विकास के नाम पर की जाने वाली विनाश की ताजी जिद का नया कारनामा अब नदी-जोड़ है। मध्यप्रदेश में केन- बेतवा लिंक परियोजना का भूमि पूजन फरवरी 2024 में होने जा रहा है। इससे बुंदेलखंड से प्रवाहित केन नदी को बेतवा से जोड़ने के मंसूबे बांधे जाने लगे हैं, भले ही उससे आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरण आदि के गहरे संकट क्यों ना खड़े हो जाएं। क्या है, नदी-जोड़ का यह तमाशा?
यदि जाने-माने विशेषज्ञों द्वारा किसी बड़ी नदी परियोजना के परिणाम बहुत हानिकारक होने की आशंका प्रकट की गई हो तो उचित समय पर रोक कर, इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। यह पुनर्विचार ऐसा नहीं होना चाहिए कि नाम-मात्र को कुछ समय के लिए रुक गए, अपितु पूरी पारदर्शिता व खुले मन से विभिन्न संभावित दुष्परिणामों की जांच होनी चाहिए। यदि वास्तव में दुष्परिणाम अधिक पाए गए तो ऐसी परियोजना पर अरबों रुपए और बर्बाद करने के स्थान पर इसे त्यागते हुए यह राशि जन-हित से जुड़े अन्य कार्यों, विशेषकर जल-संरक्षण के कार्यों पर खर्च करना चाहिए।
‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ एक ऐसी ही योजना है जो पहले से कई तरह की कठिनाईयों से गुजर रहे बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए एक बड़ी आपदा उपस्थित कर सकती है। हजारों करोड़ रुपए खर्च कर बुलाई गई इस आपदा के तहत बांध बनाकर एक नहर के माध्यम से केन नदी का पानी बेतवा नदी में भेजा जाना है। इस तरह इसकी मूल एक पूर्व निर्धारित अवधारणा है जिसके मुताबिक केन में अपनी जरूरत से अधिक पानी उपलब्ध है, हालांकि इसके कोई प्रामाणिक आंकड़े अभी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं।
इस सोच को अनेक विशेषज्ञों व सरकारी पदों पर रह चुके पूर्व अधिकारियों ने अनुचित बताया है। केन क्षेत्र की जल आवश्यकताओं को कृत्रिम तौर पर कम बताकर इसमें अतिरिक्त जल की सोच को किसी तरह स्थापित किया गया है जो उचित नहीं है। केन व उसकी कुछ सहायक नदियों में हाल के वर्षों में जिस तरह बहुत बड़े पैमाने पर अंधाधुंध बालू का खनन हुआ है, उस कारण केन व उसकी सहायक नदियां स्वयं संकटग्रस्त हैं।
केन व बेतवा दोनों का बहाव क्षेत्र बहुत दूर नहीं है, दोनों यमुना में ही मिलती हैं, दोनों के क्षेत्रों में प्रायः एक समय ही अधिक या कम वर्षा होती है, अतः दोनों को जोड़ने से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। विशेषकर यह भी देखते हुए कि बेतवा क्षेत्र में जहां पानी की अधिक कमी है वहां इस परियोजना का पानी नहीं पहुंचेगा। वास्तव में यह केन-बेतवा, उत्तरप्रदेश या मध्यप्रदेश का सवाल है ही नहीं। चूंकि यह परियोजना अपने मूल रूप में ही बेबुनियाद व औचित्यविहीन है, अतः राष्ट्रीय संदर्भ में यह धन की बर्बादी ही है, जबकि सही जल-संरक्षण कार्यों के लिए धन उपलब्ध होना चाहिए।
इस परियोजना में लाखों पेड़ों का कटना व हजारों गांववासियों का विस्थापित होना तय है। अनेक वर्ष पहले के सरकारी तौर पर मान्य दस्तावेजों में 23 लाख पेड़ कटने की बात कही गई थी, पर उस समय छोटे पेड़ इसमें नहीं गिने गए थे। अब इनके भी बड़े होने से परियोजना में 30 लाख या उससे भी अधिक वृक्ष कटने की संभावना है।
पन्ना के टाईगर रिजर्व, घड़ियाल संरक्षित क्षेत्र आदि में वन्य जीवों के लिए स्थिति बहुत अस्त-व्यस्त हो जाएगी, आरक्षित क्षेत्र विभाजित हो जाएगा व जल-जीवों के लिए पानी की कमी होगी। बांधों व नहर से हजारों लोग विस्थापित होंगे, खेत उजड़ेंगे, पेड़ कटेंगे, कई जल-स्रोत नहर के मार्ग में आने से अस्त-व्यस्त होंगे।
