अरुंधती धुरू व संदीप पाण्डेय

कोरोना के बाद हमें अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्‍यवस्‍थाएं पटरी पर लाने के लिए क्‍या–क्‍या करना होगा? मसलन-क्‍या हम मजदूरों के काम के घंटों समेत कई तरह की कानूनी सुविधाओं को निरस्‍त करने की तर्ज पर कंपनियों के मुनाफे पर कुछ सालों के लिए रोक लगा सकेंगे? क्‍या आर्थिक ताने-बाने के सर्वाधिक निचले पायदान पर बैठे असंगठित मजदूरों को जीवन-यापन के लिए कुछ सुविधाएं दी जा सकेंगी?

अरुंधती धुरू व संदीप पाण्डेय

भारत की तेजी से विकास करते राष्ट्र की जो भी तस्वीर गढ़ी गई थी, राजीव गांधी द्वारा ‘भारत को 21वीं सदी में ले जाने’ की बात, अटल बिहारी वाजपेयी के ‘चमकते भारत’ की कल्पना, डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा ‘ग्रामीण इलाकों में शहरी सुविधाएं’ मुहैया कराए जाने की अवधारणा, मनमोहन सिंह का ‘सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर 8-9 प्रतिशत’ पहुंचा देना या नरेन्द्र मोदी की ‘स्मार्ट शहरों’ की कल्पना, कोरोना संकट की तालाबंदी में लाखों मजदूरों द्वारा सड़कों पर हजारों किलोमीटर पैदल चलने की घटना ने चूर-चूर कर दी है। ऐसा पूरी दुनिया में कहीं देखने नहीं मिला, क्योंकि शायद इतनी बड़ी संख्या में लोग रोजगार के लिए पलायन नहीं करते अथवा विदेश की सरकारों ने अपने मजदूरों की बेहतर ढंग से देख-भाल की है। अब यह साबित हो गया है कि दुनिया की आर्थिक या सैन्य महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के पास या तो अपने गरीब की देखभाल करने हेतु संसाधन नहीं हैं अथवा राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। जब गरीबों को सबसे ज्यादा मदद की जरूरत थी तो उन्हें बेसहारा छोड़ दिया गया। हालांकि भारत के संविधान में उसकी पहचान ’समाजवादी’ बताई गई है, लेकिन वर्तमान त्रासदी ने भारतीय राज्य द्वारा वर्ग के आधार पर भेदभाव को साफ उजागर कर दिया है और चूंकि भारत में वर्ग और जाति व्यवस्था के वरीयता क्रम में सीधा सम्बन्‍ध है, इस भेदभाव का शिकार ज्यादातर दलितों व पिछड़ों को होना पड़ा है। एक तरफ, अमीरों के बच्चों के लिए मुफ्त बसों का इंतजाम हुआ, तो दूसरी तरफ, गरीबों से बस या रेल का किराया लिया गया। नतीजे में कईयों ने यात्रा का विचार ही त्याग दिया या फिर पैदल या साइकिल पर चलने को मजबूर हुए।

चार मई, 2020 को शराब की बिक्री की इजाजत देकर सरकार ने तालाबंदी का खुद ही मखौल उड़ाया था। पुलिस द्वारा लोगों के समूहों में एकत्रित होने को पहले कड़ाई से रोका जा रहा था, लेकिन शराब खरीदते हुए वह बंद हो गया। ठीक नोटबंदी की तरह शराब की दुकानों पर भी गरीबों की कतार लगी थी। इस तरह शराब की इजाजत देकर सरकार ने न सिर्फ लोगों को एकत्रित होने का बहाना दिया, बल्कि उनके पास की थोड़ी-बहुत रकम परिवार के खाने या दवाई पर खर्च होनी चाहिए थी, वह शराब में उड़ा दी गई।

जले पर नमक छिड़कने जैसे अब मजदूरों से अपेक्षा की जा रही है कि वे अपने अधिकारों को छोड़ दें। कई राज्य सरकारों ने अलग-अलग हदों तक, विभिन्न समयावधि हेतु, श्रम कानूनों को निलम्बित कर दिया है। उत्तरप्रदेश ने सभी श्रम कानूनों को तीन वर्षों तक के लिए स्थगित कर दिया है और गुजरात में न्यूनतम आठ घंटों की कार्यावधि की अनिवार्यता खत्म कर दी है तथा अधिक काम के लिए दी जाने वाली बढी मजदूरी की दर भी अमान्य कर दी है। ‘अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर दिवस’ एक मई को मनाया ही इसलिए जाता है कि 1890 के इसी दिन अमरीकी श्रमिकों ने तय किया था कि आठ घंटों से ज्यादा काम नहीं करेंगे, किंतु हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखण्ड, हरियाणा, मध्यप्रदेश व उत्‍तरप्रदेश की सरकारों ने नजरअंदाज कर दिया। इन राज्‍यों ने कठिन संघर्ष के बाद हासिल आठ घंटे काम की इस उपलब्धि को अध्यादेश जारी करके 12 घंटों या असीमित समय का कर दिया। ये राज्‍य भले ही अपनी-अपनी विधानसभाओं से इस अध्‍यादेश को पारित करवा लें, किंतु न्यायालय से उन्हें मंजूरी मिल पाना मुश्किल होगा। उत्तरप्रदेश में एक मजदूर संगठन ने जब उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की तो सरकार ने आठ मई को जारी 12 घंटे प्रतिदिन और 72 घंटे प्रति सप्‍ताह काम के आदेश अगली सुनवाई से पहले ही वापस ले लिए।

