अमिताभ बेहार

‘सिविल सोसाइटी’ के बढ़ते ‘संस्थानीकरण’ के दौर में काम को ‘सुव्यवस्थित’ रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि ‘सिविल सोसाइटी’ अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से ‘सिविल सोसाइटी’ का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। रिश्‍ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दो गंभीर नुक्सान हुए हैं – पहला कि सरकार और बाजार, दोनों के सामने ‘सिविल सोसाइटी’ की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायों से नज़दीकी ही ‘सिविल सोसाइटी’ की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़ गयी है। (अमिताभ बेहार द्वारा लिखा गया यह लेख पहले अंग्रेजी में ‘इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू’ की वेबसाइट पर छपा था और इस पर उसकी बेबाकी और पैने सवालों के कारण काफी चर्चा हुयी थी। इसका संपादित हिन्‍दी अनुवाद ईशान अग्रवाल ने किया है। )

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2020 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिस पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। अदालत ने ‘इंसाफ’ (इंडियन सोशल एक्शन फोरम) नामक स्‍वयंसेवी संस्था के पक्ष में फैसला सुनाते हुए ‘विदेशी अंशदान विनियमन क़ानून– 2011’ (एफसीआरए) के मौजूदा प्रावधानों के ठीक विपरीत ‘सिविल सोसाइटी’ के ‘राजनीतिक उद्देश्य से हस्तक्षेप करने के अधिकार’ को वैध ठहराया है। इस फैसले को भारत में जनतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। ख़ासतौर से मौजूदा दौर में इसकी बडी अहमियत है।

इस फैसले के केंद्र में “राजनीतिक उद्देश्य या कहिये सत्ता पाने के उद्देश्य से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप” और “सामाजिक या मानवाधिकारों की दृष्टि से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप” के बीच का फर्क है जो कि ‘सिविल सोसाइटी’ को हक़ देता है कि वह इस देश के करोड़ों मज़लूमों के लिए आवाज़ उठाये। जनतंत्र और अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए राजनीतिक कार्यों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वैध ठहराया है। 

हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि इन कार्यों के लिए देश में ही जुटाई गयी राशि बेहतर रहेगी, पर फैसले ने विदेशी धनराशि के उपयोग को भी वैध ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रकट करने के वैध तरीकों को प्रयोग करने के कारण किसी ‘सिविल सोसाइटी’ या संस्था को राजनीतिक संस्था नहीं माना जा सकता और इसके लिए उस संस्था को दण्डित करना अनुचित है। 

इस फैसले के दूरगामी प्रभावों के बावज़ूद, ‘सिविल सोसाइटी’ ने इस पर कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखलाया है। जाहिर है, इस शिथिल प्रतिक्रिया से कुछ सवाल उठते हैं। जैसे कि क्या “इंसाफ” की लड़ाई बेकार गयी? क्या इसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया? या ‘सिविल सोसाइटी’ अपनी राजनीतिक भूमिका को लेकर उदासीन है। इस फैसले के दौरान देशभर में सामाजिक समरसता को होने वाले खतरों के विरुद्ध एक आंदोलन चल रहा था और दिल्ली उसके केंद्र में थी। फिर भी अधिकांश संस्थाओं ने न तो इस आंदोलन के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखाई न ही उसका मैदानी समर्थन किया। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? अधिकांश सामाजिक संस्थाएं अपने ‘मिशन’ और ‘विज़न’ में जिन मूल्यों का ज़िक्र करती हैं, उनमें न्याय, समता, सामाजिक-समरसता, पंथ-निरपेक्षता आदि प्रमुख हैं। दूसरे शब्दों में, संस्थाओं के उद्देश्यों में ऐसे विशुद्ध राजनीतिक मूल्यों के व्यक्त होने के बावजूद यदि संस्थाएं इस निर्णय को तवज्जो नहीं देतीं तो आश्चर्य होना लाज़िमी है। 

आज की परिस्थितियों में, जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताक़तें संवैधानिक मूल्यों और जनतंत्र का गला घोंटने में लगी हैं, ‘सिविल सोसाइटी’ को खुद के अ-राजनीतिकरण के प्रश्न से जूझना ही चाहिए। 

दान और एक्टिविज़्म : क्या ये एक जीरो सम गेम है?

भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों, दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की ज़रुरत होगी। ऐसी संस्थाएं और ट्रस्ट जो भूखों को खाना खिलाएं, बेसहारों को शरण दें, उन्हें जरूरी पूँजी पहुंचाएं जिससे वे अपना जीवन-यापन कर सकें। साथ में ऐसी सामाजिक संस्थाओं की भी ज़रुरत होगी जो इस पूरे मुद्दे को, लोगों पर करुणा की दृष्टि से नहीं, उनके अधिकारों की दृष्टि से देखें। वे जो दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को आवाज़ दे सकें। वे जो पेड़ों, जंगलों, नदियों, जीव-जंतुओं की भी आवाज़ बन सकें और राज्य या पूंजीपति यदि गरीबों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहे हों, तो न्याय के लिए लोगों को खड़ा कर सकें। वे जो किसी-न-किसी तरह इस देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपना योगदान दें। शक्ति का लोकतांत्रीकरण ‘सिविल सोसाइटी’ के वजूद की एक माक़ूल वजह है। इसे चाहे किसी भी तरह, किसी भी खाके से पाने की कोशिश की जा रही हो, ‘सिविल सोसाइटी’ का एक बड़ा तबका असल में इसी कोशिश के लिए पैदा हुआ था, लेकिन इसके बावजूद आज ‘सिविल सोसाइटी’ ऐसी स्थिति में हैं जहाँ वह बात तो गंभीर राजनीतिक चिंतन की करती है, पर उसे क्रियान्वित करने में अराजनीतिक होती हैं या होना चाहती हैं।

आज सिविल सोसाइटी गैर-राजनीतिक क्यों है?

पिछले कुछ दशकों में ‘सिविल सोसाइटी,’ जो जन-संगठनों और आंदोलनों के रूप में जानी जाती थी, अब वित्त-पोषित संस्थाओं के रूप में जानी जाती है। इनमें से कुछ संस्थाओं के पास काफी संपत्ति इकट्ठी हो गयी है, जैसे कि इमारतें, प्रशिक्षण केंद्र, बड़ी संख्या में तनख्वाह-याफ्ता कर्मचारी आदि। समय के साथ यही संथाएं छोटी संस्थाओं के लिए रोल मॉडल बन गयी हैं। 

इन बड़ी संस्थाओं को चलाते रहना ही अपने आप में एक बड़ा काम बन गया है और समाज के ताक़तवर वर्ग के सामने इनकी सवाल उठाने की क्षमता कम होती जा रही है। इन संस्थाओं को चलाने के चक्कर में संगठन की ताक़त संसाधनों को जुटाने में ही खर्च होने लगी है। इसी के साथ सरकारी दमनकारी नीतियों ने संगठनों की सवाल उठाने की क्षमता पर दोहरा आघात किया है। इस रास्ते पर चलते हुए ‘सिविल सोसाइटी’ को कई बार अराजनीतिक भूमिका लेनी पड़ी है, ताकि उनकी संस्था पर कोई आंच न आये। यह बात उन संस्‍थाओं पर ज्‍यादा लागू होती है, जो विदेशी अनुदान पर आश्रित हैं और जिन्‍हें राजनीतिक हलकों में हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है।  

जाहिर है, संस्थाओं की आदत पड़ गयी है कि वे कभी-कभार सवाल पूछें, पर उन पर टिकी न रहें, ताकि उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताक़तों का कोपभाजन न बनना पड़े। इस बात पर ध्यान देना ‘सिविल सोसाइटी’ ने कम कर दिया कि वंचितों के हित में बदलाव लाने की कीमत चुकानी पड़ती है। 

