28 नवंबर को करीब 17 दिन से बारामासी सड़क की निर्माणाधीन सुरंग में फंसे 41 मजदूरों का सुरक्षित बाहर निकलना कोई अकेली त्रासदी नहीं है। दुनियाभर के वैज्ञानिकों में ‘बच्चा पहाड़’ माने जाने वाले हिमालय में ऐसी त्रासदियां लगातार होती रहती हैं, लेकिन गजब यह है कि ये अधिकांश त्रासदियां प्राकृतिक न होकर मानव-निर्मित रही हैं। सुरंग-त्रासदी के पहले क्या हो रहा था, हिमालय में?
इस वर्ष के प्रारंभ में दो जनवरी की रात को मलवे पर बसे जोशीमठ में भू-धसन से जमीन में गहरी दरारें आयी थीं। इससे लगभग 800 मकानों की दीवारों में दरारें पैदा हुईं एवं 180 मकान अनुपयोगी घोषित किये गये। हजारों लोगों को लम्बे समय तक राहत शिविरों में रहना पड़ा। यहां जुलाई में फिर एक खेत में 6 फीट की दरार पैदा हो गयी थी।
जल-मल निकासी का अभाव, क्षमता से ज्यादा निर्माण कार्य, बारामासी सड़क, अलकनंदा से पैदा कटाव एवं ‘तपोवन जल-विद्युत परियोजना’ की सुरंग (टनेल) आदि इस त्रासदी के कारण बताये गये थे, हालांकि सितम्बर में 08 वैज्ञानिकों की रिपोर्ट ने ‘तपोवन परियोजना’ को जिम्मेदार नहीं बताया था।
जोशीमठ के पास ही बसे प्रसिद्ध बद्रीनाथ धाम में भी जनवरी माह में मंदिर का खजाना रखे जाने वाले कमरे में दरार आने से खजाना पास के नृसिंह मंदिर में रखा गया था। फरवरी में यहां के वेद देवांग छात्रावास के आगे बसे भूसवडीयार तथा पीजी कालेज के सामने की सड़क पर भी दरारें पैदा हो गयी थीं। पंच भैया मोहल्ले से लगे घाट में भी मई के महिने में जमीन धंसने से खतरा पैदा हो गया था।
यह बताया गया कि बगैर भूगर्भीय अध्ययन के निर्माण कार्यो से यहां खतरे बढ़ते जा रहे हैं। जनवरी में बद्रीनाथ राजमार्ग पर बसे कर्णप्रयाग के बहुगुणा नगर के 50 मकानों एवं 15 दुकानों की जमीन में दरारें पैदा हो गयी थीं। वहां की सब्जीमंडी के ऊपर वाला पूरा रास्ता भू-धसान के कारण टूट गया था। वहां के पुराने निवासियों ने बताया कि पेड़ों को काटकर सब्जीमंडी बसायी गयी थी।
वर्ष 2013 की ‘केदारनाथ त्रासदी’ के बाद यहां कहीं-न-कहीं भू-धसान होता ही रहता है। रूद्रप्रयाग जिले के गुप्तकाशी के पास गौरीकुंड मार्ग पर बसा गांव सेमीभैसारी भी भू-धसान की चपेट में जनवरी में आ गया था। टिहरी जिले में भिलंगना तथा भागीरथी क्षेत्र के 16 गांव भी भू-धसन से प्रभावित हुए थे। ऋषिकेश-गंगोत्री राजमार्ग पर बनी सुरंग के ऊपरी क्षेत्र में बसे मिठीयाणा गांव के कई मकानों में भू-धसान से पैदा दरारें देखी गयी थीं। उत्तरकाशी के मस्ताडी गांव में जनवरी तथा चिन्यालीसौर बस्ती में मार्च में भू-धसान की घटनाएं हुई थीं।
राष्ट्रीय राजमार्ग के पास बसे एक स्कूली छात्रावास तथा पास के शासकीय भवनों में भी दरारें पैदा हो गयी थीं। चिन्मालीसौर के साथ राजमार्ग पर बसे पीपलमंडी, नागणीसौर व बढेती तक के लगभग पांच किलोमीटर के क्षेत्र में जमीन का धसना देखा गया था। हरिव्दार से लगभग तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित मनसा देवी के पहाड़ दरकने से जुलाई में एक सप्ताह तक मलवा गिरता रहा, जिससे रेल्वे की सम्पत्ति को काफी नुकसान हुआ था। इस वर्ष पहाड़ दरकने की गति कुछ तेज देखी गयी।
