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ओम प्रकाश भट्ट

सत्तर के दशक की शुरुआत में हिमालय के चमोली, गोपेश्वर जिलों से उभरा विश्व-प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ अब पचास साल का होने आया है। इस आंदोलन में वृक्षों को बचाने के लिए स्थानीय लोग, खासकर महिलाएं पेडों से चिपककर पहली कुल्हाडी झेलने का आवाहन करती थीं। इस निष्ठा से बचाए गए उत्तराखंड के वनों का आज क्या हाल है? आंदोलन के पिछले पचास सालों में क्या हुआ? इसी पर प्रकाश डालता यह लेख।

‘चिपको’ Chipko Movement का संघर्ष और पर्यावरण संरक्षण के लिए रचना के कार्य पचास साल बाद भी चल रहे हैं। इनकी गति और व्यापकता में ऊंच-नीच हो सकती है, लेकिन इनकी निरंतरता अभी भी जारी है जिसे कई रूपों में इन इलाकों में देखा जा सकता है। बछेर में महिलाओं ने वन-पंचायत में निर्णय और अधिकार को लेकर चुनौती दी। यही सवाल टंगसा और गोपेश्वर समेत अनेक गांवों की महिलाओं ने उठाये और वन-पंचायत में निर्णय लेने की क्षमता पुरूषों से लेकर अपने हाथ में ली।

पचास सालों में इन इलाकों में कई पीढ़ियां गुजरीं और कई नई पीढियां आयीं। कुछ गिनती के लोगों को छोड़ दें तो ‘चिपको’ की एक पूरी पीढ़ी दुनिया से विदा हो चुकी है। अब बंजर इलाके पहले की अपेक्षा हरे-भरे हो रहे हैं। जंगलों पर दबाव पहले से कम हुआ है। ग्रामीणों, खासकर महिलाओं को जंगल से जुड़ी काश्तकारी के लिए पहले की अपेक्षा कम दूरी तय करनी पड़ रही है। दूसरी ओर, नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के काम और ज्ञान से अनभिज्ञ भी दिख रही है।

मालई गांव में जंगल की गुणवत्ता को लेकर बहनों ने सवाल उठाये। मालई के समृद्ध बांज के जंगल में चीड़ के पौधे रोपने की वन-विभाग की कार्यवाही का विरोध किया जिससे पूरे उत्तराखण्ड में चीड़ की पौध तैयार करने की प्रक्रिया रूकी। महिलाओं ने घास-लकड़ी से जुड़ी रोजाना की समस्याओं को कम करने का प्रयास किया। पपड़ियाणा जैसे अनेक गांव इसके उदाहरण हैं।

‘चिपको’ की लड़ाई सरकार की वन-नीतियों की खामियों को लेकर शुरू हुई। 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के अनुभव ने ‘चिपको आंदोलन’ को दिशा दी। जंगल और बाढ़ का संबंध इस आपदा ने पूरे इलाके में हुई बर्बादी से स्पष्ट किया था। जंगल और लोग दोनों के सहअस्तित्व की बात इस आंदोलन के मूल भाव में थी।

पहली अप्रैल 1973 को ‘चिपको आंदोलन’ Chipko Movement की मातृ-संस्था के इसी परिसर में बमियाला गांव के स्व. बचन सिंह रावत की अध्यक्षता में संपन्न बैठक में सरकार से वन-नीतियों की खामियों को दूर करने और ‘साइमन कंपनी’ से जंगल बचाने के लिए ठेकेदार की कुल्हाड़ी का वार पीठ पर सहन करने का प्रस्ताव पारित किया था और ‘चिपको आंदोलन’ चलाने का निर्णय लिया था।  24 अप्रैल 1973 को पेड़ों को बचाने के लिए स्व. आलम सिंह बिष्ट की अध्यक्षता में ‘चिपको’ के नारे गूंजे थे।

जंगल की आग, अनियोजित और अनियंत्रित पर्यटन गतिविधियां हमारे संरक्षित इलाकों, खासतौर पर बुग्यालों और बांज के जंगलों पर संकट खड़ा कर रही है। बुग्यालों को बचाने के लिए जन-जागरूकता, वनाग्नि की रोकथाम के लिए अध्ययन और जनजागरण यात्रायें और बांज से संपन्न इलाकों में कार्यो की शुरूआत की है। कई जगह इन कार्यक्रमों के सकारात्मक परिणाम भी दिखे हैं।

क्रिकेट के बैट, टेनिस के रैकेट जैसे खेल के सामान बनाने वाली बहुराष्ट्रीय ‘साइमन कंपनी’ के हाथों अंगु (ASH) के पेड़ों को बचाने के लिए 24 अप्रैल 1973 को उत्तराखण्ड के चमोली जिले में, मण्डल-घाटी के जंगल से ‘चिपको’ की गूंज बाहर निकली थी। पचास साल बाद फिर से 24 अप्रैल 2023 को ‘चिपको आंदोलन’ के उस दौर के आंदोलनकारी और मण्डल-घाटी के लोग ‘चिपको आंदोलन’ के स्वर्णजयंती-वर्ष के समापन के निमित्त एकत्रित हुए थे।

