‘पेसा कानून’ के पारित होने की करीब चौथाई सदी बीत जाने के बाद अब जाकर मध्यप्रदेश में उसे लागू करने के लिए नियम बनाए जा रहे हैं। विडंबना यह है कि इन नियमों में अनेक विसंगतियां हैं। मसलन- जिस ग्रामसभा को ‘पेसा’ में सर्वाधिक महत्व दिया गया है, उसे प्रशासनिक अधिकारियों के मातहत लाया जा रहा है।
ब्रिटिश सरकार तक के शिकंजे से जो आदिवासी समाज मुक्त रहा, उसे आजादी के बाद की व्यवस्था ने जकङ लिया है। नतीजे में आजीविका तथा सम्मान से जीने का अधिकार छिन जाने से उत्पन्न असंतोष ने आदिवासी इलाकों को अशांत बना दिया है, जबकि संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में शासन और प्रशासन पर नियंत्रण तक की बात कही गई है। मतलब इन क्षेत्रों में आम, सामान्य कानून लागू नहीं होंगे और स्वशासन के लिए ग्रामसभा को मान्यता दी जाएगी। राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया कि राज्य की ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ की सलाह पर आदिवासियों के कल्याण की दृष्टि से वे किसी भी कानून को रद्द कर सकते हैं, हालांकि इस प्रावधान का किसी भी राज्यपाल ने आज तक उपयोग नहीं किया है।
आदिवासी क्षेत्रों में पंचायती राज संस्थाओं को ग्रामीण आबादी की सहमति से चलाने के लिए ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम –1996’ यानि ‘पेसा कानून’ 24 दिसम्बर 1996 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित होकर लागू हुआ था। कानून की धारा 4(घ) में ग्रामसभा की सामाजिक परम्परा और अस्मिता को बनाये रखने की स्वयं-सिद्ध क्षमता को स्वीकार किया गया है। ग्रामसभा को इन प्रावधानों की धारा 4(ङ) के तहत हर तरह के विकास कार्यो की मंजूरी और लाभार्थियों का चयन, 4(च) के तहत खर्चे का प्रमाण-पत्र और 4(झ) के तहत भू-अर्जन के पहले परामर्श के महत्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं, परन्तु कुछ दूसरे मामलों में धारा 4( ड) के तहत विधान-मंडल को कानून बनाना है। इनमें लघुवनोपज की मालिकी और मद्धनिषेध आदि शामिल हैं।
पंचायती राज व्यवस्था राज्य का विषय है इसलिए इस केन्द्रीय कानून को लागू करने के लिए राज्य सरकारों को नियम बनाने और कुछ कानूनों में ‘पेसा कानून’ के अनुरूप संशोधन करने हेतु कार्यवाही करना थी। मध्यप्रदेश सरकार ने अपने कुछ कानून, जैसे – ‘साहूकार अधिनियम,’ ‘भू-राजस्व संहिता,’ ‘आबकारी अधिनियम’ आदि का ‘पेसा’ के साथ अनुकूलन किया है, किन्तु वन, भूमि, न्याय सबंधी कानूनों का ‘पेसा’ के साथ अनुकूलन नहीं हुआ है। संविधान के भाग (10) के आलोक में मध्यप्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में वन-प्रबंधन में ग्रामसभा का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए ‘भारतीय वन अधिनियम– 1927’ में बदलाव आवश्यक है। इस कानून में पर्यावरण, जैव-विविधता, वनौषधि और आदिवासी समाज की आवश्यकताओं जैसे तत्वों का कोई स्थान नहीं है।
‘पेसा कानून’ को लागू करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने 25 वर्षो बाद जो ड्राफ्ट नियम बनाए हैं वे विसंगतियों से भरे हैं। हाल में समाचार-पत्रों में खबर आई थी कि ड्राफ्ट नियम में ग्रामसभा को कमजोर कर कलेक्टर को अधिकार दिए गए हैं। इस समाचार के संदर्भ में ‘पेसा कानून’ ड्राफ्ट नियम के अध्ययन से पता चलता है कि ‘मध्यप्रदेश पंचायतराज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम–1993’ के प्रावधानों को इसमें समाहित कर दिया गया है, जो ‘पेसा कानून’ की मंशा के विपरीत है। इसे कुछ ड्राफ्ट नियम की कंडिकाओं से समझा जा सकता है।
‘मध्यप्रदेश पंचायतराज एवं स्वराज अधिनियम – 1993’ में अनुसूचित क्षेत्रों की ग्रामसभाओं की शक्ति और कृत्य का उल्लेख भर किया गया है, जबकि ‘पेसा कानून’ की धारा 4(ङ) में ग्रामसभा के अधिकार और कृत्य का विस्तार से उल्लेख है, हालांकि इस प्रावधान को नियमों में समाहित नहीं किया गया है। सामुदायिक संसाधन क्षेत्र को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि भू – भागीय क्षेत्र में जल, भूमि, वन, खनिज और अन्य संसाधन होंगे, जबकि गांव लोगों का स्वाभाविक रहवास है जिसकी भौगोलिक सीमाएं परम्परा से चली आ रही हैं। अपनी व्यवस्था स्वयं करने के प्रयोजन के लिए गांव का क्षेत्र विस्तार, उसकी औपचारिक सीमाएं (भू- भागीय क्षेत्र) न होकर उसकी पारम्परिक सामाजिक सीमाओं तक है।