इन धार्मिक स्थलों के साथ पर्यटन के लिए प्रसिद्ध शिमला, मसूरी, नैनीताल एवं कई अन्य स्थानों पर भी भू-धसान, पहाडों के दरकने की घटनाएं हुई हैं। शिमला के रोज-मैदान व लक्कड बाजार में जमीन धसने से मकानों में दरारें आयी हैं। तीन लाख की आबादी वाले इस पर्यटन स्थल पर 30 लाख पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं। लाहौल-स्पीती के लिंडर गांव में जून, जुलाई एवं अक्टूबर में कई स्थानों पर जमीन धसने से मकानों में दरारें आयी हैं।
मंडी जिले के भलोट, नागनी व फालू गांव पहाडी पर बसे थे जो कई स्थानों पर दरक गए। चम्बा के कुछ घरों में जमीन धसने से मकानों में दरारें आयीं एवं लूना में भूस्खलन से एक पुल पूरा ढह गया। मसूरी के लैडोर क्षेत्र में भू-धसान से वहां के 700 पुराने मकान खतरनाक स्थिति में आ गये। नैनीताल के पास की एक संवदेनशील पहाडी – आल्मा भी सितम्बर में दरकने लगी जिसके चार मकान पूरे ध्वस्त हो गये। इससे घबराकर स्थानीय प्रशासन ने शेष 250 मकानों को तीन दिनों में खाली करने के आदेश दिए।
यहां की प्रसिद्ध मालरोड (अपर) पर फरवरी में भू-धसान से बडी दरार पैदा हो गयी थी। मई में यहां के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल टिफीन-टाप व न्यू-पाईंट की पहाडियों पर दरार पैदा होने से पर्याटकों की आवाजाही रोकी गयी थी। दीपावली की सुबह, 12 नवंबर को उत्तरकाशी में धरासु-यमनोत्री राजमार्ग पर ‘चारधाम आल वेदर रोड़’ योजना के तहत बनायी जा रही सुरंग का करीब 60 मीटर का हिस्सा धंस गया जिसमें 41 मजदूर फंस गए। इन्हें 17 दिन में, 28 नवंबर को सुरक्षित निकाला गया।
इस वर्ष जनवरी से नवम्बर की अवधि में हिमालयीन पहाडी क्षेत्रों के 15 से अधिक स्थानों पर भू-धसान एवं पहाडों के दरकने की घटनाएं हुई हैं। कई स्थानों पर दो-तीन बार भी घटनाएं हुईं। इन घटनाओं के पीछे मानवीय कारण ज्यादा रहे जिनमें ‘आल वेदर रोड’ के साथ-साथ अन्य सडकों का निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएं एवं रेल्वे लाईन का विस्तार आदि प्रमुख हैं। इन कार्यो हेतु जंगलों की कटाई एवं बडी संख्या में किये गये विस्फोट से जमीन के कमजोर होने के तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग को इनके लिए जिम्मेदार मानना भी एकदम सही नहीं होगा।
सरकार की सोच रहती है कि पहाडों पर इस प्रकार के कार्यो से पर्यटन के साथ राजस्व भी बढेगा, परंतु सरकार यह भूल जाती है कि किसी एक क्षेत्र में आयी आपदा के राहत कार्य में राजस्व की आय से कई गुना अधिक राशि खर्च करना होती है। जोशीमठ को बचाने एवं सुधार कार्य हेतु दो हजार करोड रूपये का राहत पैकैज बनाया गया था। हिमालय दुनिया का सबसे नवजात, कच्चा एवं संवदेनशील पहाड़ है। यहां के कई क्षेत्र देश में बनाये गये भूकम्प के संवेदनशील जोन 4 एवं 5 में शामिल हैं। यहां के विकास कार्य यदि पहाड़ की प्रकृति के अनुसार नहीं किये गये तो भविष्य में आपदाओं का बढ़ना तय है। (सप्रेस)
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