डॉ. ओ.पी.जोशी

मामूली आंधी-पानी में किसी भी आकार-प्रकार के शहरों के बाढ-ग्रस्‍त होने के अलावा तडा-तड गिरते पेड आजकल बडी समस्‍या बन गए हैं। हर बरसात में गाडी, मकान और इंसानों पर गिरे पेडों का दृश्‍य आजकल आम है। क्‍यों होता है, ऐसा? किन वजहों से बरसों-बरस खडे रहने वाले मजबूत पेड़ सामान्‍य-सी छींटा-छांटी में धराशायी हो जाते हैं?

देश में मानसून के आते ही तेज आंधी से कई स्थानों पर पेड़ उखड़ कर गिर जाते हैं एवं कई पेड़ों की शाखाएं टूट जाती हैं। वैसे आंधी-तूफान से पेड़ों का गिरना कई वर्षों से जारी है, परंतु पिछले कुछ वर्षों में गिरने वाले पेड़ों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। नगरों एवं महानगरों में मामूली-से आंधी-तूफान से बड़े-बड़े पेड़ धराशायी हो रहे हैं। दिल्ली जैसे महानगर में तो सड़क किनारे लगे पुराने पेड़ों का गिरना एक सामान्य घटना हो गयी है। दिल्ली में ही 30 मई 2014 को आये 90 मिनिट के आंधी-तूफान से 1000 पेड़ गिर गये थे। ‘मुंबई महानगर पालिका’ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004 से 2014 के बीच मानसून के मौसम में 13000 पेड़ गिरे जिससे 120 लोग घायल हुए एवं 18 की मौत हुई। वर्ष 2017 में भी 10 जून से 21 जुलाई के मध्य सड़क किनारे लगे 1000 पेड़ गिर गये थे। पुणे में अगस्त 2016 में एक सप्ताह में ही 25 पेड़ धराशायी हो गये थे।

स्वच्छता में अव्‍वल आने वाले मध्यप्रदेश के इन्दौर शहर में वर्ष 2014, 2018 एवं 2019 में मानसून के दौरान 200 से ज्यादा पेड़ उखड़ गये थे। वर्ष 2019 की तीन जुलाई को भी इन्दौर शहर में आयी आंधी-बारिश से 20 स्थानों पर पेड़ गिरे थे जिनमें गुलमोहर, पेटटाफोरम, सुबबुल एवं विलायती इमली के ज्यादा थे। ‘इंदौर नगर निगम’ के ‘उद्यान विभाग’ ने बताया कि 1980 के दशक में ‘सामाजिक वानिकी योजना’ के तहत लगाये गये ज्यादातर पेड़ कमजोर हो गये थे। इसी जून के शुरू के 12-15 दिनों में भोपाल में पुराने 60 पेड़ धराशायी हो गये।

कुछ वर्षों पूर्व इस समस्या के संदर्भ में दिल्ली की ‘रिसर्च फांउडेशन फॉर साइंस, टेक्नॉलॉजी एंड इकोलाजी’ संस्‍था की डॉ. वंदना शिवा ने पेड़ गिरने के तीन प्रमुख कारण बताये थे। प्रथम, शहरी वायु-प्रदूषण, जो पेडों की वृद्धि एवं विकास पर वितरीत प्रभाव डालकर उन्‍हें कमजोर करता है, द्वितीय, तने के आसपास की धरती को पेवर्स, टाईल्स या सीमेंट कांक्रीट से पक्का करना और तृतीय, शहरों के आसपास जंगल घटने से आंधी-तूफान की तीव्रता का बढ़ना। वर्ष 2014 में आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम व उसके आसपास आये ‘हुद-हुद’ तूफान के कारण छितरे, अलग-अलग लगे पेड तो काफी गिर गये थे, परंतु समूह में घने लगे पेड़ काफी बच गये थे।

मानसून तथा अन्य मौसम में गिरने वाले पेड़ों की बढ़ती संख्या ने नगर नियोजकों, उद्यान विशेषज्ञों, वन-अधिकारियों एवं पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित किया है। इन लोगों ने कई स्थानों पर गिरे पेड़ों का अवलोकन कर, कारण जानने के प्रयास किये हैं। जो प्रमुख कारण बताये गये हैं वे इस प्रकार हैं- जड़ों एवं शाखाओं की अनियंत्रित कटाई-छटाई, तने के इर्द-गिर्द सीमेंट-कांक्रीट से पक्का चबूतरा बनाना, जहर देकर सुखाना, विज्ञापन के बोर्ड लगाना, आसपास जल-जमाव की स्थिति एवं रोग-ग्रस्त होना आदि। सड़कों के किनारे ड्रेनेज, पेय-जल लाईन डालने या सुधारने के कार्य के दौरान पेड़ों की सड़क की तरफ फैली जड़े बेतरतीब काट दी जाती हैं। इससे पेड़ का संतुलन बिगड़ जाता है एवं गिरने की सम्भावना बढ़ जाती है।

पेड़ों में एक प्रकृति-प्रदत्त व्यवस्था होती है। उसकी जितनी शाखाएं ऊपर की तरफ चारों ओर फैली रहती हैं, लगभग उसी अनुपात में जड़ें भी भूमि में फैलकर पेड़ का संतुलन बनाये रखती हैं। पेड़ों की छोटी-बड़ी शाखाओं की कटाई-छंटाई भी असंतुलन पैदा करती है, क्योंकि यह कार्य किसी एक ही तरफ किया जाता है। बिजली विभाग लाइन की ओर फैली शाखाओं को मेंटेनेस के नाम पर काट देता है। कई दुकानदार अपनी दुकानों के बोर्ड दिखाने हेतु वहां फैली शाखाएं काट देते हैं। सोलर-पैनल पर सूर्य का प्रकाश आने के लिए एवं चमगादड़ों के बैठने से परेशानी एवं डर के कारण भी शाखाएं बेतरतीब काट दी जाती है। आजकल सौंदर्यीकरण के नाम पर सड़क किनारे या फुटपाथ पर लगे पेड़ों के तनों के आधार पर पेवर्स, टाइल्स या सीमेंट-कांक्रीट से पक्का चबूतरा बनाने का चलन है। इससे पानी, प्राणवायु एवं पोषक पदार्थ पेडों की जडों तक नहीं पहुंच पाते एवं मिट्टी के भुरभुरी होने से जड़ों पर पकड़ कमजोर हो जाती है।

वर्ष 1997 में ‘वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून’ ने दिल्ली में लगे पेड़ों का अध्ययन कर बताया था कि सीमेंटीकरण से पेड़ कमजोर हो रहे हैं एवं उनकी उम्र भी घट रही है। सम्भवतः इसी आधार पर जुलाई 2000 में ‘शहरी विकास मंत्रालय’ ने नगरीय निकायों को निदेर्शित किया था कि पेड़ों के आसपास पांच-छह फीट क्षेत्र कच्चा रखा जावे। अक्टूबर 2005 में ‘दिल्ली उच्च न्यायालय’ ने भी एक जनहित याचिका पर फैसले में कहा था कि ‘शहरी विकास मंत्रालय’ के निर्देशों का पालन किया जाए एवं जहां सीमेंटीकरण हो चुका है उसे हटाया जावे।

‘राष्‍ट्रीय हरित न्‍यायाधिकरण’ (एनजीटी) ने भी जून 2013 में इसी प्रकार के निर्देश दिये थे। ‘एनजीटी’ के इन्‍हीं निर्देशों को आधार बनाकर इन्दौर शहर के राजेन्द्र सिंह अजमेरा शहर के 5000 से ज्यादा पेड़ों के आसपास से सीमेंट-कांक्रीट हटवा चुके हैं। उनका यह कार्य अब प्रदेश के अन्य शहरों में भी फैल रहा है। पेड़ काटने का विरोध होने पर या अनुमति नहीं मिलने पर लकड़ी-माफिया चुपचाप पेडों की जडों में कोई जहर डाल देते हैं। नतीजे में पेड़ कमजोर होकर सूख जाता है। कई बार बड़े-बड़े कीलों से पेड़ों पर विज्ञापन-बोर्ड ठोके जाते हैं जिसका विपरीत प्रभाव होता है। पेड के आसपास लम्बे समय तक जल-जमाव एवं किसी रोग का संक्रमण भी कमजोरी पैदा करता है।

मानसून के समय गिरे पेड़ों की जड़ों का काफी भाग जमीन के अंदर रहता है अतः इन पेड़ों को क्रेन की मदद से पुन: खड़ा कर सुरक्षा प्रदान की जावे तो वे फिर से फल-फूल सकते हैं। ‘वन विभाग, मुख्यालय-शिवपुरी (म.प्र.)’ के पुलिस-अधीक्षक मोहम्मद यूनुस कुरैशी ने 2017 में गिरे पेड़ों को फिर से लगाने का न केवल सुझाव दिया, अपितु स्वयं करके भी बतला दिया था। वहां कार्यालय में गिरे आम के पेड़ को प्रत्यारोपित कर दो वर्षों में वापस हरा-भरा कर दिया गया था। वर्षा काल में हजारों संस्थाएं पौधारोपण कार्य करती हैं। उनमें से यदि कुछ संस्‍थाएं गिरे वृक्षों को प्रत्यारोपित करने का कार्य करें तो यह भी प्रशंसनीय एवं पर्यावरण हितैषी होगा। हमारे समाज में गिरे को उठाना पुण्य का कार्य माना जाता है, इस मान्यता को पेड़ों पर भी लागू किया जावे। जड़ों एवं शाखाओं की नियंत्रित कटाई-छंटाई, तने पर (खांचेदार पत्थर या स्टील से निर्मित) ट्री-ग्रेटिंग लगाना, कीलों से ठोकने के बजाय तार आदि से विज्ञापन-बोर्ड लटकाना, जल-जमाव को रोकना एवं रोगग्रस्त दिखने पर पेड़ पर दवा का छिड़काव आदि कुछ ऐसे प्रयास हैं जो इस समस्या से थोड़ी राहत दिला सकते हैं। (सप्रेस)

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