प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि ग्रामसभा उसके प्रबंधन में भूमिका निभाएंगी, जबकि ‘वन अधिकार कानून–2006’ की धारा 3(1) झ के अनुसार सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित, संरक्षित या प्रबंधन करने का अधिकार ग्रामसभा को है। भू-अर्जन तथा पुनर्वास की कंडिका में ‘भू-अर्जन अधिनियम – 1894’ का उल्लेख किया गया है, जबकि भू-अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में ‘उचित प्रतिकर और पारदर्शता अधिकार अधिनियम – 2013’ लागू किया जा चुका है। ‘पेसा कानून’ के तहत ग्रामसभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया है।
‘पेसा कानून – 1996’ की धारा 4 ड(i) गांव समाज यानि ग्रामसभा चाहे तो अपने गांव में पूरा मद्य निषेध लागू कर दे। अगर मद्य निषेध न लागू करे तो वह मादक पदार्थो की बिक्री पर रोक लगा सकती है। ग्रामसभा चाहे तो मद्यपान के मामले में गांव के लोगों द्वारा संयम बरतने के लिए नियम बना सकती है। इस व्यवस्था के उल्लंघन के लिए ग्रामसभा को दंड देने का अधिकार भी होगा। दंड की व्यवस्था भी आदिवासी परम्परा का अभिन्न अंग है। तदनुसार ‘मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम – 1915’ की धारा 61 में अनुसूचित क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति के लिए 1997 में संशोधन किया गया।
इस अधिनियम की धारा 61(घ) में आदिवासियों के लिए कतिपय उपबंधों से छूट प्रदान की गई है। (1) अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों द्वारा देशी मदिरा का विनिर्माण केवल घरेलू उपभोग तथा सामाजिक और धार्मिक समारोहों पर उपभोग के प्रयोजनों के लिए किया जाएगा।(2) इस प्रकार की विनिर्मित की गई देशी मदिरा बेची नहीं जा सकेगी। (3) इस प्रकार विनिर्मित की गई देशी मदिरा के रखने की अधिकतम सीमा प्रति व्यक्ति 4.5 लीटर और प्रति गृहस्थी 15 लीटर तथा विशेष परिस्थितियों में सामाजिक तथा धार्मिक समारोह के अवसर पर प्रति गृहस्थी 45 लीटर होगी। गृहस्थी से अभिप्रेत है, ऐसे व्यक्तियों का कोई समूह जो एक ही घरेलू इकाई के सदस्यों के रूप में संयुक्त रूप से निवास तथा भोजन करता है।
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ‘पेसा कानून’ के नियम में प्रावधान किया गया है कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में अवैध मदिरा का निर्माण, धारण एवं विक्रय सबंधी सूचना मिलने पर विभागीय अधिकारियों, कर्मचारियों और शराब ठेकेदारों द्वारा चैकिंग इत्यादि की कार्यवाही जिला कलेक्टर की पूर्व-अनुमति के बिना नहीं की जावेगी।
पेसा कानून बनाने के लिए गठित ‘दिलीप सिंह भूरिया कमिटी’ में अहम भूमिका निभाने वाले डॉक्टर ब्रह्मदेव शर्मा ने वर्ष 2010 में राष्ट्रपति को पत्र लिखा था कि ‘जब ‘‘पेसा कानून’’ बना और इसके प्रावधान आए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि इसे जनजातीय समुदाय के साथ किये गए ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने के लिए बनाया गया है। यह हमारे गांव में हमारा राज कायम होने का एहसास देता था, परन्तु आदिवासी समाज का यह उत्साह थोडे दिनों में ही खत्म हो गया। ऐसा इसलिए हुआ है कि सत्तारूढ वर्ग और प्रशासनिक अधिकारी ‘पेसा’ की मूल भावना को मानने को तैयार नहीं हैं।’ शासक शक्तियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की कार्पोरेट लूट को अंजाम देने के लिए आदिवासियों को जंगल एवं जमीन से बेदखल किया जा रहा है। ये वही ताकतें हैं जो किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों के गौरवशाली योगदान को अपमानित करती हैं। (सप्रेस)
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