उत्तराखंड की ताजा त्रासदी ने एक बार फिर उस सनातन सवाल को उछाल दिया है कि आखिर विकास के नाम पर होने वाली गतिविधियां हमारे विनाश की वजह क्यों बनती जा रहीं हैं? क्या उत्तराखंड में बनी और बन रहीं जल-विद्युत परियोजनाएं वैसी ना बनी होतीं, जैसी बनी हैं तो क्या इस भारी मानवीय त्रासदी का सामना करना पडता?
हिमालय के पर्वतों में निवास करने वाले लोगों को पता नहीं चल पाता कि कब उन्हें आपदा की चपेट में अपनी जिंदगी गंवानी पड़े। यहां की खूबसूरत वादियां पर्यटकों को जितना आकर्षित कर रही है, इससे कई गुना यहां की धरती की सहनशीलता कमजोर हो रही है। यहां विकास के नाम पर ऐसी चका-चौंध खड़ी करने की कवायद जारी है जैसी जलती आग के आकर्षण में छोटे-छोटे कीट-पतंगे अपना जीवन गंवा देते हैं। मनुष्यों के जीवन को सुरक्षित रखने की गुंजाइश इसमें नहीं है। यह क्षेत्र भूकम्प के लिहाज से भी जोन 4 व 5 में पड़ता है।
हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक क्यों पड़ रहा है? इसके उत्तर गायब हैं। दोषी पर्दे के पीछे छिपा है। इसी के परिणाम स्वरूप प्रकृति की अनमोल विरासत जल, जंगल, जमीन, बुग्याल, बर्फ, खनिज आदि सब कुछ व्यापार की वस्तु बन गई हैं। जो इसको बाधित करने की हिम्मत दिखाता है वह तत्काल विकास विरोधी की श्रेणी में गिना जाने लगता है। इस तरह के व्यवहार से हम कहीं-न-कहीं पर्वतों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। इस समझ से ही पर्यावरणीय अन्याय को खुली छूट मिल रही है। इस विषय पर मनुष्यों की बहस व टकराहट में कमी नहीं है। जिसे हिमालय अडिग रहकर चुपचाप देख रहा है। यह कहावत सही है कि ‘‘हिमालय टूट सकता हैं, झुक नहीं सकता।’’
यहां चाहे बहती नदियों को रोकने के लिये छोटे-बड़े बांध बन रहे हों या चौड़ी सड़कों के निर्माण, इस विकास में ही महाविनाश छिपा हुआ है। इसी काम के नाम पर कुछ लोगों के पास अथाह पूंजी जमा हो रही है। वे मजबूती से सत्ता के हाथ पकड़े हुये हैं। इसी तरह के लालच के प्रभाव में चंद लोग सुविधाओं से लाभ लेने के लिये अस्थाई रोजगार के पहिये बन जाते हैं। इसी भरोसे में रहकर गौरा देवी का रैणी गांव फिर चर्चा में आ गया है। इस गांव की लगभग 4 दर्जन महिलाएं आज से 47 वर्ष पहले अपने जंगल बचाने के लिये पेड़ों पर चिपककर खड़ी हो गईं थीं। जिसके बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार को पेड़ों के कटान का निर्णय वापस लेना पड़ा था। दुबारा यहां की शान्त स्वभाव वाली ऋषि गंगा पर सन् 2007 में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के नाम पर जंगल कटान, खनन और निर्माण के समय भारी विस्फोटों का प्रयोग किया गया। गांव वालों ने इसका भी पुरजोर विरोध किया था।
