सुदर्शन सोलंकी

मानसून आते ही बादल फटना आजकल आम है। भारी मात्रा में कम समय की ये तेज वर्षा बाढ़, भू-स्खलन और बिजली गिरने की वजह बनती है। विडम्बना यह है कि आसमानी पानी के ये करतब इंसानी कारनामों के नतीजे में होते हैं। आखिर क्यों होती हैं, ऐसी प्राकृतिक आपदाएं?

मानसून में होने वाली तेज बारिश अब बाढ़ में बदलने लगी है। विशेषज्ञों के अनुसार बारिश की मात्रा में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है, किन्तु मानसून का पैटर्न बदल गया है। मानसून के आते ही देश के कई हिस्सों में बादल फटने, बाढ़ आने, बिजली गिरने व भूस्खलन जैसी घटनाएं होने से भारी तबाही होने लगी है। इन सब का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन है जिसकी वजह से मौसम पैटर्न में बदलाव हुआ है, साथ ही ग्लेशियरों का पिघलना व समुद्र के जलस्तर का बढ़ना इत्यादि के कारण अब कम बारिश में भी बाढ़ आने की समस्या बढ़ती जा रही है।

‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ के अनुसार भारत के 3290 लाख हेक्टेयर के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से 400 लाख हेक्टेयर से अधिक हिस्सा बाढ़ ढलान वाला है। हाल ही में देश के कई राज्यों में बारिश ने तबाही ला दी जिसमें कई लोग अपनी जान गंवा बैठे। हालांकि देश के कुछ हिस्से में बारिश औसत से भी कम रहती है। वहीं वर्ष 2016-17 में 1550, वर्ष 2017-18 में 2494, वर्ष 2018-19 में 2045 व वर्ष 2019-20 में 1330 लोग बाढ़ की वजह से मारे गए थे।

‘भारतीय मौसम विभाग’ के अनुसार वर्ष 2020 में देश के कई क्षेत्रों में भारी वर्षा और बाढ़ से सम्बंधित घटनाओं में 600 से अधिक लोगों की मौतें हुई हैं।

कई अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर के कई क्षेत्रों में बादल फटने की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है। हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने की सबसे अधिक घटनाएँ देखी जा रही हैं, क्योंकि हिमालयी क्षेत्र में ‘दशकीय तापमान वृद्धि’ ‘वैश्विक तापमान वृद्धि’ की दर से अधिक है। हाल ही में किए गए एक मॉडलिंग अध्ययन से भी पता चला है कि भारत के पूर्वोत्तर में हवा में ‘ब्लैक-कार्बन’ की बढ़ती मात्रा बारिश बढ़ा रही है। इससे कुछ जगह कम तीव्रता वाली बारिश घट गई और मूसलाधार बारिश में वृद्धि हुई है। ‘ब्लैक-कार्बन’ एक तरह का वायु प्रदूषक है जो जीवाश्म ईंधन, बायोमास और अन्य प्राकृतिक स्रोतों से वायुमंडल में आता है। कार्बन डाई-ऑक्साइड के बाद ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों को बढ़ाने में यह भी जिम्मेदार है।

‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आने की संभावना है। अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के स्तर में बढ़ोतरी होगी। ‘भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरू’ और ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर’ के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में बताया है कि हाल के वर्षों में गंगा बेसिन में विनाशकारी भूस्खलन और बाढ़ की आवृत्ति बढ़ी है। जलवायु परिवर्तन और बाँध बनाने जैसी मानव गतिविधियां गंगा को प्रभावित कर रही हैं।

भारत सरकार के ‘पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय’ के अनुसार वर्ष 1901 से 2018 के बीच भारत में सतही हवा के तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है जिसके कारण वायुमंडलीय नमी में भी वृद्धि हुई है। वर्ष 1951 से 2015 के बीच हिन्द महासागर में समुद्र की सतह के तापमान में भी करीब 1 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हुई है। इस तरह से वायुमंडल में असामान्य बढ़ोतरी का प्रभाव मानसून के पैटर्न पर हो रहा है जो बाढ़ या प्राकृतिक आपदा के रूप में देखने को मिल रहा है। बाढ़ आने की अन्य वजहें – नदियों को बाधित करना, प्राकृतिक जल-निकासी रास्तों को बंद करना, तालाबों के निर्माण की जगह पक्की सड़कों का निर्माण करना इत्यादि हैं। वर्ष 2013 में उत्तराखंड में विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें करीब 6000 लोगों कि मौत हो गयी थी। इतनी अधिक संख्या में मौतों का कारण पनबिजली परियोजनाएं रही थी। भारी बारिश व बाढ़ की बढ़ती आवृत्ति को देखते हुए इससे बचने के लिए वर्षा जल की निकासी के कारगर उपाय करने चाहिए। नदियों पर होने वाले अतिक्रमण को रोकना व इनमें कूड़ा-कचरा डालकर इन्हें अवरुद्ध होने से बचाने जैसे उपाय बाढ़ को कम कर सकते हैं। पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को कम करके जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित कर ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर के पिघलने एवं समुद्र के जल स्तर को बढ़ने से रोका जा सकता है जिससे की मौसम पैटर्न भी सही होगा एवं बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में कमी हो सकेगी। (सप्रेस)

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