दिल्ली में नकली केदारनाथ धाम खड़ा करने के मंसूबे बांधने वाले हमारे समाज को ग्यारह साल पहले उत्तराखंड के असली केदारनाथ धाम में हुई भीषण त्रासदी कितनी याद है? क्या तीर्थाटन को मौज-मस्ती के पर्यटन में तब्दील करते लाखों-लाख कथित तीर्थ-यात्रियों ने केदार घाटी की विपदा से कुछ सीखा है? आज एक दशक से ज्यादा गुजर जाने के बाद वहां की क्या हालत है?
उत्तराखंड की 16 -17 जून 2013 की आपदा को हर समय याद किया जायेगा। इस जल-प्रलय में लगभग एक हजार स्थानीय लोगों के साथ मृतकों की संख्या करीब 6 हजार थी। रामबाड़ा, तिलवाड़ा, अगस्तमुनि, गुप्तकाशी में भारी नुकसान हुआ था। 4200 गांव प्रभावित हुये थे। इसके बाद जीवट वाले लोग सालों-साल केदारनाथ में ही रहकर बर्फीले तूफानों में पुनर्निर्माण करते रहे हैं। 2014 में ऐसी हवाई-पट्टी भी बनी जहां भारतीय वायुसेना का विशालकाय भारवाहक हेलीकॉप्टर उतर सकता था, किन्तु स्थानीय प्रकृति और पारिस्थितिक पुनर्निर्माण के कार्य, जो साथ होने थे, वे न हुये न हो रहे हैं। उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता भी नहीं है।
तभी तो 30 जून 2024 को प्रातः लगभग पांच बजे मंदिर परिसर से पांच किलोमीटर दूरी पर ‘गांधी सरोवर’ में जो हिमस्खलन हुआ था और जिसे वहां उपस्थित श्रध्दालुओं ने बर्फ के पहाड़ का अचानक भरभराना बताया था, उसे इस क्षेत्र के लिये सामान्य बता दिया गया। सन् 2022, 2023 में भी ऐसा ही हुआ था और तब भी इसे सामान्य बता दिया गया था। जब ऐसी अवांछित अनहोनियां होती हैं तो मनोवैज्ञानिक रूप से सहमे लोग, आगे फिर कुछ ऐसा ही न घट जाये, की आशंका में जीते रहते हैं। केदारधाम के संदर्भ में आप मानें, न मानें अधिकांश स्थानीय जन आज भी सांस रोके रहते हैं।
पहले जब देवभूमि के आस्थावान व ‘उत्तराखंड राज्य निर्माण’ के आन्दोलनकारी भोग-विलास वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन व तीर्थाटन को बढ़ावा न देने के लिए चेताते थे तो कोई नहीं सुनता था, परन्तु जून 2013 की आपदा के बाद स्थानीय लोग ही, जिनमें व्यवसायी भी थे, कहते हुए मिल रहे थे कि यह तो होना ही था। जो कुछ तीर्थ-क्षेत्रों में नहीं होना चाहिए था, उसको भी करने में यहां परहेज नहीं होता था।
यदि हम समस्याओं की जड़ में जाये बिना ‘ऐसा ही होता है’ कहने पर आ जायें तो भूस्खलनों के समय, जंगल की आग के समय, फ्लैश-फ्लड्स के मामलों में भी कह देंगे कि यह तो होता ही है। न भूलें, पूरे विश्व की चिंता जलवायु बदलाव के दौर में हिमालयी ग्लेशियरों में आये संकट की है। पश्चिमोत्तर हिमालय में 1991 के बाद औसत तापमान 0.66 सेंटीग्रेड बढ़ गया है। हिमालयी ग्लेशियरों की पिघलने की दर दुगुनी हो गई है। ये भी न भूलें कि भारी बरसात में अभी 30 जून की आपदा में करीब 7 किमी लम्बाई के चोरबाड़ी ग्लेशियर में 3865 मीटर्स की ऊंचाई पर स्थित चोराबाड़ी झील, जिसे ‘गांधी सरोवर’ कहा जाता है, अपनी परिधि में टूट गई थी। इसके भारी मलबे व अथाह जलराशि ने केदारनाथ धाम को अपनी चपेट में लिया था।
चोरबाड़ी ग्लेशियर के स्नौटों से ही चोराबाड़ी झील के साथ मंदाकिनी नदी का स्त्रोत भी बनता है। बढ़े हिम पिघलाव व बहाव से मंदाकिनी जगह-जगह विकराल होती गई। कहीं-कहीं इसका जल-स्तर 15 मीटर्स तक भी चढ़ गया था। पहले समस्त केदारघाटी में 2013 की भयावह आपदा आई थी, आज हालात पहले से भी ज्यादा खराब हैं। लाखों की संख्या में हर सीजन में तीर्थयात्री पहुंच रहे हैं। उनकी उपस्थिति और गतिविधियां ‘हीट-आइलैंड’ न बनायेंगी ये भी तो नहीं कहा जा सकता। दिन भर की सौ से ज्यादा हेलीकॉप्टर उड़ानें केदारनाथ अभयारण्य के वन्य जीवों व ग्लेशियरों की ताजा बर्फ में भी कम्पन पैदा करती हैं। ऐसा लगता है कि 2013 की आपदा से हमने कुछ सीखा नहीं, उल्टे केदारपुरी को सुविधायुक्त भव्यता वाला कस्बा बनाकर ही भुलाना चाहते हैं।