हमारे प्रधानमंत्री को मजदूरों द्वारा उठाई जा रही तकलीफें राष्ट्र के प्रति उनका बलिदान नजर आता है। उन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबके पर बलिदान देने की जिम्मेदारी थोप दी है, जो कि वे जरूर दे रहे हैं – अपना रोजगार गंवा कर, रेल पटरी या सड़क पर दुर्घटना में अपनी जान देकर या सिर्फ हजारों किलोमीटर, भूखे-प्यासे सफर तय करके। इनमें से कई तो महिलाओं व बच्चों के साथ, अपनी सारी अमानत अपने शरीर पर ही लादे चल रहे हैं। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए कि हमारे देश के मजदूरों को सरेआम इस तरह अपमानित होना पड़ रहा है।

यदि मजदूरों से बलिदान की अपेक्षा की जा रही है तो अन्य लोगों, खासकर पूंजीपति वर्ग से क्यों नहीं, जिसके पास अपनी जरूरत से ज्यादा जमा की हुई कमाई है। यदि मजदूरों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे न्यूनतम काम के घंटे अथवा न्यूनतम मजदूरी जैसे अपने अधिकारों को छोड़ दें तो पूंजीपति वर्ग से यह क्यों नहीं कहा जा सकता कि वह अगले तीन वर्षों के लिए अपना मुनाफा छोड़ दें। निजी कम्पनियां अपने ‘निदेशक मण्डल’ की जगह ‘न्यासी मण्डल’ का गठन कर लें व कम्पनी मालिक को ‘प्रबंधक न्यासी’ बना दिया जाए। कम्पनी में काम करने वाले हरेक व्यक्ति को अपने गुजारे भर के लिए तनख्वाह मिलनी चाहिए। आखिर यही तो हम मजदूर से अपेक्षा कर रहे हैं न ? महात्मा गांधी ने पूंजीपतियों को यही सलाह दी थी कि वे अपने को कम्पनी का मालिक न समझ एक न्यासी समझें और यह मानें कि उनकी सारी सम्पत्ति सार्वजनिक हित के लिए है।

हालांकि सबको तनख्वाह अपने कौशल के अनुरूप मिलनी चाहिए, किंतु वांछनीय होगा यदि गांधी के बाद इस देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया के सिद्धांत कि – न्यूनतम व अधिकतम आय में दस गुणा से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए – को मान लें। यदि प्रत्येक संस्था व सरकार में इस मानक का पालन होने लगे तो देश कोरोना संकट से प्रभावशाली तरीके से निपट सकता है। यदि उत्तरप्रदेश में ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी’ (मनरेगा) कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी की दर 202 रुपए प्रतिदिन है तो उत्तरप्रदेश में सरकारी या निजी क्षेत्र में किसी की भी तनख्वाह 2,020 रुपए प्रतिदिन या 60,600 रुपए  मासिक से ज्यादा न हो। यदि कोई कम्पनी अपने खर्च से ज्यादा कमाई करती है तो वह मुनाफा सरकारी  खाते में चला जाए और बदले में सरकार उसके कर्मचारियों के लिए आयकर माफ कर दे।

यदि ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ (एनएफएसए) का दायरा विस्तृत कर उसका लोक-व्यापीकरण कर दिया जाए, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, दूर-संचार व बैंक का राष्ट्रीयकरण हो जाए तो कोई वजह नहीं कि कोई भी परिवार उपर्युक्त आय में अपना खर्च क्यों न चला सके। कई देशों ने शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त कर रखी हैं, ताकि आम नागरिक को कोई परेशानी न उठानी पड़े। इसी तरह एक विवेकपूर्ण नीति है, सार्वजनिक यातायात को निजी वाहनों पर प्राथमिकता देने की। यदि सेवा-भाव से सार्वजनिक काम करने वाले लोग, जैसे कोरोना संकट के समय में काम करते बहुत सारे लोग दिखे, स्वैच्छिक रूप से या न्यूनतम वेतन पर सार्वजनिक पदों को सुशोभित करते, तो सरकार के काम-काज में कार्यकुशलता आ जाती और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगता। इस तरह बुद्धिमानी-पूर्वक नीतियों का चयन कर जीवन चलाने के खर्च को कम किया जा सकता है। कोरोना संकट के दौर में लगभग सभी लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं ही पूरी कर रहे हैं व आधुनिक जीवन के भोग-विलास की चीजों को छोड़ दिया गया है। जो जीवन-शैली हमारे ऊपर लागू की गई है, उसमें से कुछ चीजें हम स्वेच्छा से अपना भी सकते हैं। जब तक हम सादा जीवन के आदर्श को नहीं अपनाएंगे तब तक हमारे लिए कोरोना की वजह से ध्वस्त हो गई अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना आसान न होगा। (सप्रेस)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें