हमारे समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द ‘विकास’ है और इसके प्रभाव में अधिकांश देशवासी कराह रहे हैं, लेकिन इसे लेकर किसी राजनीतिक मंच पर गहराई से विचार-विमर्श नहीं होता। उलटे मौजूदा विकास की अवधारणा को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। जल, जंगल, जमीन, पुनर्वास-विस्थापन, कृषि, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे राजनीतिक जमातों की गतिविधियों के बाहर होकर अब कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के सरोकारों में शामिल हो गए हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में सरकार का पक्ष रखते हुए प्रधानमंत्री ने भले ही ‘आंदोलनजीवी,’ ‘परजीवी’ आदि कहकर आंदोलनकारियों की खिल्ली उडाई हो, लेकिन प्रकारांतर से उन्होंने हाल की भारतीय राजनीति और अपनी राजनीतिक बिरादरी की पोल ही खोली है। इससे राज्य और केन्द्र में राजनीति करने वाली मुख्यधारा की उन तमाम राजनीतिक जमातों पर भी सवाल उठ गया है जिनने अस्सी के दशक के बाद समाज को मथने, हलाकान करने वाले मुद्दों को सिरे से अनदेखा छोड दिया था।
राष्ट्रीय स्तर पर घटित हाल की घटनाओं को ही लें तो राजनीति के सरोकार साफ हो जाते हैं। अभी पिछले ही हफ्ते उत्तराखंड के पहाडी क्षेत्र में आई भीषण बाढ और नतीजे में सैकडों इंसानों के जीवन समेत उनके घर-बार की बर्बादी हुई है। इस त्रासदी की वजह बताई जा रहीं और उसमें ध्वस्त हो चुकीं नव निर्मित दो जल-विद्युत परियोजनाओं – तपोवन और ऋषिगंगा के औचित्य को लेकर कथित ‘आंदोलनजीवी’ ही आवाज उठाते रहे हैं। इन और हिमालय जैसे ‘बच्चा पहाड’ में बन रहीं ऐसी ही दर्जनों परियोजनाओं को तत्काल बंद करवाने के लिए देश के एक जाने-माने ‘आंदोलनजीवी’ और वैज्ञानिक, प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद ने 112 दिन के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए थे। उनके पहले स्वामी निगमानंद और बाद में अनेक संत-महात्माओं ने भी गंगा को अविरल बहने देने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी।
‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ (आईआईटी) – कानपुर के प्राध्यापक, ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के पहले सदस्य-सचिव, ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय’ के सलाहकार और चित्रकूट ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ में प्राध्यापक जैसे जिम्मेदार पदों पर रहे कथित ‘आंदोलनजीवी’ जीडी अग्रवाल उत्तराखंड की 14 नदी-घाटियों में बनी और बन चुकी 220 से अधिक छोटी-बडी विनाशकारी जल-विद्युत परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे, उस समय राजनीतिक जमातें क्या कर रही थीं? भरी-पूरी राजनीतिक बिरादरी के मुख्यधारा कुनबे में सिर्फ दो नाम सामने आते हैं – प्रणव मुखर्जी और उमा भारती, जिन्होंने गंगा और उनकी सहायक नदियों को बचाने की अपने स्तर पर कोई पहल की थी।
सन् 2010 में डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार में केन्द्रीय जल-संसाधन विभाग संभाल रहे प्रणव मुखर्जी ने जीडी अग्रवाल के उपवास की प्रतिक्रिया-स्वरूप गंगा के एन मुहाने पर बन रही ‘लोहारी-नागपाला’ परियोजना पर ताला जड दिया था। इसी तरह तत्कालीन ‘गंगा संरक्षण’ मंत्री उमा भारती ने अपने मंत्रालय की तरफ से शपथ-पत्र देकर सुप्रीमकोर्ट में गंगा पर बनी या प्रस्तावित जल-विद्युत परियोजनाओं को रोकने की मांग की थी। कमाल यह था कि उमा भारती की पार्टी के ही पर्यावरण मंत्री ने ‘गंगा संरक्षण’ मंत्रालय के ठीक विपरीत बांध परियोजनाओं की तरफदारी की थी।
राजनेताओं के बीच का यह दुराव अभी भी दिखाई दे रहा है। उत्तराखंड की त्रासदी के दौरान वहां की यात्रा कर रहीं उमा भारती का कहना है कि ‘उत्तराखंड के बांधों के बारे में मंत्री रहते हुए मैंने शपथ-पत्र देकर आग्रह किया था कि हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है, इसलिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर पॉवर प्रोजेक्ट नहीं बनना चाहिए।‘ लेकिन उन्हीं की पार्टी के केन्द्रीय ‘ऊर्जा मंत्री’ आरके सिंह ने तपोवन त्रासदी का सिर्फ जायजा लेते हुए घोषित कर दिया कि ‘तपोवन परियोजना का काम दुबारा शुरु होगा।‘ विडंबना यह है कि 85 फीसदी बन चुकी ‘तपोवन’ परियोजना को 2023 में लोकार्पित किया जाना था, लेकिन हाल की त्रासदी ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया है।
समाज की बुनियादी समस्याओं को पीठ दिखाने की राजनेताओं की आदत दिल्ली की चौहद्दी पर जारी किसान आंदोलन में भी दिखाई देती है। करीब तीन महीने से कडकती ठंड, बरसात और बिजली-पानी-शौचालय की अनुपस्थिति में धरना देकर बैठे कथित ‘आंदोलनजीवी’ किसानों ने राजनीतिक पार्टियों से जुडे लोगों को अपने मंचों से कोई यूं ही सेंत-मेंत में दूर नहीं रखा है। इसकी वजहें हैं। अव्वल तो तरह-तरह के डंडों-झंडों वाली राजनीतिक जमातों में मुद्दे पर एकमत नहीं बन पाता और दूसरे, उनकी प्राथमिकता वोट यानि चुनाव यानि सत्ता की सवारी गांठना भर होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या किसानों की समस्याएं राजनीतिक जमातों के एजेंडे में पहले नहीं उठीं होतीं?
