डॉ॰ खुशालसिंह पुरोहित

सुंदरलाल बहुगुणा का नाम भारत और विदेशों में वन संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष की प्रेरणा का प्रतीक बन गया। पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए शुरू किए गए अप्पिको आंदोलन के वे एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। आपको अनेक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया, पर्यावरणीय मुद्दों पर उनकी राय महत्वपूर्ण मानी जाती थी। श्री बहुगुणा ने अपनी आजीविका के लिए हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार और लेखक के रूप में आजीवन काम किया।

हिमालय की वादियों में जन्म लेकर गंगापुत्र सुन्दरलाल बहुगुणा ने हिमालय और गंगा की चिंता के साथ ही मानवता के भविष्य की चिंता करते हुए समूचे पर्यावरण की समृद्धि के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगाया था। वन अधिकारी के बेटे ने अपने पारिवारिक संस्कारो का इतना विस्तार किया कि वह विश्व वानिकी चेतना का पुरोधा बन गया। आधुनिक युग में पर्यावरण और विकास के सवालों पर जब भी कोई चर्चा होगी तो वह सुन्दरलाल बहुगुणा के उल्लेख के बिना अधूरी रहेगी। विश्व के इतिहास में ऐसे बिरले ही उदहारण है जहाँ सामान्य परिवार से निकलकर कोई व्यक्ति अपने असाधारण कार्यो से सारे संसार में अपने विचारो का प्रकाश फेलाने से सफलता प्राप्त कर सके, सुन्दरलाल बहुगुणा का जीवन इसका सफल उदाहरण है। श्री बहुगुणा पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के पर्याय थे, उन्होने समाज के युवा वर्ग को पर्यावरण चेतना से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

भागीरथी के तट पर ऊंची चोटी पर बसे गढवाल रियासत के गाँव मरोड़ा में 9 जनवरी 1927 को जन्मे गंगाराम का नाम बचपन में ही उनके मामा ने बदल कर सुंदरलाल कर दिया था क्योंकि उनकी बहन का नाम भी गंगा था। पिताजी जब किसी एक को गंगा कहकर बुलाते थे तो दोनों भाई-बहन एकसाथ उपस्थित हो जाते थे। श्री बहुगुणा और उनकी पत्नी श्रीमति विमला बहुगुणा तरुणाई के दिनों से ही समाजसेवा मे सक्रिय हो गए थे। सुंदरलाल बहुगुणा 13 वर्ष की आयु में महान स्वतन्त्रता सेनानी श्रीदेव सुमन की प्रेरणा से राष्ट्रीय आंदोलनों में कार्य करने लगे थे, वहीं विमला नौटियाल 17 वर्ष की आयु में महान समाजसेवी सरला बहन के आश्रम की सदस्य बन गयी थी। दोनों के पिता अंबादत्त बहुगुणा एवं नारायणदत्त नौटियाल वन अधिकारी थे, दोनों की माताजी श्रीमती पूर्णादेवी बहुगुणा एवं श्रीमती रत्नकांता नौटियाल धार्मिक प्रवृत्ति की महिलाएं थी। इस प्रकार दोनों परिवारों की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत समान थी, जिसमे समाजसेवा की प्रेरणा निहित थी।     

सुंदरलाल बहुगुणा की प्रारम्भिक शिक्षा राजकीय प्रताप इंटरकॉलेज टिहरी में हुई इसके बाद आपने लाहोर से 1947 में बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद अपने घर लौटने पर क्षेत्र में चल रहे स्वतन्त्रता आंदोलन में भाग लेते हुए टिहरी रियासत के विरोध में प्रजामंडल की गतिविधियों में भाग लेने लगे। आपके इस सक्रिय सामाजिक योगदान के कारण राजशाही का तख्तापलट होने के बाद 1948 में प्रजामंडल की सरकार में आपको प्रचारमंत्री भी बनाया गया।

आपने और श्रीमती विमला बहुगुणा ने पहाड़ी गाँव सिल्यारा में पर्वतीय नवजीवन आश्रम की स्थापना की, इसके माध्यम से समाजसेवा के क्षेत्र में बहुगुणा दंपत्ति ने कई महत्वपूर्ण कार्य किए। श्री बहुगुणा ने पर्यावरण संरक्षण के अनेक कार्यों के साथ ही टिहरी बांध के विरोध में 1986 में 74 दिन तक भूख हड़ताल की थी। टिहरी बांध के निर्माण के औचित्य के प्रश्नों को लेकर कई बार आंदोलन और भूख हड़तालें की, इसी सिलसिले में आपको एक बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी। पर्यावरण संरक्षण के लिए निरंतर कार्य करने के फलस्वरूप श्री बहुगुणा को संयुक्त राष्ट्र संघ में सम्बोधन का भी अवसर मिला था।

