गांधी जी की 150 वीं जन्मशती मनाते देश में श्रमिक, कारीगर, किसान और न जाने कितने लोग ठगे से अपने घरों और गांवों की ओर भागते नजर आ रहे हैं। आज हमारे बीच गांधीजी तो नहीं हैं, किन्तु गांधी विचारों का कडाई से पालन करने वाली सुश्री राधा भट्ट (87 वर्ष) उत्तराखंड में कौसानी के ‘लक्ष्मी आश्रम’ में रह रही हैं। ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ की अध्यक्ष और ‘कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट’ की मंत्री रह चुकीं सुश्री राधा भट्ट के मार्गदर्शन में आश्रम में बालिकाओं के स्कूल, कृषि और गाँव में पानी, पर्यावरण, जल–संरक्षण आदि के कार्य हो रहे हैं। प्रस्तुत है सुश्री राधा भट्ट से डॉ. अंजना त्रिवेदी द्वारा लिए गए ऑनलाइन साक्षात्कार के संपादित अंश।
प्रश्न – इस बीमारी (कोविड-19) को आप कैसे देखती हैं?
सुश्री राधा भट्ट – मैंने जो समझा है उससे यही लगता है कि इस उपभोक्तावादी संस्कृति और इसके पोषण के लिए बनाई गई व्यवस्था पर नए सिरे से सोचना चाहिए। कोविड-19 के बहाने यह जो घंटी बजी है, इसने देशभर में आम आदमी, नीति–निर्माताओं, राजनैतिक व्यवस्था को झकझोरा है। इस सभ्यता में जो दोष हैं उसे हमने गुण मान लिया है। इस सभ्यता के दो ही प्रेरक बिंदु माने गये है, पहला-लोभ, जिसने अटूट प्रतिस्पर्धा बढ़ाई है। हर क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। नैतिक मूल्यों और मानवता के मूल सिद्धांतों को भी ताक पर रखकर, सब एक-दूसरे से आगे निकाल जाने की होड में हैं।
इस सभ्यता में दूसरा तत्व है, देश की आन, जिसके लिए लोग मरने-मारने पर उतारू हैं। आजकल तो युद्ध, रणक्षेत्र में होता नहीं है, बल्कि जैविक हथियारों से होने लगा है। तुम हमारा व्यापार नष्ट करोगे, हम तुम्हारा व्यापार नष्ट कर देंगे। यही परिपाटी चल रही है। कई वर्षों से अमेरिका और चीन के सम्बन्ध समुचित नहीं हैं, वह भी एक शीतयुद्ध ही है।
प्रकृति का अनाप- शनाप दोहन कर रहे हैं, ज्यादा के प्रलोभन में प्रकृति के साथ खिलवाड़ ही नहीं, अन्याय कर रहे हैं, अपने अनियंत्रित और अमर्यादित खान- पान से जीव-जंतुओं के प्रति निर्ममता का अप्राकृतिक व्यवहार कर रहे हैं। कुछ भी खा रहे हैं, कुछ भी पैदा कर रहे हैं जिसके कारण वैज्ञानिक संकट उत्पन्न हो गया है। ये नए-नए रोग और बीमारियाँ उस उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण ही सामने आ रही हैं। गांधीजी ने इसको ‘शैतानी सभ्यता’ कहा था। उनके मुताबिक यह सभ्यता खुद अपने आपको समाप्त करेगी, खुद से अपना ही सत्यानाश करेगी। अब यह सच होते हुए दिखाई दे रहा है। इस बीमारी से जो लोग बचेंगे, वे सोचेंगे या उन्हें सोचना चाहिए कि आज के इस संकट से अब हम क्या सबक लेंगे? प्रतिस्पर्धा और लोभ पर आधारित इस भोगवादी संस्कृति को बदलना ही होगा।
प्रश्न- इस बीमारी के कारण लगे लॉकडाउन से लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर आप क्या कहेंगी?