‘सिविल सोसाइटी’ का पेशेवरीकरण 

शुरुआत में ‘सिविल सोसाइटी’ को अक्षम या नकारा कहकर बहुत आलोचना की गयी। नतीजे में संस्थाओं को पेशेवर बनाने पर बड़ा ज़ोर दिया जाने लगा। इस ‘व्‍यवसायिकता’ या ‘पेशेवरीकरण’ की लहर में संस्थाओं के कामकाज में नौकरशाही के गुण और प्रक्रियाएं भी घर कर गयीं। इस पूरी प्रक्रिया में ‘सिविल सोसाइटी’ का ‘जुनून’ और ‘स्वैच्छिक’ स्वभाव ख़त्म हो गया। इससे अपने काम को राजनीतिक समझने की नज़र भी कमज़ोर पड़ी, बल्कि गैर-बराबरी और अन्याय जैसे घोर राजनीतिक मुद्दे भी एक मैनेजर की दृष्टि से सुलझाने की कोशिश होने लगी। 

‘सिस्टम एप्रोच’ का सतही प्रयोग 

‘व्‍यवसायिक प्रबंधन’ (बिज़नेस मैनेजमेंट) के तौर-तरीकों से ‘सिविल सोसाइटी’ में कुशलता (एफीसिएन्‍सी) और प्रभाव (इम्‍पैक्‍ट) जैसे कई शब्दों ने जड़ें जमा लीं। इसके साथ ‘फैलाव’ (स्केल) का दबाव भी बहुत बढ़ गया, जिससे कुल मिलाकर ‘सिविल सोसाइटी’ का अराजनीतिकरण और बढ़ गया। हम अब संगठनों के ‘मिशन’ और ‘विज़न’ से आगे आ गए हैं और पूरा काम ‘दान-दाता’ (डोनर) संस्था द्वारा दिए गए ‘प्रोजेक्ट’ के अनुसार होने लगा है। 

कुछ संस्थाएं अपने आपको इसके बाहर देखने लगी हैं। उन्होंने ‘सिस्टम एप्रोच’ को अपनाने के प्रयास किये हैं जिसमें एक साफ़ समझ है कि सामाजिक बदलाव कोई एक तरह के ख़ास प्रयासों (या कहिये प्रोजेक्टों) से नहीं आएंगे। ‘सिस्टम एप्रोच’ समस्या को कई स्तरों, कई तरह की पेचीदगियों के साथ देखती है। मसलन-जंगलों के कटने का कारण सिर्फ आबादी बढ़ना या कम पेड़ लगाना भर नहीं है, बल्कि ऐसे बहुत से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिनका उत्तर सिर्फ पेड़ लगाना नहीं हो सकता। ‘सिस्टम एप्रोच’ ने संस्थाओं की प्रोजेक्ट से बाहर झाँकने में मदद तो की है, वह उसकी भाषा भी बन गई है, पर दुर्भाग्य से वह उनकी कार्यप्रणाली, बजट और ‘नियमन’ (मॉनिटरिंग) का हिस्सा नहीं बनी है। अधिकतर ‘दानदाता’ संस्थाएं भी बात तो ‘सिस्टम चेंज’ की करती हैं, पर ‘फंडिंग’ उसी कम अवधि, समय आधारित मानदंडों के अनुसार करती हैं। उनके मानदंड प्रोजेक्ट के ‘लौगफ्रेम’ विश्लेषण के आधार पर ही होते हैं न कि ‘सिस्टम अप्रोच’ के आधार पर। इसका मतलब यह है कि संस्थाएं अपने ही बनाये लक्ष्य से भटक रही हैं, उनके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता या कहिये लक्ष्य पर यकीन कम हो गया है। 

