राजेन्द्र सिंह

गंगा की अविरलता को बरकरार रखने के लिए 111 दिन के अपने उपवास के बाद प्राण त्यागने वाले प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ऐसे बिरले लोगों में हैं जिन्होंने गंगा को जीवित रखने के लिए विज्ञान और आध्यात्म दोनों को साधा था। उनके तर्क ही थे जिन्होंने उत्तराखंड की ‘लोहारी-नागपाला’ सरीखी विशालकाय जल-विद्युत परियोजना को ठंड़े बस्ते के हवाले करवा दिया था।

प्राकृतिक मूल्यों को सर्वोपरि मानने वाले ऋषि और गंगा की अविरलता बनाए रखने की खातिर 111 दिन के उपवास के बाद प्राण त्यागने वाले प्रोफेसर जीडी यानि गुरुदास अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का स्मरण मुझे हर क्षण बना ही रहता है। मैंने जब उनसे ‘तरुण भारत संघ’ के संचालक मंडल का सदस्य बनने के लिए कहा तो उसका विधान पढ़कर वे बोले – मैं तुम्हारा सदस्य नहीं बन सकता, क्योंकि यह विधान तो मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानकर बनाया गया है। मैं तो प्रकृति को सर्वोपरि मानता हूँ। वे बोले – मैं तो मानव को प्रकृति का एक मामूली-सा अंग मानता हूँ; इसलिए मानव मेरे लिए सर्वोपरि नहीं हो सकता।

स्वामी सानंद अपने मित्र और वकील महेशचन्द्र मेहता के साथ जुलाई 2007 में गंगोत्री जाते समय ‘लोहारी-नागपाला परियोजना’ द्वारा गंगा को गायब होते देखकर बहुत दुखी हुए थे। उसी समय उन्होंने गंगा का नए तरीके से चिंतन आरंभ किया था। इन्हीं दिनों वे राजस्थान की छोटी, सूखी नदी अरवरी को कल-कल बहते देखकर गए थे। उन्हें लगा जब छोटी नदी दुबारा बह सकती है, तो गंगा को भी शुद्ध-सदानीरा बना सकते हैं। उन्होंने गंगा का शुद्ध-सदानीरा बनाना ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लिया।

उन्होंने वर्ष 2007 के अंत में कहा कि अभी तक तो मैं छोटे-छोटे बांधों को बड़े बांधों का विकल्प मानकर बनवाने का काम प्रायश्चित के तौर पर कर रहा था, लेकिन प्रायश्चित के लिए 20 वर्ष बहुत हैं। अब मैं बड़े बाँधों को तुडवाने, रुकवाने व आगे नहीं बनने देने के काम में लगूँगा। गंगा को अब सघन चिकित्सा की आवश्यकता है। चिकित्सा मैं कर सकता हूँ, लेकिन सरकार मेरी चिकित्सा को नहीं मानेगी। वह तो गंगा माई से भी कमाई करना चाहती है।

मैं सबसे पहले गंगा से कमाई के सभी रास्ते बंद करूँगा। माँ गंगा मेरी आस्था की माई हैं। उनसे मैं स्वयं कोई कमाई नहीं करूँगा, किसी को करने भी नहीं दूँगा। यह बात सरकार मेरे बारे में जानती है, इसलिए वह मुझे गंगा के काम में अपने साथ नहीं जोड़ेगी, न ही मुझे काम करने देगी। मेरा सरकारों के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है। मैं अच्छे से जानता हूँ कि सरकार का विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियान्त्रिकी की प्रज्ञा से या संवेदना-समझदारी से कोई रिश्ता नहीं होता।

मैं अपनी माँ गंगा की खातिर उसकी अविरलता हेतु सत्याग्रह करूँगा। माँ गंगा को निर्मल बनाने का काम तो कमाई का धंधा है। उस धंधे को करने वालों की सरकार के पास बहुत बड़ी भीड़ मौजूद है। वे तो उसी धंधे के नाम पर माँ का सभी कुछ लूट रहे हैं। वे लूटते रहें, उन्हें रोकने वाली ताकत भी एक दिन खड़ी होगी। इस अविरलता के काम को पूरा करके हम बाद में भ्रष्टाचार को रोकने में भी लगेंगे।

जीडी अग्रवाल का कहना था कि जो कुम्भ कभी सत्य की खोज के लिए शुरू हुआ था, वही कुम्भ अब गंगा की पवित्रता, निर्मलता, अविरलता पर विचार नहीं करके उसे और अधिक गंदा ही करता है। गंगा जी जब तक स्वस्थ होवें, अपने गंगत्व की विशिष्टता को पुनः प्राप्त करें, तब तक गंगा किनारे कुम्भ आयोजित करने पर रोक लग जानी चाहिए। यह बात कोई सच्चा आस्थावान भारतीय ऋषि ही बोल सकता है। ये बात वे बड़ी नम्रता से मुझसे कई बार बोले थे। कुम्भ पर रोक लग जायेगी तो समाज गंगा का गंगत्व बचाने में जुट जायेगा।