सत्तर के दशक में अद्वानी और सालेट जैसे जंगलों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई, इसने अपने परिवेश और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर लोगों में बहुत उत्साह पैदा किया। यह आंदोलन कांगर और बडियारगढ़ जैसे सुदूर जंगलों तक भी फैला, जहां श्री बहुगुणा ने बहुत कठिन परिस्थितियों में घने वन क्षेत्र में लंबे समय तक उपवास किया साथ ही उन्होंने सरकार के वरिष्ठ लोगों के साथ संवाद बनाए रखा। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में इस आंदोलन और बहुगुणा जी के प्रति बहुत सम्मान था। उनके प्रयासों से बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई सरकार हिमालय क्षेत्र के एक बड़े इलाके में पेड़ों की कटाई रोकने के लिए तैयार हो गई, इसके बाद हिमालय क्षेत्रों में पेड़ कटाई पर प्रतिबंध लगाया गया।   

आपने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ टिकाऊ आजीविका की सुरक्षा पर भी ज़ोर दिया, विस्थापन का पुरज़ोर विरोध किया और वन श्रमिकों को संगठित किया। देश में खत्म होते जंगलों को पुर्नजीवित करने और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने जैसे रचनात्मक कार्यों से आपको देश-विदेश में काफी प्रसिद्धि मिली।

सुंदरलाल बहुगुणा का नाम भारत और विदेशों में वन संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष की प्रेरणा का प्रतीक बन गया। पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए शुरू किए गए अप्पिको आंदोलन के वे एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। आपको अनेक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया, पर्यावरणीय मुद्दों पर उनकी राय महत्वपूर्ण मानी जाती थी। आपको कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। श्री बहुगुणा ने अपनी आजीविका के लिए हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार और लेखक के रूप में आजीवन काम किया। आपके लेख और रिपोर्ट कई प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते थे।

पर्यावरण संरक्षण के विविध आयामी प्रयासों और सामुदायिक नेतृत्व के लिए श्री बहुगुणा को अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले जिनमे फ़्रेंड्स ऑफ नेचर, राइट लाइवलिहूड़ पुरस्कार, जमनालाल बजाज पुरस्कार, शेर ए कश्मीर पुरस्कार, गांधी सेवा सम्मान और सत्यपाल मित्तल अवार्ड प्रमुख हैं। आपको 1989 में आई.आई.टी. रुड़की द्वारा सम्मानार्थ डी.लिट. एवं 2009 में भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

श्री बहुगुणा ने भोगवादी सभ्यता के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया उनका कहना था कि हमने विपुलता को विकास का मापदंड मान लिया है। जिस समाज के पास भोग की जितनी वस्तुए होंगी, वह उतना ही अधिक विकसित माना जायेगा, किन्तु यह भोग की वस्तुए आखिर आएँगी कहाँ से ? इन सबका भंडार तो पृथ्वी ही है।  चाहे ये साधन धातु, खनिज, तेल हो या चरागाह, वन, कृषि-भूमि व समुद्र जैसे नवीकृत होने वाले साधन हों। विपुलता वाले विकास के लिए मनुष्य ने तकनिकी की मदद से प्रकृति के भण्डारो का असीमित दोहन किया है। उनका मानना था कि आज की दुनिया में जो वैभव दिखाई देता है, वह स्वाभाविक नहीं है। यह तो अलीबाबा की तरह मनुष्य के हाथ में तकनिकी की चाबी लग गयी है। प्रकृति की जो सदियों की जमा पूंजी थी, उस चाबी से प्रकृति के भंडार के दोहन से एकाएक हम समृद्ध हो गए, संपन्न हो गए। यह संपन्नता स्वाभाविक नहीं है, यह तो एकाएक आई है, दूसरी बात यह है कि विकास के नाम पर भी अमीर और गरीब देशो में समान रूप से आज प्रकृति की लूट जारी हैं और इसका हिस्सा बाटने में अमीर देश बाजी मार रहे हैं।

कोरोना संक्रमण से लड़ते हुए श्री बहुगुणा ने 21 मई 2021 को एम्स ऋषिकेश में अंतिम सांस ली। इस तरह पर्यावरण संरक्षण की लोकचेतना का एक दीप बुझ गया। आज बहुगुणाजी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके कार्यों और विचारों की आभा सदियों तक पर्यावरण प्रेमियों के पथ को आलोकित करती रहेगी।

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