हमारे देश में वायु-प्रदूषण के साथ-साथ जल एवं शोर-प्रदूषण तथा कृषि के रसायन भी शिशुओं तथा नवजात को प्रभावित कर रहे हैं। बच्चों को कुपोषण तथा अल्पपोषण की स्थिति इन सभी प्रभावों को ज्यादा गंभीर बना देती है। कुछ प्रयासों के अलावा बच्चों पर प्रदूषण के प्रभाव का मुद्दा ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। क्या हम व्यक्ति, परिवार, समाज और सरकार की अपनी-अपनी हैसियत से बच्चों की बेहतरी के बारे में कोई अपेक्षित पहल कर पाते हैं? क्या हम उन्हें वायुमंडल में फैले प्रदूषण से बचा पाते हैं?
हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘बच्चे देश का भविष्य हैं।’ उनके इस कथन को यदि वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो बच्चों का यह भविष्य प्रदूषण की चपेट में है। इसका कारण यह है कि कई प्रयासों के बावजूद वायु-प्रदूषण तेजी से फैल रहा है। इसी वर्ष के प्रारंभ में जारी ‘एअर क्वालिटी रिपोर्ट’ (वायु गुणवत्ता रिपोर्ट) के अनुसार विश्व के 30 प्रदूषित शहरों में 22 हमारे देश के हैं। ‘क्लाईमेट ट्रेंड’ की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि उत्तरप्रदेश की 99.4 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। अमरीका के शिकागो, हावर्ड तथा येल विश्वविद्यालयों के सर्वेक्षणों के अनुसार देश के 66 करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां वायु-प्रदूषण (विशेषकर महीन कण/पीएम 10 एवं 2.5) निर्धारित मानकों से ज्यादा हैं।
देश में चारों और फैलता एवं बढ़ता वायु-प्रदूषण अब गर्भस्थ शिशुओं तक पहुंचकर कई विपरित प्रभाव पैदा कर रहा है। विषैली गैसों के साथ-साथ महीनकण पीएम 10 एवं 2.5 ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। गर्भवती महिलाओं के श्वसन के दौरान ये कण शरीर में खींच लिए जाते हैं एवं कुछ गर्भनाल (प्लेसेंटा) तक पहुंचकर वहां एकत्र हो जाते हैं। इस कारण शिशु या भ्रूण को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है एवं उसका विकास प्रभावित होता है। ‘आयआयटी – दिल्ली’ तथा ‘भारतीय सांख्यकीय संस्थान’ के एक प्रारंभिक अध्ययन के अनुसार गर्भधारण के प्रथम तीन माह के दौरान शिशु की लम्बाई 7.9 तथा वजन 6.7 फीसदी कम हो जाता है।
ज्यादातर चिकित्सकों का मत है कि छोटे शिशु पर प्रदूषण का प्रभाव ज्यादा होता है। वायु प्रदूषण के जो प्रभाव देखे गये हैं उनमें प्रमुख हैं – समय पूर्व प्रसव, कम वजन एवं ह्दय, मस्तिष्क तथा फेफड़ों में जन्मजात विकृतियां। ‘लैंसेट’ चिकित्सा शोध पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार विश्व में समय पूर्व पैदा चार बच्चों में से एक हमारे देश का होता है। बढ़ते प्रदूषण से महानगर में समय पूर्व प्रसव में 20 से 25 प्रतिशत के लगभग वृद्धि हो रही है। कम वजन वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है। वर्ष 2017 में हमारे देश में 9.7 करोड़ कम वजन के बच्चे पैदा हुए थे जो उस समय विश्व में सर्वाधिक थे।
समय पूर्व एवं कम वजन के बच्चे को कई शारीरिक व मानसिक दुर्बलताएं आगे के जीवन में झेलना पड़ती हैं। लंदन के ‘एनवायरोनमेंटल हेल्थ प्रास्पेक्टीव’ ने नौ देशों के 30 लाख शिशुओं पर अध्ययन कर बताया है कि वायु-प्रदूषण के प्रभाव से पैदा बच्चों में बड़े होने पर मधुमेह एवं ह्दय तथा फेफड़े रोगों की संभावना काफी अधिक रहती है। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार वायु-प्रदूषण के प्रभाव से पैदा बच्चे ज्यादा आक्रामक, गुस्सैल, चिड़चिड़े तथा आपराधिक प्रकृति के होते हैं।
इस प्रकार से किए गये कई अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि वायु-प्रदूषण के प्रभाव से पैदा बच्चों की पीढ़ी मानसिक एंव शारीरिक स्तर पर एकदम स्वस्थ नहीं होगी। पैदा होने के बाद भी तीन कारणों से बच्चों पर वायु-प्रदूषण का असर (प्रभाव) ज्यादा होता है। प्रथम, अधिक क्रियाशील होने से बच्चों की श्वसन-दर वयस्कों की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा होने से अधिक प्रदूषणकारी पदार्थ शरीर में पहुंचते हैं। दूसरा, कम ऊंचाई होने से बच्चे वायुमंडल के जिस स्थान पर सांस लेते हैं वहां प्रदूषणकारी पदार्थ ज्यादा होते है। तीसरा, बच्चे कई बार नाक एवं मुंह दोनों से सांस लेते हैं जिससे ज्यादा प्रदूषण शरीर में पहुंचता है।
सड़क किनारे स्कूलों में पढ़ने वाले तथा स्कूल आने-जाने के लिए लम्बे समय तक बस में समय गुजारने वाले बच्चों में अस्थमा तथा कफ के खतरे काफी बढ़ जाते हैं। ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ (आयसीएमआर) के अध्ययन के आधार पर गर्भस्थ शिशुओं पर हो रहे वायुप्रदूषण के प्रभाव को लेकर दिल्ली के डॉ. संजय कुलश्रेष्ठ ने मार्च 2019 में सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसमें संविधान के अनुच्छेद – 21 का संदर्भ देकर कहा गया था कि कोख में पल रहे शिशु को भी स्वस्थ पैदा होने का अधिकार है।
दिल्ली के ‘गुरू तेगबहादुर अस्पताल’ में भी गर्भस्थ शिशुओं पर वायु-प्रदूषण के प्रभावों का अध्ययन आधुनिक विधियों से किया जा रहा है। हमारे देश में वायु-प्रदूषण के साथ-साथ जल एवं शोर-प्रदूषण तथा कृषि के रसायन भी शिशुओं तथा नवजात को प्रभावित कर रहे हैं। बच्चों को कुपोषण तथा अल्पपोषण की स्थिति इन सभी प्रभावों को ज्यादा गंभीर बना देती है। कुछ प्रयासों के अलावा बच्चों पर प्रदूषण के प्रभाव का मुद्दा ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। इसका कारण पर्यावरण की एक पत्रिका ‘एनवायरोनमेंटल अवेअरनेस’ में दिया गया है, जो आज भी सटीक एवं प्रासंगिक है – ‘बच्चों की कोई आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां नहीं होतीं।‘ (सप्रेस)
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