उत्तर-पूर्व का राज्य मेघालय एक जमाने में अपनी खूबसूरती और भारी वर्षा के कारण विख्यात था, लेकिन अब, दुनिया के ऐसे ही दूसरे इलाकों की तरह, खनन, जल-विद्युत परियोजनाओं और कथित विकास की चपेट में आकर बर्बाद होता जा रहा है।
19 जनवरी को मेघालय के जंगलों में ईस्ट जयंतिया पहाडी पर गैरकानूनी रूप से कोयला खोद रहे छह लोग मारे गए। ये सभी असम के करीमगंज जिले के थे। दुखद है कि जिन खदानों के संचालन पर सुप्रीम कोर्ट व ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ (एनजीटी) रोक लगा चुके हैं, वे बार-बार मौत की खदानें बन रही हैं। किसी को शायद ही याद हो कि 13 दिसंबर 2018 को शिलांग से कोई 80 किलोमीटर दूर जयंतिया हिल्स की लुमथारी गांव की ‘रैट होल माईन’ में अवैध रूप से कोयला खनन करते समय 15 नाबालिग मजदूर फंस गए थे। उनको निकालने के ऑपरेशन में उडीसा और बंगाल की सरकारें, ‘आपदा प्रबंधन विभाग’ और भारतीय नौसेना ने डेढ महीना आपरेशन चलाया था और तीन लोगों के अलावा बाकी के शव भी नहीं मिले थे। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने गया था व तब उजागर हुआ था कि 14 अप्रैल 2014 को ‘एनजीटी’ यहां पर हर तरह के खनन पर पाबंदी लगा चुका है।
यह समझना जरूरी है कि इस तरह से कोयला निकालना मानव जीवन के लिए तो मौत के मुंह में ढकेलने जैसा है ही, इससे इतने खूबरसूरत राज्य की हवा, जंगल और नदियां भी कराह रही हैं। सुप्रीम कोंर्ट की कड़ी फटकार और ‘एनजीटी’ के कई आदेशों के बावजूद मेघालय की जयंतिया पहाड़ियों पर खतरनाक तरीके से कोयला निकालने की ‘चूहे के बिल’ जैसी खदानों में रक्त से सने कोयले को निकालने का काला खेल जारी रहना बानगी है कि हमारे तंत्र में नियम को तोड़ने वाले लोगों का पैठ गहरी है। पूर्वी-जयंतिया के खलिहेराईट के बाहरी क्षेत्रों में रायमबाई, मूपाला, लेतिरके, दखिया आदि गांवों में टनों कोयला खुले में पड़ा है और अंधेरा होते ही उनका परिवहन शुरू हो जाता है। जनवरी-2019 में मेघालय की स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत रिपोर्ट के प्रत्येक शब्द भ्रष्टाचार, अराजकता, इंसान की जिंदगी पर पैसे की होड़ की घिनौनी तस्वीर प्रस्तुत करता है। रिपेार्ट बताती है कि ‘एनजीटी’ द्वारा पाबंदी लगाने के बाद भी 65 लाख 81 हजार 147 मीट्रिक टन कोयले का खनन कर दिया गया।
मेघालय एक पर्वतीय क्षेत्र है और दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात वाला इलाका कहलाता है। यहां छोटी-छोटी नदियां व सरिताएं है जो यहां के लोगों के जीवकोपार्जन के लिए फल-सब्जी व मछली का साधन होती हैं। मेघालय राज्य जमीन के भीतर छुपी प्राकृतिक संपदाओं के मामले में बहुत संपन्न है। यहां चूना है, कोयला है और यूरेनियम भी है। शायद यही नैसर्गिक वरदान अब इसके संकटों का कारण बन रहा है। सन 2007 में ही जब पहली बार लुका व मिंतदु नदियों का रंग नीला हुआ था, तब 2012 में इसकी जांच ‘मेघालय राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ ने की। उसकी रिपोर्ट में इलाके में जल प्रदूषण के लिए कोयला खदानों से निकलने वाले अम्लीय अपशिष्ट और अन्य रासायनिकों को जिम्मेदार ठहराया गया था।
जान लें कि राज्य में प्रत्येक एक वर्ग किलोमीटर में 52 ‘रैट होल’ खदानें हैं। अकेले जयंतिया हिल्स पर इनकी संख्या 24,626 है। असल में ये खदानें दो तरह की होती हैं। पहली किस्म की खदान बमुश्किल तीन से चार फीट की होती है। इनमें श्रमिक रेंग कर घुसते हैं। साईड कटिंग के जरिए मजूदर को भीतर भेजा जाता है और वे तब तक भीतर जाते हैं जब तक उन्हें कोयले की परत नहीं मिल जाती। सनद रहे मेघालय में कोयले की परत बहुत पतली हैं, कहीं-कहीं तो महज दो मीटर मोटी। इसमें अधिकांश बच्चे ही घुसते हैं। दूसरे किस्म की खदान में आयाताकार आकार में 10 से 100 वर्गमीटर में जमीन को काटा जाता है और फिर उसमें 400 फीट गहराई तक मजदूर जाते हैं। यहां मिलने वाले कोयले में गंधक की मात्रा ज्यादा है और इसे दोयम दर्जे का कोयला कहा जाता है। यहां कोई बड़ी कंपनियां खनन नहीं करतीं और स्थानीय रसूखदार लोग बांग्लादेश, नेपाल या असम से आए अवैध घुसपैठियों को मजदूर के रूप में यहां खपाते हैं।
सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि कोयले की कालिख राज्य की जल-निधियों की दुश्मन बन गई हैं। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिल कर बनी है, इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक की उच्च मात्रा, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्रा, पानी में आक्सीजन की कमी पाई गई है। ठीक यही हालत अन्य नदियों की भी है जिनमें सीमेंट कारखाने या कोयला खदानों का अवशेष आ कर मिलता है। लुनार नदी के उदगम स्थल सुतुंगा पर ही कोयले की सबसे ज्यादा खदाने हैं। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जयंतिया पहाड़ियों के गैर-कानूनी खनन से कटाव बढ़ रहा है। नीचे दलदल बढ रहा है और इसी के चलते वहां मछलियां कम आ रही हैं। ऊपर से जब खनन का मलवा इसमें मिलता है तो जहर और गहरा हो जाता हें। मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से ले कर ‘एनजीटी’ तक सभी विफल हैं। समाज चिल्लाता है, गुहार लगता है और स्थानीय निवासी आने वाले संकट की ओर इशारा भी करते हैं, लेकिन स्थानीय निर्वाचित स्वायत्त परिषद खदानों से ले कर नदियों तक निजी हाथों में सौंपने के फैसलों पर मनन नहीं करती है। अभी तो मेघालय से बादलों की कृपा भी कम हो गई है, चेरापूंजी अब सर्वाधिक बारिश वाला गांव रह नहीं गया है, यदि नदियां खो दीं तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन भी संकट में होगा। (सप्रेस)
[block rendering halted]