ताज्जुब इस बात का था कि इस 13.2 मेगावाट जल-विद्युत के निर्माणकर्ताओं ने गौरा देवी के उस जंगल तक जाने का रास्ता भी बंद कर दिया था, जहां ‘चिपको आन्दोलन’ चला था। लम्बे समय तक गांव की महिलाओं को जंगल से घास-लकड़ी लाने में परेशानी हुई। ‘चिपको आंदोलन’ के नेता चंडीप्रसाद भट्ट इस परियोजना के कारण हो रही पर्यावरणीय क्षति से चिंतित थे। उन्होंने इसे निरस्त करने की मांग भी की थी, लेकिन उनकी अनसुनी की गई। रैणी गांव के लोगों ने इस परियोजना के खिलाफ हाई कोर्ट की शरण ली, जिसके बाद विस्फोटों पर कुछ रोक लग पायी थी। फिर भी यह परियोजना सन् 2011 में बनकर तैयार हो गई। ‘यूनेस्को’ द्वारा संरक्षित ‘नंदा देवी बायोस्फ्यिर’ भी यहां है। ऋषि गंगा का उद्गम भी इसी क्षेत्र में त्रिशूली नाला से है जहां किसी भी तरह का पर्यावरण विनाश गैर-कानूनी है। इस सबके बावजूद प्रोजेक्ट का निर्माण हुआ।
इसी का परिणाम था कि 7 फरवरी 2021 को नंदा देवी पर्वत से टूटकर आये ग्लेशियर या एवलांच के भारी मलवे ने सबसे पहले ऋषि गंगा पर बने हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के उस हिस्से को पूरा ध्वस्त किया, जहां नदी को बहने से रोका गया था। इसके आगे ‘विष्णु प्रयाग जल-विद्युत परियोजना’ (420 मेगावाट) के पावर हाउस को ठप करते हुये ‘तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना’ (520 मेगावाट) की टनल और बैराज को क्षतिग्रस्त किया। यहां पर काम कर रहे लगभग 200 से अधिक लोगों की जान गई। मारे गये अधिकतर लोगों के शवों का पता तो नहीं चला, लेकिन कुछ शव और अंगों के हिस्से कर्णप्रयाग, श्रीनगर, तक अलकनंदा में मिल रहे हैं।
वैसे यहां पर आपदा के दिन 5 गुना लोगों की मृत्यु हो जाती, यदि केदारनाथ आपदा के बाद सन् 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुये प्रोजेक्ट के अलावा ‘ऋषिगंगा-1,’ ‘ऋषिगंगा-2’ और ‘लाटा-तपोवन जल-विद्युत परियोजनाओं’ पर रोक न लगती। यदि ये प्रोजेक्ट आज तक बन गये होते तो हरिद्वार तक हजारों लोगों की जानें मलबे में दबी होतीं। यदि बांध निर्माण करने वाले लोगों में इस आपदा को टालने की मंशा होती तो वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित ‘विशेषज्ञ समिति’ की सिफारिशों को सुनते और इसके बाद सभी निर्मित व निर्माणाधीन बांधों के गेट हमेशा के लिये खोल देते। लेकिन उनके लिये यह हजारों गुना नुकसान दायक था।
इसे यहां तक प्राकृतिक आपदा मान सकते है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, लेकिन ग्लेशियरों से आने वाला मलवा और जल-सैलाब जब नदी को रोकने वाले बांध को तोड़कर नीचे की ओर भारी जन-धन को विनाश पहुंचाती है, तो यह मानव-जनित आपदा का रूप लेकर तबाही का कारण बनती है। ऋषिगंगा बांध टूटने के दिन निचले क्षेत्र में बने ‘श्रीनगर जल-विद्युत परियोजना’ के अलावा अन्य सभी बांधों में विद्युत उत्पादन ठप करना पड़ा और जल-निकासी की गई, जबकि टिहरी बांध से जल-निकासी रोकी गई ताकि हरिद्वार और उससे आगे की आबादी को जल-प्रलय से बचाया जा सके।
समझदारी यही है कि नदियों को अविरल बहने दिया जाय। जब इसकी अनदेखी हो रही है, तो इस तरह की मानवजनित आपदा को झेलना ही पड़ेगा। बांध निर्माण से पहले ‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन’ (ईआईए) और ‘समाजिक प्रभाव आंकलन’ (एसआईए) की रिपोर्ट तैयार की जाती है। इनमें क्या लिखा जाता है, इसे प्रभावित क्षेत्र के लोग स्थानीय भाषा या हिन्दी में जानना चाहते हैं, लेकिन इसे हमेशा लोगों की नजर से छिपा कर रखते हैं। बहुत दबाव पड़ने पर इसे अंग्रेजी में उपलब्ध करा दिया जाता है, जिससे आम लोग अनभिज्ञ रहते हैं।
