आधुनिक व्यापार-व्यवसाय ने अब तेजी से प्राकृतिक संसाधनों को अपनी चपेट में लेना शुरु कर दिया है। जंगल, जिन्हें सुप्रीमकोर्ट द्वारा दी गई परिभाषा के मुताबिक केवल रिकॉर्ड में जंगल की तरह दर्ज होना ही काफी है, निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। वन-बहुल मध्यप्रदेश की सरकार ने धीरे-धीरे जंगलों को निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया शुरु कर दी है। ऐसे विनाशकारी कदम का आखिर क्या नतीजा होगा?
मध्यप्रदेश सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को ‘पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप’ (पीपीपी) मोड पर निजी कम्पनियों को देने का निर्णय ले लिया है। यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है। प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं। मध्यप्रदेश के जंगल का एक बडा हिस्सा ‘आरक्षित वन’ है और दूसरा बङा हिस्सा ‘राष्ट्रीय उद्यान,’ ‘अभयारण्य,’ आदि के रूप में जाना जाता है। बाकी बचते हैं वे वन जिन्हें ‘बिगड़े वन’ या ‘संरक्षित वन’ कहा जाता है। इस संरक्षित वन में पहले स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है और इसलिए उनका अधिग्रहण नहीं किया जाना है।
ये ‘संरक्षित जंगल’ उन स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल वे निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं। सन् 1956 में मध्यप्रदेश राज्य के पुनर्गठन के समय उसका भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था। इसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर ‘वनेत्तर सामुदायिक वनभूमि’ के रूप में दर्ज थी। उक्त ‘संरक्षित वन भूमि’ को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया और इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिये जाने का कोई प्रयास नहीं किया।
वन विभाग ने जिस भूमि को अनुपयुक्त पाया, उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को ‘अधिक अन्न उपजाओ’ योजना के तहत हस्तांतरित की गई और अधिकतर अनुपयुक्त भूमि को वन विभाग ने “ग्राम वन” के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा। इसी ‘संरक्षित वन’ में से लोगों को ‘वन अधिकार कानून – 2006’ के अन्तर्गत ‘सामुदायिक वन अधिकार’ या ‘सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार’ दिया गया है या दिया जाने वाला है। अगर यह 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? संविधान की पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में ‘पेसा कानून’ प्रभावी है जो ग्रामसभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या ‘पीपीपी’ मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्रामसभा से कोई सहमति ली गई है? ‘वन अधिकार कानून’ द्वारा ग्रामसभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है, उसका क्या होगा?
विभिन्न नीति एवं क़ानून के कारण भारत का वन अब तक वैश्विक कार्बन व्यापार में बडे पैमाने पर नहीं आया है। ‘साईफर’ एवं ‘फोरेस्ट ट्रेंड’ जैसे एनजीओ, जो विश्वबैंक द्वारा पोषित हैं, अपने दस्तावेजों में कह रहे हैं कि भारत के जंगलवासी समुदाय (प्रमुख रूप से आदिवासी) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे। शोध की मार्फत आदिवासियों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित किया जाता है कि उनकी हालत रातों-रात सुधर जाएगी। कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर कार्बन के पेचीदा भाव-ताव को समझेगा? दूसरी बात भारत में वर्ग एवं जातीय समीकरण तथा जमीन के प्रति रिश्ते की जटिलता होते हुए गांव स्तर की संस्था कैसे एक अलग प्रकार के जंगल से मिलने वाले धन को आपस में बाँटेंगे?
‘संयुक्त वन प्रबंधन’ के कङवे अनुभव इसका उदाहरण हैं। पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक की सहायता एवं प्रोत्साहन से वन विभाग द्वारा ‘संयुक्त वन प्रबंधन’ के नाम से जंगल क्षेत्रों में ‘ग्राम वन समिति’ एवं ‘वन सुरक्षा समिति’ चल रही हैं। इस परियोजना ने ग्रामवासियों को ताकत एवं मदद देने की बजाए भ्रष्टाचार, झगड़े एवं शोषण का घर बना दिया है। अतः कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रूपये कमाना ही निजी कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य होगा। अंत में स्थानीय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा। (सप्रेस)
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