बरसों से नदी-जोड़ परियोजना का सपना देखने वालों को अब देश के तीस उत्कृष्ट विद्वान पर्यावरणविदों की चुनौती मिली है। इस योजना के तहत काटे जाने वाले जंगल तथा पेड़ों से वन्य-जीवन, जैव-विविधता तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव निश्चित रूप से होगा। पानी का वाष्पीकरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, परंतु बढ़ते ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के प्रभाव से नदियों, बांध जलाशय एवं लिंक नहर आदि से वाष्पीकरण अधिक होगा एवं जल की मात्रा घटेगी।
इस वर्ष ‘विश्व जल दिवस’ (22 मार्च) पर देश की पहली नदी-जोड़ परियोजना का प्रारंभ करने के करार पर मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने हस्ताक्षर कर स्वीकृती प्रदान की। इस योजना की लागत 35 से 45 हजार करोड़ रूपये बतायी गयी है, परंतु 65 हजार करोड़ का व्यय सम्भावित है। योजना के पूरा होने का समय भी 8 से 10 वर्ष बताया गया है, परंतु भूमि अधिग्रहण की समस्या, विस्थापन एवं पुर्नवास के कार्य एवं पर्याप्त राशि की उपलब्धता आदि कारणों से इसके पूरा होने में 20-25 वर्ष भी लग सकते हैं। इस योजना में मध्यप्रदेश के पन्ना के निकट से केन नदी से पानी उठाकर उत्तरप्रदेश में झांसी के पास बेतवा नदी में डाला जाएगा। परियोजना के तहत मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के गांव दौधन में 77 मीटर ऊंचा बांध और 220 किलोमीटर लंबी लिंक नहर बनाई जाएगी।
इस योजना में पन्ना जिले की 9000 हेक्टर भूमि डूब में आयेगी, जिसमें सबसे ज्यादा क्षेत्र (5258 हेक्टर) वनभूमि का है। योजना के सभी कार्यो के लिए 18 लाख पेड़ काटे जाने की सम्भावना है, कहीं पर यह संख्या 21 लाख भी बतायी गयी है। ‘नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी’ ने 105 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ में बाघों के रहवास को इस योजना से प्रत्यक्ष हानि होने की बात कही थी एवं साथ ही इस क्षेत्र में बसे गिद्ध, चील एवं अन्य पक्षियों पर विपरीत प्रभाव होना भी बताया था। पूर्व ‘केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री’ जयराम रमेश ने भी आशंका जतायी थी कि इससे ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ प्रभावित होगा। उन्होंने वर्ष 2010 में इसके कुछ विकल्प भी सुझाए थे, परंतु उन पर ध्यान नहीं दिया गया। ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ को होने वाली हानि की भरपाई हेतु दोनों राज्यों में तीन ‘राष्ट्रीय उद्यान’ बनाने हेतु केंद्र सरकार से कहा गया है। पार्क निर्माण का कार्य दोनों राज्यों को योजना प्रारंभ करने के पूर्व करना होगा।
इस योजना से जो लाभ बताये गये हैं, उनमें प्रमुख है – मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश की 10.62 लाख हेक्टर जमीन में सिंचाई, किसानों को 2-3 फसल पैदा करने में लाभ, मछली पालन को बढ़ावा, जलस्तर एवं जलस्त्रोतों में सुधार, सूखे बुंदेलखंड की 70 लाख आबादी को राहत एवं रोजगार का निर्माण आदि। प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि इस योजना से लाभ आने वाली कई पीढ़ियों को मिलते रहेंगे। किसी भी योजना के लाभ प्रारंभ में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताए जाते हैं, परंतु उन्हें यथावत धरातल पर उतारना काफी कठिन होता है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि योजना के प्रारंभ में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय परिस्थितियां जैसी रहती हैं, वे योजना के अंत तक वैसी ही नहीं रह पातीं। परिस्थितियों में आए बदलावों से लाभों का सारा गणित गड़बड़ा जाता है। परिस्थितियों में आये इस बदलाव के कारण देश की कई सिंचाई परियोजनाएं विफल या कम लाभप्रद रहीं।
इस योजना से जो लाभ बताये गये हैं वे भविष्य में मिलना तभी संभव है जब दोनों नदियों में पानी की मात्रा यथावत रहे, उनकी उप-नदियां तथा सहायक-नदियां जीवंत एवं प्रदूषण मुक्त रहें, जलागम क्षेत्र सुरक्षित रहे एवं गाद या तलछट का जमाव न्यूनतम हो।
केन-बेतवा नदी-जोड परियोजना के संदर्भ में देश के 30 पर्यावरणविदों ने मई 2017 को ‘केंद्रीय पर्यावरण एवं वनमंत्री’ को एक पत्र लिखकर बताया था कि इन दोनों नदियों में जल की मात्रा की बुनियादी जानकारी वैज्ञानिक आधार पर उलपब्ध नहीं है, तो फिर कैसे माना जाए कि यह योजना लाभकारी होगी? बुंदेलखंड के जल-संसाधनों पर विस्तृत एवं गहन अध्ययन कर्ता डाक्टर भारतेंदु प्रकाश, नदी-जोड़ परियोजना के जानकर हिमांशु ठक्कर तथा भारत सरकार के पूर्व सचिव रहे इंजीनियर एएस सरमा आदि पत्र लिखने वालों में प्रमुख हैं। ‘केन्द्रीय जल-संसाधन, नदी-विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय’ ने भी वर्ष 2017 तक यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया था कि इस योजना का पर्यावरण एवं परिस्थिकी पर क्या प्रभाव होगा।
इस योजना के तहत काटे जाने वाले जंगल तथा पेड़ों से वन्य-जीवन, जैव-विविधता तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव निश्चित रूप से होगा। पानी का वाष्पीकरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, परंतु बढ़ते ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के प्रभाव से नदियों, बांध जलाशय एवं लिंक नहर आदि से वाष्पीकरण अधिक होगा एवं जल की मात्रा घटेगी। यह घटी मात्रा लाभों को भी घटायेगी। तापमान बढ़ने से भूमि की नमी भी कम होगी जिससे सिंचाई में ज्यादा पानी लगेगा। जनसंख्या में वृद्धि से पेयजल खपत भी बढ़ेगी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वर्तमान में ‘ग्लोबल वार्मिंग,’ जलवायु परिवर्तन, मौसम में बदलाव एवं सरकारों का जंगल, पेड़ व प्रदूषण नियंत्रण आदि की तरफ रूख एवं नीतियों से इस योजना के लाभ लोगों को यथावत मिलना संभव नहीं लगता। (सप्रेस)
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