साठ के दशक में ‘भारी लागत से भारी उत्पादन’ वाली ‘हरित क्रांति’ तब के राजनीतिक नेतृत्व की पहल पर लाई गई थी, लेकिन क्या उसके बाद के राजनेताओं ने ‘हरित क्रांति’ के प्रभावों पर रत्तीभर भी ध्यान दिया? क्या इसी ‘हरित क्रांति’ के बहाने देशभर में बनाए गए बडे बांधों के प्रभावों, यहां तक कि लाभ-हानि पर भी किसी राजनीतिक फोरम में चर्चा हुई? विशालकाय बांधों और उनकी मार्फत होने वाली ‘असीमित’ सिंचाई ने उत्पादक मिट्टी को बर्बाद कर दिया है। सरकारी आंकडे बताते हैं कि मिट्टी की उत्पादकता आधी रह गई है, लेकिन क्या किसी राजनीतिक पार्टी ने इसकी गंभीरता को समझकर इस पर चर्चा की?
देश के बीचमबीच बसे शहर भोपाल में 1984 में दुनिया की सर्वाधिक भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई थी। इसकी चपेट में आए हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पडी थी और आज भी लाखों भोपाली इसकी भीषणता को भोगते देखे जा सकते हैं। लेकिन बदल-बदलकर सत्ता पर काबिज होने वाली राजनीतिक पार्टियों ने इस मसले को या तो छिपाने की कोशिशें कीं या फिर औने-पौने मुआवजे से निपटा दिया। जिन ‘आंदोलनजीवियों’ ने इस मुद्दे को जिलाए रखा वे हमेशा ही राजनीतिक जमातों के निशाने पर रहे।
हमारे समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द ‘विकास’ है और इसके प्रभाव में अधिकांश देशवासी कराह रहे हैं, लेकिन इसे लेकर किसी राजनीतिक मंच पर गहराई से विचार-विमर्श नहीं होता। उलटे मौजूदा विकास की अवधारणा को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। जल, जंगल, जमीन, पुनर्वास-विस्थापन, कृषि, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे राजनीतिक जमातों की गतिविधियों के बाहर होकर अब कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के सरोकारों में शामिल हो गए हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
अस्सी के दशक तक राजनीतिक पार्टियां जमीनी मुद्दों पर सक्रिय रहीं। जमीन, पानी, भूख, मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे और उन्हें लेकर राजनीतिक पार्टियां खासी सक्रिय रहती थीं। धीरे-धीरे संसदीय लोकतंत्र ने राजनीति को चुनाव की चपेट में ले लिया। अब राजनीतिक जमातों का एकमात्र और सर्वाधिक जरूरी काम चुनावों में जीतना हो गया। जाहिर है, चुनाव केन्द्रित राजनीति ने आम लोगों के मुद्दों को राजनीति से दूर कर दिया। अब एक-सी त्रासदियां बार-बार होती हैं, लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी को उससे सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती। उत्तराखंड में ही करीब सात साल पहले, 2013 में, केदारनाथ में ठीक ऐसी ही त्रासदी घटी थी। कई गैर-दलीय संगठनों, कथित ‘आंदोलनजीवियों,’ स्वतंत्र वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने इस पर अपनी रायें दी थीं, लेकिन राज करने वाली राजनीतिक जमातों ने इससे कुछ नहीं सीखा। विकास के नाम पर ठीक केदारनाथ के पहले की हरकतें दुहराई गईं और नतीजे में एक और त्रासदी झेलनी पडी।
जाहिर है, सत्ता पर चढती-उतरती राजनीतिक जमातों के निस्तेज पडते जाने के कारण समाज ने अपने गैर-दलीय समूह गठित कर लिए। ये समूह दलीय राजनीति के चुनाव-केन्द्रित ढांचे से बाहर, आम लोगों के बुनियादी सवालों को लेकर सामने आने लगे। प्रधानमंत्री द्वारा ‘आंदोलनजीवी’ की हैसियत से नवाजे जाने वाले आंदोलनकारी असल में ये ही हैं। ध्यान रखिए, समाज का इन कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के बिना नहीं चलता। (सप्रेस)
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