हम सामाजिक पुनर्वास और आपदाग्रस्त ग्रामीण समुदायों के पुनर्निर्माण में भी चूके हैं। 2013 की आपदा के बाद चमोली, रूद्रप्रयाग जिलों के गहन मैदानी अध्ययनों में उभरकर आया था कि आपदाओं के कुप्रभाव कम-से-कम हों उसके लिये सरकार व आम जन को अपनी कार्यशैलियों व सोच में बदलाव लाना होगा, पर ये बातें ज्यादा दिन न रह पाईं। यह ‘शमशान वैराग्य’ जैसा था। ये वो बातें हैं, जिन्हें सामाजिक कार्यकर्ता या विशेषज्ञ पहले कहते थे, तो कोई ध्यान नहीं देता था।
छिन्न-भिन्न आजीविका को पटरी पर लौटाने के लिए क्या कार्यक्रम लिये जायें ये जानने के लिए आज भी यदि आप आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जायें तो एक स्वर से सुनेंगे कि हम ऐसी आजीविका अपनाना चाहते हैं, जो केवल तीर्थयात्रियों के भरोसे न हो। मौसम की मार या कोरोना जैसी महामारियां स्थानीय लोगों के नियंत्रण में तो नहीं ही हैं। ऐसे में यात्रा-काल में मौसम क्या गुल खिलायेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे भी बे-मौसम बर्फबारी होती रही है।
स्थानीय लोग यात्रा-सीजन में इतना कमाने का भरोसा रखते थे, जो उन्हें बाकी वर्ष के लिए पर्याप्त रहे, किन्तु 2013 की आपदा में खच्चरों को गंवा चुका खच्चर वाला भी फिर से खच्चर लेने के पहले इसका भी हिसाब-किताब कर रहा था कि उसके खच्चरों के लिए आसपास में ही कितना काम मिल पायेगा। अन्यथा यात्रियों के भरोसे न रहकर वह कोई दूसरा काम करने की सोच रहा था।
दुखद स्थितियों में तब केदार क्षेत्र के कई परिवारों को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई थी, इसलिए उन्होंने आजीविका के उन्हीं कार्यो को अपनाना पसन्द किया था जिनमें उन्हें बाहर न जाना पड़े। गाय-भैंस पालन, टेलरिंग, बागवानी, दुकान चलाने जैसे काम उन्होंने अपनाये थे। इनको दक्षता देने व इनके समूह बनाने के जो काम होने चाहिए थे, वे नहीं हुये, क्योंकि वे परियोजनाओं पर निर्भर थे। आपदा राहत की तात्कालिक परियोजनायें जब खत्म हुईं तो वो भी खत्म हो गईं।
इसी प्रकार पहले जब देवभूमि के आस्थावान व ‘उत्तराखंड राज्य निर्माण’ के आन्दोलनकारी भोग-विलास वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन व तीर्थाटन को बढ़ावा न देने के लिए चेताते थे तो कोई नहीं सुनता था, परन्तु जून 2013 की आपदा के बाद स्थानीय लोग ही, जिनमें व्यवसायी भी थे, कहते हुए मिल रहे थे कि यह तो होना ही था। जो कुछ तीर्थ-क्षेत्रों में नहीं होना चाहिए था, उसको भी करने में यहां परहेज नहीं होता था। 2013 में कई स्थानीय व्यवसायी खुद अपने व्यवसायिक आचरण को सवालों के घेरे में रखने से नहीं हिचकिचाये थे। प्रतिबंधित पदार्थों की खेपें आज भी क्षेत्र में पकड़ी जाती हैं। तीर्थयात्रा में पर्यटन का कोण आज और भी ज्यादा बढ गया है।
पिछली आपदा ने मजबूरन लोगों को इस तथ्य को भी देखने को मजबूर किया है कि जहां-जहां नदियों के तटों पर अतिक्रमण हुआ और जहां-जहां सड़कों व परियोजनाओं का मलबा पड़ा, वहां-वहां नदियों ने विनाश भी किया व अपनी राह भी बदली। अतः एक तरफ तो नदियों को उनकी जमीन लौटाने व उनके अविरल बहने के पक्ष में और दूसरी तरफ मशीनों से मनमानी, पहाड़ों को अस्थिर करने वाली कटानों के विरूध्द जनमत बना है।
वैकल्पिक जंगल के रास्तों, पैदल मार्गों को ढूंढने, उनको मजबूत करने, जलस्त्रोतों को पुनः संरक्षित करने, पलायन रोकने, यात्रियों की संख्या सीमित करने, उनको पंजीकृत करने, मौसम की चेतावनी पर यात्रा को सीमित करने के सरकार के आज होते काम भी आपदा से मजबूरी में ली गई सीख ही मानी जा सकती है। खेद है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कम-से-कम हवाई पटिटयों की बाढ़ लाने में सरकार परहेज नहीं कर रही है। भारी सीमेंट कांक्रीट, इस्पात के निर्माण से सरकार परहेज नहीं कर रही है। इनसे स्थानीय स्तर पर कुछ लाभ नहीं होने वाला, उल्टे जमीन व पर्यावरण को खतरे बढ़ेंगे ही। जरूरत है, आधुनिक तीर्थधामों को पर्यटन स्थल बनाने के सपने जमीन पर उतारने की बजाए 2013 की केदार त्रासदी के बाद जो टिकाऊ विकास की चाह आम प्रभावित स्थानीयों में उपजी थी, उसको जमीन पर उतारा जाये। हिमालयी क्रंदन को अरण्य रोदन होने से बचायें। (सप्रेस)