जीडी अग्रवाल ने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय के इतिहास में सबसे कम समय में अपनी पीएचडी की थी। आईआईटी-कानपुर में 17 साल पढाने के बाद 1979 में वे ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ के पहले सदस्य-सचिव बने। सरकार में अपनी ईमानदारी के कारण वे कभी भी किसी के चहेते नहीं रहे। उनका गुरुत्व सरकार को बहुत भारी होता था। आज की सरकार ने तो उन्हें खा ही लिया। इसको प्रो. जीडी अग्रवाल का जाना कभी-न-कभी बहुत भारी पड़ेगा।

प्रो. जीडी अग्रवाल को पर्यावरण व गंगा के विज्ञान, अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिक संबंधों की गहराई और पर्यावरणीय प्रवाह की जितनी समझ थी, उतनी आज किसी की नहीं है। वे प्राकृतिक मूल्यों को भारतीय आस्था और पर्यावरणीय रक्षा का आधारभूत विज्ञान मानते थे। उनका जीवन, सामाजिक संस्कार, भारतीय आस्था, पर्यावरणीय रक्षा के आधार की गहरी समझ व शक्ति थी।

उनके अंदर असाधारण ठहराव था। ‘मातृसदन, हरिद्वार’ में चिमटा गाड दिया था। अंत तक वहीं उनका चिमटा गडा रहा, वे वहीं गंगा में रम गए। वहीं पर वे सबसे मिलते थे। बाबा रामदेव हों या उनके गुरू स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, सभी से वे बहुत बार मिलते थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के प्रति उनका बहुत विश्वास था। उनकी बुराई करने वाले बहुत लोग उनके पास पहुँचते थे, उन्हें भी वे अच्छे से सुनते थे।

उनके कई अधूरे काम हैं। 10 अक्टूबर 2018 को ‘गंगा पर्यावरणीय प्रवाह’ भारत सरकार ने प्रकाशित कर दिया था। वह आज भी गंगा या भारत की किसी भी दूसरी नदी में कहीं भी प्रभावी रूप में लागू नहीं है। स्वामी सानंद को यह दस्तावेज गंगा में स्वीकार नहीं था, फिर भी जो है वह भी लागू नहीं है। केवल यह प्रकाशित कराके भारत सरकार ने प्रस्तुत कर दिया है। गंगा मंत्री नितिन गड़करी ने ‘गंगा संरक्षण प्रबंधन प्रारूप’ का दिसम्बर 2018 तक गजट-नोटीफिकेशन करने और कानून बनाने का ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ की बैठक में पहुँचकर वायदा किया था।

‘गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम’ को दिये हुए 9 वर्ष बीत गए हैं। स्वामी सानंद ने वर्ष 2012 में ही पहला प्रारूप पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिया था। फिर 2014 में उमा भारती को भी दिया। इन्होंने उस पर एक और सरकारी प्रारूप तैयार कराया था। 2018 में वह भी तैयार हो गया था। उस प्रारूप के विरोधाभास पर हमने दिल्ली में चर्चा कराई थी। उसमें भी गड़करी जी ने आकर स्वामी सानंद को लिखित में वायदा दिया था। उसके बाद बनारस, इलाहाबाद, कानपुर में चर्चा भी कराई थी।

सरकार ने अब यह कानून ठंडे बस्ते में रख दिया है, क्योंकि सरकार काशी में चबूतरा और जल वाहक प्लेटफार्म बनाने में लगी हुई है। कानून के काम को स्वयं मंत्री नितिन गड़करी ने ही रुकवा दिया। उन्हें गंगा जी पर ही चार धाम रोड बनाना था। इस कानून को लागू होने से तो गंगा जी को संरक्षण मिलना था। गंगा में विकास के नाम पर विनाश कार्य रोकने वाला ‘गंगा संरक्षण प्रबंधन कानून’ का प्रारूप अब तो सरकारी तौर पर भी तैयार है, लेकिन इसे संसद में प्रस्तुत नहीं किया गया है। कानून बन जाये तो माँ की चिकित्सा ठीक से आरंभ हो सकती है। सानंद जी अपनी माँ को स्वस्थ्य नहीं देख पाये। सानंद जी को देखने वाले गंगा माँ को स्वस्थ्य देख पायें, ऐसी उम्मीद है। (सप्रेस)

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