73वें ‘स्वतंत्रता दिवस’ (15 अगस्त) पर विशेष
स्वाधीनता, स्वावलंबन और भय-मुक्ति मानव सभ्यता की बुनियाद हैं। इन्हें साधना, एक सम्पन्न समाज और सभ्यता के निर्माण के लिए बेहद जरूरी है। प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता अनिल त्रिवेदी का यह लेख।
आज़ादी, स्वाधीनता, फ्रीडम, स्वतंत्रता और मुक्ति का सच्चा अर्थ हमारे जन-जीवन और अन्तर्मन में भयमुक्त होना ही हो सकता है। जब तक मन निर्भय न हो, स्वाधीनता से सहज साक्षात्कार हो ही नहीं सकता। जो भयभीत है वह स्वाधीनता के दर्शन के बारे कभी भी गहराई से सोच-समझ ही नहीं पाता। स्वाधीनता और स्वावलम्बन एक तरह से आपस में इस तरह घुले-मिले हैं कि दोनों को समझे बिना या आत्मसात किये बिना इनकी जीवनी शक्ति को जाना ही नहीं जा सकता। इस जगत में मनुष्य के अलावा बाकी सब स्वावलम्बी है तभी तो मानवेत्तर सारे जीवजन्तुओं के सामने स्वाधीनता का सवाल कभी आया ही नहीं। मानव ने अन्य मानवों को पराधीन, गुलाम, परावलम्बी और यंत्रवत बनाया है। साथ-ही-साथ आज का आधुनिक मनुष्य खुद भी परावलम्बी बना और यंत्रवत बनने या यंत्र का उपभोक्ता बनने की राह पर चल पड़ा है। मनुष्य ने ही अपने मन में बसे लालच, लाचारी या भय के कारण स्वाधीनता की जगह पराधीनता का विस्तार कर लोगों को गुलाम बनाया है। उसने अपनी स्वाधीनता को अपने ही हाथों खोकर पराधीनता को अपनाया। इस दृष्टि से समझें तो जो मनुष्य स्वयं पर विश्वास करता है वह स्वाधीन है और जो खुद पर भी विश्वास नहीं करता और भयग्रस्त रहता है वह स्वाधीनता का अर्थ और मर्म ही नहीं जान सकता।
स्वाधीनता को समझने से पहले मनुष्य पराधीनता को क्यों और कैसे स्वीकार या आत्मसात कर लेता है यह समझना भी आवश्यक है। इतनी लम्बी मानव सभ्यता के इतिहास में स्वाधीनता के लिये तरह-तरह के संघर्ष हुए, कुर्बानियां दी गयीं, जो आज भी कई रूपों में जारी है। मानव मन में परावलम्बन और मानसिक गुलामी की जड़ें भी इतनी गहरी रची-बसी हैं कि मानव समाज में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी तरह की आजादी के लिये आज भी कोई-न-कोई मानव समूह संघर्ष करता ही रहता है। हमारे आजादी के आन्दोलन में देश की आजादी को पाने के लिये रावी के किनारे पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया गया था, यानि स्वाधीन और स्वावलम्बी भयमुक्त नागरिक जीवन की कल्पना को साकार करने का सामूहिक संकल्प। स्वाधीनता इतनी व्यापक और सहज अवधारणा है जो समझ तो जल्दी आ जाती है और अपने लिये हम चाहते भी हैं, पर अन्य के साथ व्यवहार करते समय हम कई किन्तु-परन्तु लगा लेते हैं। यहां आकर हम सिद्धांत और व्यवहार में उलझ जाते हैं। शायद यह हम सबके आपसी विश्वास और आत्मविश्वास में कमी के कारण या सही आकलन न कर पाने का दोष भी हो सकता है।
