दीपावली पर विशेष
पहले जिन पटाखों की पूछ-परख पर्व-त्यौहारों पर ही होती थी, आजकल उन्हें आए दिन फोडने के अवसर खोजे जाने लगे हैं। क्या हमारे समाज में इन पटाखों की अहमियत पहले भी ऐसी ही थी? क्या लंका से लौटे श्रीराम का स्वागत पटाखों से किया गया था?
दीपावली एवं अन्य अवसरों पर चलाये जाने वाले पटाखे बारूद का उपयोग कर बनाये जाते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (300ईसा-पूर्व) में ‘अग्निचूर्ण’ नाम से किसी पदार्थ का वर्णन किया गया है, जिसका उपयोग सैन्य कार्यो में किया जाता था। यह ‘अग्निचूर्ण’ ही संभवतः वह पदार्थ होगा जिसे हम आजकल बारूद (गन पावडर) कहते हैं। वैज्ञानिक आधार पर बारूद में 75 प्रतिशत शोरा (साल्ट पीटर या पोटेशियम नाइट्रेट), 10 प्रतिशत गंधक (सल्फर) एवं 15 प्रतिशत कोयले का चूरा होता है।
बारूद एवं पटाखों की खोज चीन में होना बताया गया है। सातवीं से दसवीं सदी के मध्य चीन में पटाखों की खोज एक दुर्घटना के कारण हुई थी। वहां किसी आयोजन में खाना बनाने वाले एक व्यक्ति ने गलती से शोरा भट्टी में डाल दिया। जिससे आग में रंगीन लपटें पैदा हो गईं। जिज्ञासावश बाद में मुख्य रसोइये ने शोरे के साथ गंधक एवं कोयले का चूरा भट्टी में डाला। इससे रंगीन आग की लपटों के साथ तेज धमाका भी हुआ। इस घटना को देख रहे कुछ चीनियों ने शोरा, गंधक व कोयले का चूरा एक डिब्बे में रखकर आग लगाई। आग लगते ही डिब्बा तेज प्रकाश एवं धमाके के साथ फट गया। प्रकाश एवं तेज आवाज सहित फटा यह डिब्बा आधुनिक पटाखों का पूर्वज हो सकता है।
चीन में यह सारा घटनाक्रम किस स्थान पर हुआ इसका कहीं वर्णन नहीं है। पुराने समय में जब खनन कार्य की अच्छी विधियां नहीं खोजी गई थीं, उस समय सुअरों के बाड़े, अस्तबल एवं गौशालाओं में पहले गोबर से मिट्टी अलगकर परंपरागत विधि से शोरा प्राप्त किया जाता था। इसका उपयोग बारूद एवं पटाखों के निर्माण में किया जाता था। प्रारंभ में बारूद का उपयोग पहाड़ों को तोड़ने एवं सड़क निर्माण में आई चट्टानों को तोड़कर समतल करने में किया जाता था।
बारूद की खोज ने परंपरागत युद्ध-शैली को भी बदल दिया जब हाथी, घोड़े पर सवार पैदल सैनिक तीर-तलवार व भाले से लड़ते थे। वर्तमान में पटाखों को रंगीन तथा चमकदार बनाने हेतु बारूद के साथ कई प्रकार के रसायन निर्धारित मात्रा में मिलाये जाते हैं। इन रसायनों में एन्टिमोनी, कॉपर, बेरियम, स्ट्रांशियम, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम एवं लेड प्रमुख हैं। वर्ष 1228 के आसपास यूरोप में पटाखों का चलन प्रारंभ हुआ एवं इटली में सबसे पहले पटाखों का निर्माण भी शुरू किया गया। इंग्लैंड में पटाखों का उपयोग राजकीय समारोह में होने लगा। चार्ल्स पंचम अपनी हर विजय पर पटाखे चलाकर खुशी मनाते थे।
हमारे देश में मुगलों द्वारा बारूद एवं पटाखे लाए गये। सोलहवीं शताब्दी में राजा, महाराजा, द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों में पटाखों के प्रयोग किए जाने का वर्णन इतिहास में मिलता है। आदिल शाह बादशाह ने वर्ष 1609 में अपनी एक विजय पर जमकर पटाखे चलाए थे। वर्ष 1667 में औरंगजेब ने गोला-बारूद एवं पटाखों के उपयोग पर इसलिए प्रतिबंध लगाया था कि इससे वातावरण विषैला होता है एवं संपत्तियों पर भी विपरीत प्रभाव होता है। बीकानेर के तत्कालीन राजा गंगा सिंह ने भी इस प्रतिबंध का समर्थन किया था।
यह प्रतिबंध दर्शाता है कि पटाखों से फैले प्रदूषण को रोकने का विचार काफी पुराना है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में कलकत्ता (अब कोलकाता) में पहला पटाखे बनाने का कारखाना लगाया गया था। वर्ष 1940 में विस्फोटक पदार्थों के संबंध में ‘आयुध नियम-कानून’ लागू होने के बाद तमिलनाडु के शिवाकाशी में सरकारी लाइसेंस देकर कई कारखाने खोले गए। वर्तमान में इन कारखानों में लगभग 8,00000 श्रमिक कार्य करते हैं एवं देश में उपयोग किए जाने वाले 80 प्रतिशत पटाखों की पूर्तिं यहां से होती है
मुख्य रूप से तीन प्रकार के पटाखे बताए गए हैं – प्रकाश देने वाले, आवाज पैदा करने वाले तथा धुआं छोड़ने वाले। इस आधार पर पटाखों के कई अन्य उपयोग भी हैं। दुश्मन से छिपने हेतु लड़ाई के समय धुंए वाले पटाखे चलाए जाते हैं। किसी कार्य की सफलता प्रकाश पैदा करने वाले पटाखों से दर्शाई जाती है। खतरे को रोकने हेतु आवाज वाले पटाखे उपयोग में लाये जाते है। रेल दुर्घटनाओं की रोकथाम में आवाज पैदा करने वाले पटाखे काफी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
आजकल दीपावली एवं अन्य त्यौहार, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आयोजन, पारिवारिक कार्य एवं खेलों में विजय पर पटाखे चलाने का प्रचलन फैलते बाजारवाद से जुड़ गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में सालाना पटाखों का व्यवसाय लगभग 2661 करोड़ रुपयों का होता है। हमारे देश की संस्कृति से पटाखों का कोई सीधा संबंध नहीं है। रामायण काल में भगवान श्री राम के लंक से लौटने पर खुशियों से दीप जलाने का वर्णन मिलता है, पटाखे चलाने का नहीं। अंग्रेजी शासन काल में उत्सव मनाने हेतु पटाखे चलाए जाते थे, जिसे हमारे देश के लोगों ने भी अपनाया। पहले राजा, महाराजा एवं धनवान लोग पटाखे चलाते थे, परंतु बाद में धीरे-धीरे सभी लोग इस चलन से जुड़ गए। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रकाश पर्व धूल-धमाकों का हो गया। (सप्रेस)
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