वर्षा, अतिवृष्टि, नदी में उफान, नदी का अपने तट से बाहर निकलना, यह सब सामान्य प्राकृतिक घटनाएं हैं। हमें पानी के बहाव के साथ जीना सीखना होगा। बाढ़ से जुड़े ये दोनों झूठ एक बड़े सच को छुपाते हैं कि बाढ़ का मूल कारण प्रकृति नहीं बल्कि मानव है। बाढ़ के विनाश की जड़ में हमारी वह लालसा है, जिसे हम विकास कहते हैं। शहरी इलाकों में हमने नदी के प्राकृतिक बहाव के साथ इतना खिलवाड़ किया है कि उसने बाढ़ की सामान्य प्राकृतिक घटना को एक दुर्घटना में बदल दिया है।
इस साल की बाढ़ में कुछ भी अनूठा नहीं है। अगर कुछ विशेष है तो बस इतना कि इस बार बाढ़ वहां आई, जहां टी.वी. कैमरा है, जहां सत्ता के केंद्र हैं, जहां की पीड़ा देश को दिखाई और सुनाई देती है। वैसे देश में हर साल बाढ़ आती है। हर साल औसतन 1600 व्यक्ति मौत का शिकार होते हैं। असम के बड़े इलाके जलमग्न होते हैं, जान-माल और पशुधन का नुक्सान होता है। हर साल बिहार की लाखों हैक्टेयर जमीन पर बाढ़ का पानी आता है और कई बार महीनों तक टिका रहता है। उस बाढ़ की कोई सुध नहीं लेता। इस साल जब हमने बाढ़ देखने के लिए अपनी आंख खोली है, बाढ़ की विभीषिका के लिए अपना दिल खोला है तो क्या हम अपने दिमाग के दरवाजे भी खोलेंगे? इस बाढ़ से कोई सबक सीखेंगे?
आरोपों, बहानों और झूठ की बाढ़
हर बाढ़ अपने साथ आरोपों, बहानों और झूठ की बाढ़ भी लेकर आती है। इस साल चूंकि बाढ़ दिल्ली में आई, इसलिए जाहिर है आरोप और प्रत्यारोप की बाढ़ भी लाल निशान से ऊपर चली गई। क्या हरियाणा ने जानबूझकर हथिनीकुंड बैराज से जरूरत से ज्यादा पानी छोड़ा? क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री ने बाढ़ नियंत्रण की सालाना बैठक नहीं की? क्या दिल्ली सरकार ने पानी निकासी की मशीन को ठीक करवाने में कोताही बरती? क्या अफसरों ने एन.डी.आर.एफ. और फौज को बुलाने में देरी की? बाढ़ के दोषारोपण पर चल रही इस कवायद से आशंका यही है कि सारा ध्यान राजनीतिक दाव-पेंच पर सीमित हो जाएगा और बाढ़ से जुड़े बुनियादी सवाल डूब जाएंगे। एक बार फिर हम बड़े-बड़े झूठ में बह जाएंगे।
बाढ़ से जुड़ा पहला बड़ा झूठ यह है कि बाढ़ केवल एक प्राकृतिक दुर्घटना है। जब भी बाढ़ आती है, उस वक्त जो भी सरकार में होता है, वह इसी झूठ का सहारा लेता है। सच यह है कि बाढ़ कोई भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा नहीं है, जो कभी भी घट सकती है। बाढ़ का एक नियम है, कैलेंडर है, रूट है। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो हर कोई जानता है कि बाढ़ कब और कहां आ सकती है। इसलिए बाढ़ का आना अपने आप में कोई दुर्घटना नहीं है, बाढ़ से जान-माल का नुक्सान एक ऐसी दुर्घटना है, जो टाली जा सकती है।
इसका विलोम दूसरा झूठ यह है कि बाढ़ पूरी तरह से मानवीय, तकनीकी और प्रशासनिक उपायों से नियंत्रित की जा सकती है, प्रकृति के बहाव को पूरी तरह से अपने बस में किया जा सकता है। आधुनिकता के इसी अहंकार के चलते देश में जगह-जगह बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम चलाए गए, तटबंध बनाए गए, पैसे पानी की तरह बहाए गए। अमूमन इन सरकारी प्रयासों से कुछ हासिल नहीं हुआ। बिहार में कोसी नदी को तटबंध से बांधने की असफल कोशिश इस झूठ का सबसे बड़ा जीता-जागता नमूना है।
बाढ़ का मूल कारण प्रकृति नहीं बल्कि मानव