केन नदी व नहर व्यवस्था से सिंचित हो रहे अनेक गांवों के लिए जल-संकट बढ़ जाएगा। बांधों के नीचे के गांवों में भी यही स्थिति होगी। जब पहले ही केन जल-व्यवस्था में नदी व नहरों में क्षेत्र की आवश्यकताओं की तुलना में पानी कम रहता है तो बहुत सा पानी नदी से बाहर भेज देने पर क्या स्थिति होगी, इसके बारे में सोचा जा सकता है।
एक नदी का पानी दूसरी नदी के पानी में मिलने से अनेक जल-जीवों के लिए ऐसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं जिनका अनुमान पहले से लगाना कठिन है। इस लिंक योजना का बहाव बुंदेलखंड की अधिकांश नदियों के प्राकृतिक बहाव से अलग है व यह प्राकृतिक व्यवस्थाओं में व्यवधान उत्पन्न करते हुए कभी बाढ़ तो कभी दलदलीकरण तो कभी सूखे की समस्या को और विकट कर सकती है।
पहले आईआईटी–कानपुर में प्राध्यापक और फिर मध्यप्रदेश शासन की ओर से ‘विक्रम साराभाई फैलो’ के रूप में सक्रिय रहे वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. भारतेंदु प्रकाश ने बुंदेलखंड के जल संकट के समाधान पर विस्तृत अध्ययन किए हैं। उन्होंने भी यही संस्तुति की है कि ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ को छोड़कर परंपरागत समृद्ध जल-संरक्षण कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जाए। प्रो. ब्रज गोपाल ने भी इस संबंध के विस्तृत अध्ययनों के आधार पर ऐसी ही राय प्रकट की थी। पूर्व मंत्री व अर्थशास्त्री डा. वाईके अलघ और पूर्व सचिव, जल संसाधन, भारत सरकार ने ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ के विरोध में राय दी है। ‘दक्षिण एशिया में नदियों व बांधों के नेटवर्क’ ‘सैन्ड्रप’ ने इस परियोजना के अनेक संभावित दुष्परिणामों के विरुद्ध ध्यान दिलाया है।
केन-बेतवा को जोडने के लिए प्रतिवर्ष जो हजारों करोड़ रुपयों का बजट है, उसे अगले कुछ वर्षों के लिए बुंदेलखंड के जल-संरक्षण के कार्यों और प्राकृतिक खेती व वनीकरण पर खर्च किया जाए तो हरे-भरे,टिकाऊ, आजीविका से मजबूत बुंदेलखंड हमारे देखते-देखते ही उभरने लगेगा। साथ में जलवायु परिवर्तन के मौजूदा दौर में इस संकट को कम करने व इससे बेहतर जूझ सकने की क्षमता भी विकसित हो सकेगी।
बुंदेलखंड में चंदेल व बुंदेल शासन-व्यवस्था के दौरान निर्मित तालाबों व अन्य जल-स्रोतों की समृद्ध परंपरा है। इसमें स्थानीय स्थितियों के अनुकूल जल-संरक्षण का उत्तम उदाहरण मिलता है जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हाल के वर्षों में इन तालाबों की श्रृंखला से सीखने के प्रयास भी हुए हैं व इस कारण इनके महत्त्व के बारे में बेहतर समझ बनी है। इसके अतिरिक्त छोटे स्तर के जल-संरक्षण कार्यों से अनेक संस्थाओं ने भी अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनसे लाभान्वित अनेक किसानों ने बताया कि उनकी आजीविका सुधारने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
समझदारी इसी में है कि ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ जैसी बाहरी तौर पर प्रचारित महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं को त्यागकर छोटे, स्थानीय स्तर के जल-संरक्षण कार्यों पर सरकार अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ का पूरी ईमानदारी से पुनर्मूल्यांकन इस समय निश्चय ही राष्ट्रीय हित में होगा व बहुत बड़ी धनराशि के निरर्थक व्यय को रोकने में इससे मदद मिलेगी। (सप्रेस)
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