सच्चाई है कि इन आंकलनों में प्रभावित क्षेत्र की आबादी, जंगल, खेत, जल-स्रोत, आजीविका के साधन आदि को न्यूनतम से भी कम दर्शाकर बांध निर्माण का रास्ता खोला जाता है। चिंता तब और बढ़ जाती है जब सरकारी मशीनरी भी प्रभावित क्षेत्र की सही जानकारी लोगों के साथ नहीं बांटती है। ‘ईआईए’ रिपोर्ट का दोष है कि वह वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध व भविष्यवाणियों को नकार देती है। भूगर्भ वैज्ञानिक कहते हैं कि ऋषिगंगा पर जो प्रलय हुआ है उसके संकेत पिछले 37 वर्षों से मिलने लगे थे।
‘उत्तराखण्ड अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र’ के निदेशक डा एमपीएस बिष्ट के अनुसार यहां के 8 से अधिक ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। डॉ. बिष्ट द्वारा 1970-2017 के बीच किये गये अध्ययन में बताया गया है कि यहां के ग्लेशियर 26 वर्ग किमी पीछे खिसक गये हैं। इसका प्रभाव केवल ऋषिगंगा पर ही पड़ता है। ‘वॉडिया हिमालयन इंस्टीट्यूट’ के वैज्ञानिकों के अनुसार गौमुख, डोकरियानी, बंदरपूछ, बद्रीनाथ, सतोपंथ, चोराबाड़ी, खतलिंग मिलम, काली, नरमिक, हीरामणी, सोना, पोंटिग आदि ग्लेशियरों के टूटने का खतरा बना हुआ है। अल्पाइन आकार के पर्वतों के ग्लेशियरों को स्नो-एवलांच, पिघलने व टूटने के लिहाज से बेहद खतरनाक बताया जा रहा है। इसका कारण है कि ठंड के मौसम में होने वाली बारिश और बर्फवारी के चलते अल्पाइन ग्लेशियरों में कई लाख टन बर्फ का भार बढ़ जाता हैं जिसके कारण ग्लेशियरों के टूटने व खिसकने का खतरा बना रहता है।
रैणीवल्ला, रैणीपल्ला और जुज्नू, तीनों गांवों के 120 परिवार अभी भी दहशत में हैं, क्योंकि ऋषिगंगा के उद्गम पर बर्फ की भारी झील बन गयी है। उनकी आशंका है कि झील ऊपर से तबाही का कारण न बन जाय। वे रात को डरे और सहमे रहते हैं। दूसरी ओर, इस आपदा के कारण जोशीमठ-मलारी हाईवे पर बना पुल टूटने से आगे के 13 गांवों से पूरी तरह संपर्क कटा हुआ है और इस रास्ते से होकर चीन की सीमा पर तैनात जवानों तक खाद्य सामग्री भी नहीं पहुंच पा रही है। ‘सीमा सड़क संगठन’ के जवान फिलहाल वैली-ब्रिज लगाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रभावित गांव के लिये सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों की तरफ से खाद्य सामाग्री और अन्य राहत भी भेजी जा रही है।
इस त्रासदी के बहाने यह सवाल हमेशा पूछा जायेगा कि ऋषिगंगा प्रोजेक्ट की शुरूआत के समय यदि निर्माण कम्पनी रोजगार और नौकरी के नाम पर लोगों का विरोध कमजोर न करती तो आज सैंकड़ों लोगों की जान न जाती और यदि भविष्य में इससे कोई सबक न ले सकें तो श्रंखलाबद्ध रूप में निर्मित व निर्माणाधीन बांधों से इसी तरह की त्रासदी की पुनरावृत्ति होती रहेगी। (सप्रेस)
[block rendering halted]