‘सिविल सोसाइटी’ का एक विशेष ढांचे में काम करना 

‘सिविल सोसाइटी’ के बढ़ते ‘संस्थानीकरण’ के दौर में काम को ‘सुव्यवस्थित’ रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि ‘सिविल सोसाइटी’ अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से ‘सिविल सोसाइटी’ का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। रिश्‍ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दो गंभीर नुक्सान हुए हैं – पहला कि सरकार और बाजार, दोनों के सामने ‘सिविल सोसाइटी’ की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायों से नज़दीकी ही ‘सिविल सोसाइटी’ की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़ गयी है। बहुत सी संस्थाएं अब भी इस बात पर यकीन नहीं करतीं और समुदाय  केंद्रित नज़रिये की बजाए तकनीकी विशेषज्ञों वाली नज़र से अपने काम को देखती हैं। दूसरा नुकसान है, जगह खाली होने के कारण उसमें रूढ़िवादी, कट्टरपंथी तत्वों का समुदायों से करीबी रिश्ते बनाने में कामयाब होना। देश में दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के पीछे यह एक प्रमुख कारण है। 

सिविल सोसाइटी का हाशिये पर जाना 

‘सिविल सोसाइटी’ की सोच और तौर-तरीकों में बदलाव के कारण आज वह रिसर्च, पैरवी, पॉलिसी के विषयों और अभियानों पर तो काम करती है पर लोगों को संगठित और लामबंद करने में उसकी भूमिका कम होती जा रही है। 

‘सिविल सोसाइटी’ अहिंसा के खाके के अंदर रह कर ही काम कर सकती है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि हमारे पास गैर-बराबरी और अन्याय से लड़ने के लिए हथियारों की कमी है। चूँकि हमने अपनी ताक़त के स्रोत को ही नकार दिया है, इसलिए हम राजनीतिक या आर्थिक या सामाजिक विमर्श के दायरे से बाहर किये जा रहे हैं। 

इसका एक नमूना हम देश में ही हुए ‘सीएए’ विरोधी आंदोलन के अलावा पिछले वर्षों में दुनियाभर में हुए बडे और प्रभावी आंदोलनों में देख सकते हैं। इनका नेतृत्व ‘सिविल सोसाइटी’ की बजाए नागरिकों के पास रहा है। ‘सिविल सोसाइटी’ अपनी अराजनीतिक भूमिका में इस नए विमर्श में कहीं नहीं दिखी। ‘सिविल सोसाइटी’ को इस संकट का उत्तर अपने में ढूंढना ही होगा,  नहीं तो कुछ ही समय में हम बिलकुल गैर-ज़रूरी हो जायेंगे।(सप्रेस)   मूल लेख – https://idronline.org/civil-societys-road-to-irrelevance/ पर पढ सकते हैं।

1 टिप्पणी

  1. लेख को पढ़ कर मन पुनःआज से 18 बरस पहले की सौच,वैचारिक स्वैछिक अलाभ कारी संगठन साथ बंचित, दबे, कुचले दमित, संवैधानिक तौर ,एवं पितृसत्तातात्मक विचारधारा,के व्यापत होने के कारण महिलाआओं,दलित,मुसलमानों के अधिकारों सुरक्षा, सम्मान, संरक्षण, के लिए संगठनों की न्यायिक पहल अब इस दौर में लुप्त होती जा रही हैं व्यक्तिगत स्वार्थ पल रहा है समाज की दुर्दशा पर चिन्तन कम है जो कि शोषण, हिंसा, ठगी, अराजकता को बढ़ावा मिल रहा है और लोकतंत्र का महत्व समाप्त की और है क्योंकि समुदाय संगठनों का हस्तक्षेप ,सहयोग में कमी आई केवल जिसका मुद्दा उसकी अगुवाई का चलन हमारी सोच में पनप रहा है। जिसका खामयाजा पूरे समाज को उठाना पड़ रहा है।

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