स्वाधीनता जीने का एक ढंग है, जिसमें आचरणगत मर्यादा और उत्तरदायित्व अन्तर्निहित हैं। स्वाधीनता की मौलिक संकल्पना के मूल में हवा और प्रकाश की तरह सहज, सरल स्वाधीनता की उपलब्धता है, पर ऐसा हम आज तक कर नहीं पाये। हम सब ने स्वाधीनता में कई किन्तु-परन्तु लगाकर स्वाधीनता को व्यवस्थागत अवधारणा में बदल डाला है। अब दुनियाभर की व्यवस्थाओं की स्वाधीनता को लेकर अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं, जो स्वाधीनता की लक्ष्मणरेखा खींच कर स्वाधीनता की मूल अवधारणा को ही बदल देती हैं। खुला मन, खुली सोच और खुली समझ एक तरह से स्वाधीनता के लिये प्राणवायु की तरह हैं। लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था की आधारभूमि पर स्वाधीनता का स्वरूप निखरता है। स्वाधीनता कोई दिखावटी गहना नहीं है वरन् जीवन की जीवनी शक्ति या प्राणवायु है।
भयग्रस्त मन स्वाधीनता की राह नहीं बनाता। मन का भय पराधीनता को ही लाचार भाव से जीवन की नियति बना बैठता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि स्वाधीनता भय के खिलाफ खुला विद्रोह है। मानव इतिहास गवाह है, गुलामी का प्रतिरोध बहुत धीरे-धीरे होता है। इस धीमी गति का कारण असुरक्षित मन:स्थिति है। हमारा स्वानुशासन स्वाधीनता का विस्तार करता है। स्वाधीनता स्वयं अपने आप में सीमातीत और बन्धनमुक्त अवधारणा है, फिर भी व्यक्ति, समाज और व्यवस्था के आचरण में अनुशासन की मर्यादा का बिन्दु आ ही जाता है। स्वानुशासन स्वयंस्फूर्त होता है जबकि अनुशासन व्यवस्थागत संकल्पना है।
स्वाधीनता का अर्थ मनमर्जी और मनमानी से एकदम भिन्न है। स्वाधीनता मूलत: स्वाभिमान से जुड़ा विचार है जो व्यक्ति और समाज को निर्भय जीवन और सुरक्षित वातावरण बनाये रखने की आधारभूमि प्रदान करता है। अब एक सवाल यह भी मन में आता है कि ऐसा कैसे होता है कि मनुष्य ही मनुष्यों को पराधीन करने की योजना या रणनीति बनाकर मनुष्यों में भय फैलाता है और लोग लाचार या भयग्रस्त हो पराधीन हो जाते हैं? पराधीनता के खिलाफ अलख जगाने का काम भी मनुष्य समूह ही करते हुए स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने की शुरूआत करते हैं। स्वाधीनता और पराधीनता एकदम विपरीत विचार हैं, पर पराधीनता की अति स्वाधीनता की भूख जगाती है। स्वाधीनता सदैव चौकस और संवेदनशील रहते हुए भयमुक्त जीवन है। स्वाधीनता मनुष्य की सभ्यता का मूल है और पराधीनता मानवीय असमर्थता की पराकाष्ठा। स्वाधीनता मानव मन की पूर्णता की प्रखर अभिव्यक्ति है। स्वाधीनता से परिपूर्ण मानव सभ्यता मानव ऊर्जा का वैसा ही सकारात्मक स्वरूप है जैसा प्राणवायु और सूर्यप्रकाश का प्राकृत स्वरूप होता है।
निर्भयता मन की स्वाधीन और प्राकृत स्थिति है। निर्भय मन ही निर्भय समाज और सभ्यता को आगे बढ़ाता है। भयभीत मनुष्य या समाज स्वाधीनता की रक्षा नहीं कर सकते, पर स्वाधीनता का विचार मात्र ही मनुष्य मन के सारे भयों को दूर करने का द्वार खोलते हैं। आध्यात्मिक यात्रा या साधना में भी हम सब बंधन मुक्ति की चर्चा करते हैं यानि भौतिक रूप में ही नहीं आध्यात्मिक साध्य के रूप में भी स्वावलम्बन ही स्वाधीनता की आधारभूमि खड़ी करता है। स्वावलम्बन हमें न केवल व्यक्तिश: वरन् सामूहिक रूप से भी स्वाधीनता के साथ ही नहीं स्वाभिमान के साथ जीते रहने की निरन्तर ऊर्जा देता है। स्वाधीनता हमारी मूल प्रवृत्ति है और निर्भयता स्वाधीनता का मूल है। (सप्रेस) http://www.spsmedia.in