वर्षा, अतिवृष्टि, नदी में उफान, नदी का अपने तट से बाहर निकलना, यह सब सामान्य प्राकृतिक घटनाएं हैं। हमें पानी के बहाव के साथ जीना सीखना होगा। बाढ़ से जुड़े ये दोनों झूठ एक बड़े सच को छुपाते हैं कि बाढ़ का मूल कारण प्रकृति नहीं बल्कि मानव है। बाढ़ के विनाश की जड़ में हमारी वह लालसा है, जिसे हम विकास कहते हैं। शहरी इलाकों में हमने नदी के प्राकृतिक बहाव के साथ इतना खिलवाड़ किया है कि उसने बाढ़ की सामान्य प्राकृतिक घटना को एक दुर्घटना में बदल दिया है।
पानी के सवाल पर बरसों से विश्वसनीय शोध कर रहे हिमांशु ठक्कर और उनकी संस्था ‘साऊथ एशियन नैटवर्क ऑन डैम, रिवर एंड पीपल’ (एसएएनडीआरपी) ने दिल्ली में पिछले हफ्ते आई बाढ़ का प्रारंभिक विश्लेषण किया है, जो इस सच की पुष्टि करता है। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस बार यमुना की बाढ़ का प्रमुख कारण अकस्मात हुई भारी बारिश नहीं। सबसे अधिक बारिश उत्तरप्रदेश के उन जिलों में हुई, जिनका पानी यमुना में नहीं पहुंचता है। न ही हथिनीकुंड बैराज से छोड़ा पानी इसके लिए जिम्मेदार है। इस बार 11 जुलाई को बैराज से 3.6 लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया था, जबकि 2010, 2013, 2018 और 2019 में एक दिन में इससे कहीं ज्यादा पानी छोड़ा गया था। यूं भी दिल्ली पहुंचने से पहले वाले पांच मॉनिटरिंग सैंटरों में कहीं भी यमुना खतरे के निशान से ऊपर नहीं पहुंची थी।
यह रिपोर्ट इस बाढ़ के लिए मुख्यत: मानवीय दखल को जिम्मेदार मानती है। इसमें सबसे प्रमुख कारण है यमुना के आसपास के उस खुले इलाके पर कब्जा, जिसे दिल्ली में यमुना खादर क्षेत्र कहा जाता है और तकनीकी भाषा में “फ्लडप्लेस” कहते हैं। दिल्ली में यमुना के 9700 हैक्टेयर के खादर क्षेत्र में से 1000 हैक्टेयर से ज्यादा भूमि पर पर्यावरण के नियमों का उल्लंघन कर पक्की इमारतें बना दी गई हैं। इनमें कॉमनवैल्थ खेलग्राम (64 हैक्टेयर), अक्षरधाम मंदिर (100 हैक्टेयर) और मैट्रो डिपो (110 हैक्टेयर) शामिल हैं। इसके अलावा दिल्ली में यमुना पर 26 ब्रिज और 3 बैराज बनाए गए हैं। इन सब के चलते दिल्ली में पहुंचते ही यमुना के पानी के पास फैलने की जगह नहीं बचती और बरसाती पानी का सामान्य उफान एक मानवीय दुर्घटना में बदल जाता है।
नदी बचेगी, जीवन बचेगा
दिल्ली का शहरी विकास इस स्थिति को और भी विकट बनाता है। शहरीकरण के चलते दिल्ली के तालाब और जोहड़ नष्ट हो गए हैं, बारिश का पानी भूजल तक नहीं पहुंचता, बरसाती नाले अब गंदगी के सीवेज बन गए हैं और इस गंदगी को यमुना में छोडऩे के चलते नदी की तलहटी ऊंची हो गई है। इस परिस्थिति के चलते सामान्य से कुछ अधिक बारिश और सरकारी प्रबंधन की छोटी कोताही भी एक बड़ी दुर्घटना का स्वरूप ले लेती है। यह कोई नई बात नहीं है। यमुना बचाने के अभियान की तरफ से द्विजेंद्र कालिया पिछले 3 दशक से इस खतरे को बार-बार चिन्हित करते रहे हैं।
गांधीवादी कार्यकर्त्ता रमेश चंद शर्मा ने दिल्ली की इस बाढ़ के सबक को इस तरह व्यक्त किया: ‘‘यमुना रौद्र रूप में संदेश दे रही है कि उसका खादर क्षेत्र लौटाया जाए। जो क्षेत्र में दैत्य खड़े किए गए हैं उन्हें हटाओ। मां को मां ही रहने दो, कचरा पेटी मत बनाओ। नदी क्षेत्र खादर को मुक्त करो। नदी आजादी मांग रही है। नदी बचेगी, जीवन बचेगा। संदेश नहीं सुनेंगे तो पश्चाताप करते हुए भुगतना पड़ेगा।’’ जो सबक हमें असम और बिहार से सीख लेना चाहिए था, उसे क्या हम अब दिल्ली से सीखेंगे? (सप्रेस)
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