पूरे दिन ‘चिपको’ के शुरूआती दौर के अनुभव, उपलब्धियां और वर्तमान संदर्भ में वन और वनवासियों के संरक्षण से जुड़े मसलों पर बातचीत की गई और ‘चिपको’ के शुरूआती दौर के नायकों को याद किया गया। 24 अप्रैल 1973 को आंदोलन के ऐतिहासिक अवसर पर वन और वन-संरक्षण की लोकविरोधी नीतियों को दूर करने के लिए जिन सात प्रस्तावों को पारित किया गया था, उन पर भी चर्चा हुई।

‘चिपको’ के पचासवें साल के प्रवेश पर पहली अप्रैल 2022 से आंदोलन के ऐतिहासिक स्थलों पर इस निमित्त सालभर छोटे-बड़े कार्यक्रम चले। शुरूआत ‘दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल’ के उसी परिसर से हुई जहां आज से ठीक पचास साल पहले जनप्रतिनिधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विभिन्न राजनैतिक दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने ‘चिपको आंदोलन’ का औपचारिक निर्णय लिया था।

नतीजतन, वन विभाग को अंगु के पेड़ों को काटने का विचार त्यागना पड़ा और ‘साइमन कंपनी’ को साठ किलोमीटर दूर केदारघाटी के रामपुर-न्यालसू में फिर से पेड़ एलाट किए गए। इसके  विरोध में भी बैठकें, जुलूस, प्रदर्शन हुए और अंतत: ‘साइमन कंपनी’ को वापस लौटना पड़ा। फिर रेणी से होते हुए यह सिलसिला ‘फूलों की घाटी,’ ‘नेशनल पार्क’ से जुड़े भ्यूडार गांव, पिण्डर-घाटी में डूंगरी-पैतोली, टिहरी, अल्मोड़ा और नैनीताल से होते हुए देश और दुनिया में फैला और पेड़ों को बचाने के प्रतिरोध और पर्यावरण संरक्षण का एक ज्वलंत उदाहरण बनकर उभरा।

मण्डल, रामपुर-फाटा और रेणी में हुए आंदोलन के बाद सरकार को आंदोलनकारियों की बातों में दम दिखा और इस इलाके में पेड़ों की कटाई प्रतिबंधित कर दी गई। वन-विभाग ने अपनी दस-साला कार्ययोजना इन इलाकों में स्थगित कर दी और नई कार्ययोजनाओं में पेड़ों के व्यावसायिक कटान का अध्याय ही हटा दिया। ‘चिपको आंदोलन’ की मातृ-संस्था ‘दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल’ ने पेड़ों को बचाने के लिए ‘चिपको’ के संघर्ष को रचना में बदला। बंजर और वृक्ष-विहीन इलाकों में जंगल बढ़ाने के लिए उसने 1975 से वन और पर्यावरण शिविरों की अनोखी पहल शुरू की।

इसके जरिये जहां वन और पर्यावरण के प्रति जनजागरण की लहर चली, वहीं बंजर इलाकों को हरा-भरा करने का प्रयास शुरू हुआ। इसकी शुरूआत भी मण्डल के ‘चिपको’ वाले पांगरबासा के जंगल में हुई। शुरू में इन शिविरों में संस्था के कार्यकर्ताओं के साथ महाविद्यालय के छात्र और वनाधिकारी शामिल होते थे, लेकिन बाद में इनमें ग्रामीणों की भागीदारी भी बढ़ी। खासतौर पर महिलाओं ने इसे अपनी समस्या और उसके निराकरण का मंच माना और इन कार्यक्रमों से जुड़ती गईं।

‘चिपको’ के बाद यही पुकार, जंगल नहीं जलेंगे अबकी बार’ का नारा पूरे चमोली जिले में फिर से वनाग्नि अध्ययन यात्रा के जरिये ‘चिपको’ का नया नारा बन चुका है। बुग्यालों के संरक्षण के लिए कानूनी और सामाजिक स्तरों पर पहल करने के परिणाम यह हुए हैं कि नौवें दशक में जिस गति से बुग्यालों को टूरिस्ट गतिविधियों के लिए बर्बाद किया जा रहा था, वह थमा है। ‘चिपको’ वन और पर्यावरण संरक्षण के लिए सत्याग्रह का तरीका बन चुका है।  

‘चिपको’ के ‘वन जागे, वनवासी जागे,’ ‘पैरा-पगार कब रूकला, नया डाला जब लगला’ और ‘चिपको आंदोलन जिंदाबाद’ के नारे आज भी यहां के गांवों में पचास साल पहले की तरह गूंजते हैं। पचास साल पहले वन-नीति और वन-सरंक्षण की तत्कालिक गड़बड़ियों को दूर करने के लिए जो सात संकल्प 24 अप्रैल को आंदोलनकारियों ने पारित किए थे, उनमें से अधिकतर को सरकार ने मान लिया था। एक ओर चुनौतियां नए रूप में हैं, दूसरी ओर ‘चिपको’ एक ऐसा औजार बन चुका है जो हर परिस्थितियों में अपने परिवेश को बचाने के लिए वर्तमान और भविष्य में भी लोगों को प्रेरित करेगा। (सप्रेस)

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