डॉ. ओ.पी.जोशी

अपने यहां एक कहावत है कि ‘फिसल पडे तो हर गंगा’ यानि किसी उद्देश्‍य के लिए कुछ करते हुए, कुछ दूसरे, बिलकुल अनपेक्षित सकारात्‍मक नतीजे मिल जाना। ‘कोविड-19’ की मार में करीब दो महीने से लगे ‘लॉक डाउन’ ने दुनियाभर की पारिस्थितिकी के साथ लगभग ऐसा ही किया है। जगह-जगह इसके सबूत उजागर होने लगे हैं कि कैसे इंसानी गतिविधियां पर्यावरण, पारिस्थितिकी को प्रभावित और बर्बाद करती रही हैं। मानवीय गतिविधियों पर लगी रोक ने हमारे सामने खुलासा कर दिया है कि संसार को बनाए रखने के लिए कठोर आत्‍मसंयम बेहद जरूरी है।

कोरोना वायरस से फैली महामारी की रोकथाम हेतु दुनिया के कई देशों में अलग-अलग समयावधि की तालाबंदी (लॉक डाउन) की गयी है। इस तालाबंदी के कारण अर्थव्यवस्था (इकानामी) को तो करोड़ों रुपयों की हानि हुई है, परंतु पारिस्थितिकी (इकोलाजी) में काफी सुधार हुआ है। विभिन्न देशों के पर्यावरण विभाग, मंत्रालय, कई सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएं, असंख्य संगठन एवं कई प्रकार के नियम, कानून, अध्यादेश, न्यायालयीन फैसले एवं चेतावनियों आदि से जो कार्य कई वर्षों में नहीं हो पाया, वह इस तालाबंदी के छोटे से समय में हो गया।

विश्व के कई देशों के साथ-साथ हमारे देश की इकोलाजी में भी कई सुधार देखे गये। महानगरों के साथ 400 शहरों में हवा इतनी साफ हो गयी है कि दिन में नीला आकाश एवं रात को तारामंडल साफ दिखायी देने लगे हैं। कुछ शहरों से तो आसपास के पर्वतों की चोटियां भी दिखायी देने लगी हैं। शोर, ध्‍वनि-प्रदूषण कम होने से पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा है। कई पशु-पक्षी शहरों के आसपास तथा सड़कों पर विचरण करते देखे जाने लगे हैं। गंगा, यमुना एवं नर्मदा जैसी विशाल नदियों के अलावा अन्य कई छोटी-बड़ी नदियां, तालाबों एवं झीलों का पानी इतना साफ हो गया है कि उनमें मछलियां स्‍पष्‍ट दिखायी देने लगी हैं। कुछ शहरों के आसपास भूजल-स्तर में भी काफी सुधार हुआ है। कचरा कम पैदा हुआ है एवं शहरी तथा जंगल के पेड़ भी कटने से बच गये हैं।

पिछले कई वर्षों से दुनिया भर में विकास (आर्थिक) पर तो काफी ध्यान दिया गया, परंतु इससे पारिस्थितिकी, इकोलाजी की काफी हानि हुई। वर्ष 1950 से 2000 तक विश्व की आर्थिक स्थिति में सात गुना वृद्धि हुई, परंतु इसके कारण 50 प्रतिशत उपजाऊ भूमि एवं जंगल समाप्त हो गये तथा दो-तिहाई समुद्री भाग प्रदूषित हो गया। ‘वर्ल्‍ड इकॉनॉमिक फोरम’ द्वारा 2010 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले तीन दशक में विश्व अर्थव्यवस्था 40 गुना बढी है और इसका लाभ करोड़ों लोगों को कई प्रकार से हुआ भी है, पंरतु इससे पृथ्वी पर उपस्थित प्रमुख पारितंत्रों, (पारिस्थितिक तंत्रों, इकोसिस्टम) से होने वाले पर्यावरणीय लाभ 60 प्रतिशत से ज्यादा कम हो गये हैं। यह सम्भावना बतायी जा रही है कि ये लाभ भविष्य में और कम होकर समाप्त हो जावेंगे। किसी क्षेत्र विशेष में वहां के जीव अपने पर्यावरण के साथ जो संतुलन बना लेते हैं उसे वहां का पारितंत्र कहा जाता है।

अर्थशास्त्र एवं पारिस्थितिकी में एक आधारभूत अंतर यह है कि अर्थशास्त्र में वस्तु को बाजार-भाव से बेच दिया जाता हैं, जबकि पारिस्थितिकी के प्राकृतिक संसाधन, जो अदृश्य रूप से पर्यावरण सेवा प्रदान करते हैं, उनका न तो कोई मूल्य होता है और न ही कोई बाजार। एक पेड़ कितनी प्राणवायु देता है, कितनी शीतलता देता है, कितने वायु-प्रदूषण का नियंत्रण करता है, कितनी मिट्टी को बचाकर रखता है, कितने पक्षियों को आवास देता है एवं कितने राहगीरों को छाया प्रदान करता है, इसका मूल्यांकन नहीं होता, परंतु जब वह पेड़ गिर जाता है या काट दिया जाता है तो कितनी लकड़ी निकली उसकी बाजार-भाव से गणना हो जाती है। सम्भवतः 1987 में पहली बार कलकता विश्‍वविद्यालय के प्रो. टीएम दास ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया था कि एक पचास-वर्षीय पेड़ अपने जीवन काल में 15 लाख रूपये मूल्य की पर्यावरणीय सेवा प्रदान करता है।

वर्ष 1997 में दुनिया के कुछ अर्थशास्त्रियों तथा जीव-वैज्ञानिकों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने का प्रयास किया था। उन्‍होंने कम्प्यूटर आधारित गणना करके पाया था कि पेड़-पौधों द्वारा वातावरण को ठंडा रखने, कीट-पतंगों द्वारा फसलों में परागण (पोलिनेशन) एवं महासागरों द्वारा पोषक पदार्थ एवं जल के चक्रीकरण (साइकलिंग) की कीमत लगभग 33 अरब डॉलर प्रतिवर्ष होती है। दुनिया भर की 100 से ज्यादा फसलों में मधुमक्खियों द्वारा निशुल्क जो परागण किया जाता है उसे यदि ड्रोन या अन्य माध्यमों से करवाया जाए तो एक हजार अरब रूपया खर्च होगा।

हाल ही में भोपाल के ‘सेंटर फॉर इकोलॉजिकल सर्विस मैनेजमेंट’ संस्था ने देश के 10 ‘टाइगर रिजर्व’ का अध्ययन कर बताया है कि मध्‍यप्रदेश के ‘पन्ना टाईगर रिजर्व’ में 13,745.53 करोड रूपये के प्राकृतिक संसाधन हैं। ये संसाधन 6,945.56 करोड़ रूपयों की पर्यावरणीय सेवा तथा आसपास की आबादी को 14,455.42 करोड रूपयों का स्वास्थ्य लाभ भी प्रतिवर्ष प्रदान करते हैं। कई अध्ययन, रिपोर्ट्स तथा सर्वेक्षण यही दर्शाते हैं कि अभी तक आर्थिक विकास के नाम पर पारिस्थितिकी (प्राकृतिक संसाधन एवं पर्यावरण) को भारी नुकसान पहुंचाया गया है।

मौजूदा परिस्थितियों में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि तालाबंदी से परिस्थितिकी में जो सुधार हुआ है उसे बरकरार कैसे रखा जाए ? इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि आर्थिक विकास की कोई ऐसी लक्ष्मण-रेखा निर्धारित हो जो प्राकृतिक संसाधनों की धारण-क्षमता (कैरींग केपैसिटी) पर आधारित हो। अर्थशास्त्र एवं परिस्थितिकी को जोड़कर ‘इको-इकानॉमी’ की जो अवधारणा पैदा हुई है उस पर ध्यान देकर अमल किया जावे एवं इसी के अनुसार सरकारें नियम-कानून-नीतियां आदि बनायें।

‘वर्ल्‍ड वाच इंस्टीट्यूट’ (अमेरिका) के प्रोफेसर लेस्‍टर ब्रॉउन ने इकोलॉजी तथा इकॉनॉमी के समन्वित प्रयास को ‘इको-इकॉनॉमी’ कहा है। कुछ लोगों द्वारा इसे ‘इकोलोनामिक्स’ भी कहा गया है। ‘इको-इकॉनॉमी’ प्राकृतिक संसाधनों के विनाश को रोककर तथा उन्हें विकसित या सुधार कर मानव विकास हेतु अर्थोपार्जन की विधियां खोजने पर आधारित है। इसका प्रमुख ध्येय है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हो, विलासित के लिए नहीं। इस ध्येय की पूर्ति के लिए सरल एवं सादगीपूर्ण जीवन शैली अपनाना जरूरी है जिसे गांधीजी ने वर्षों पूर्व बताया था। हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता है अतः ‘इको इकॉनॉमी’ के आधार पर विकास किया जावे तो देश विश्व में सुधार का ‘इको-पावर’ बन सकता है। (सप्रेस)

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