दर्जा दो’ के अनुसार आरक्षित वनों के साथ सिविल वनों की भी वन-पंचायत बनाना आरंभ किया गया। सन् 1976 में भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 28 के अंतर्गत वन पंचायत नियमावली में संशोधन करके राजस्व विभाग को अधिकार दिए गए। इस संशोधन का बहुत विरोध हुआ। इसके बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने वर्ष 1982 में 19 सदस्यों वाली ‘सुल्तान सिंह भंडारी कमेटी’ बनायी, लेकिन उनके जितने भी संशोधन थे वे स्वीकार नहीं हो सके।
वर्ष 1997 में जब दुनिया में निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण का दौर चरम सीमा पर था तब विश्वबैंक की सहायता से ‘संयुक्त वन प्रबंधन’ योजना लागू की गई। इसको चलाने के लिए वन-पंचायत नियमावली में संशोधन किये गये। जिसके बाद वन-पंचायतों की स्वायत्तता को समाप्त करके वन विभाग के अधीन कर दिया गया और वन-पंचायत सरकार की देखरेख में चलने लगी। इससे हक-हुकूक भी प्रभावित हुए। अनुसूचित जाति के शिल्पकार और ‘अन्य परंपरागत वन-निवासी’ जो रिंगाल और अन्य वन-उत्पाद से आजीविका चला रहे थे, बेरोजगार हुए। उन्हें आजीविका का संकट झेलना पड़ा। अब उत्तराखंड में ही 12 हजार से अधिक वन-पंचायतें हैं जो सरकारी नियम कानून के आधार पर चलती हैं, लेकिन वे अपने जंगल की आग भी नहीं बुझा पाती। इसका कारण है कि वन और खेती सुरक्षा के जो पुश्तैनी नियम-कानून थे वे हाशिए पर चले गए। इसके चलते बंदर और सुअर जैसे जंगली जानवरों से फसल को बचाना और जंगल पालने की पारंपरिक व्यवस्था भी नहीं बच पाई। (सप्रेस)