सुश्री भट्ट – अभी तो सभी देशों की वर्तमान अर्थव्यवस्थाएं लडखडा गयी हैं। हमारे देश की आर्थिक हालत पहले से ही कुछ कमजोर थी। सरकार के विरोध की बात नहीं कर रही हूँ, पर पहले नोटबंदी फिर ‘जीएसटी’ (गुड्स एण्ड सर्विसेस टैक्स) से आम व्यक्ति परेशान था। उससे अर्थव्यवस्था कमजोर बनी थी। हम जिसे अर्थव्यवस्था कह रहे हैं, उसे ही आमूलचूल बद्लने की जरूरत है। ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) सही मापदंड नहीं है। ‘जीडीपी’ उच्च स्तर पर हो और देश के नागरिक भूखे हों तो यह कैसी अर्थव्यवस्था है? ‘जीडीपी’ की परवाह किए बिना देश के नीति निमार्ताओं को यह देखना चाहिए कि अंतिम व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए। मेहनतकश व्यक्तियों के लिए यह व्यवस्था अच्छी थी ही नहीं, क्योंकि इसमें धनी व्यक्ति ही अधिक धनी बनता जाता है। मौजूदा केन्द्रीकृत व्यवस्था के स्थान पर यदि विकेंद्रित अर्थव्यवस्था होती तो मजदूरों को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। उन्हें आजीविका खोकर, भूखे प्यासे, मजबूरी में गाँव नहीं लौटना पड़ता।
हमारे यहाँ पहले भी प्राकृतिक आपदायें हुई हैं, भीषण अकाल पड़े हैं, किन्तु अर्थव्यवस्था इस तरह कभी नहीं लड़खडायी जिसमें सवेदशीलता और सद्भावना ही गायब हो। इनसे सीख लेकर हमें अपनी अर्थव्यवस्था सही दिशा में ले जाना चाहिए और गरीब व मेहनतकश व्यक्तियों के कल्याण और गरिमापूर्ण जीवन के लिए व्यवस्था बनाना चाहिए। ये मौका है जब हम गाँव की ओर लौटें और खेती को अर्थव्यवस्था का आधार बनायें।
प्रश्न – सरकार ने भी तो पंचायती राज की बात की है। आप क्या सोचती हैं?
सुश्री भट्ट – सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था शुरू की थी। उस दौर में राजीव गांधी का एक सपना था, किन्तु उस पर अमल होने से पहले ही वे इस दुनिया में नहीं रहे। गांधीजी ने जो पंचायती राज व्यवस्था दिखाई थी उस पर असल में अमल नहीं किया गया। सरकारों ने स्वतंत्र रूप से गाँव में टैक्स के पैसे और सत्ता का अधिकार नहीं दिया। गाँव की पंचायत के सिर पर नौकरशाही का प्रभुत्व बना रहा। नतीजे में गाँव की शक्ति नहीं पनपी।
व्यवस्था जब तक ग्रामसभा को नहीं देंगे, तब तक काम नहीं बनेगा। सरकार केवल गाँव तक सड़कें बनाने में लगी है। सोचने की जरूरत है कि सड़क की आवश्यकता पहले है या गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था या महिलाओं की दशा बेहतर होनी चाहिए। होना तो यह चाहिए कि गाँव की सारी व्यवस्थायें व निर्णय गाँव ही करे, जिसमें एक सीमा तक न्याय की व्यवस्था भी हो।
सत्ता का विकेन्द्रीकरण तो असल में गांधी जी के ग्राम स्वराज में ही था। यह सरकारी पंचायती-राज उसकी आधी-अधूरी रूपरेखा है और वह भी पूरी ईमानदारी से अमल में नहीं लायी गई। गांधी जी का ग्राम स्वराज ही आज की बिगडती व्यवस्था का स्थानीय जवाब भी है। अब हम लौट-लौटकर ‘लोकल’ (स्थानीय) की बात कर रहे हैं। यह सिर्फ बात करने का मुद्दा भर नहीं है। इस पर भरोसा करना होगा और इस पर ईमानदारी से काम करना होगा।
हमने शहरों को ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने के बारे में ही क्यों सोचा? गाँव के बारे में सोचा होता और वहीं पर रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध होता तो गाँव के लोग गरिमापूर्ण जीवन जी रहे होते और आज ये हालात भी नहीं बनते। पलायन, रोटी कमाने के लिए दूर-दूर भटकने की जरुरत नहीं बनती। नीति निमार्ताओं और राजनैतिक दलों ने कभी गरीब, किसान और मजदूरों को लेकर नीति ही नहीं बनायी है।
गरीबों को, मजदूरों को भी मान-सम्मान चाहिए जो उनके काम को सम्मान देकर दिया जा सकता है। क्या हमने एक मिटटी खोदने वाले किसान या मजदूर के उत्पादक कार्य का मेहनताना एक वकील के अनुत्पादक काम के मेहनताने के बराबर तय किया है? किसान कब से अपने उत्पादित अनाज के मूल्य को बढाने की मांग के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन उलटे उन्हें डंडे और गोलियों का प्रसाद मिलता है। कोविड-19 से पूर्णतः जैविक कृषि की ओर लौट चलने की बात सीखें।
प्रश्न – मजदूर और कामगारों के इस अनकहे ‘गाँव चलो अभियान’ का भविष्य आप कैसे देख रही हैं?
सुश्री राधा भट्ट – मैं इस ‘गाँव चलो अभियान’ के बारे में यही कहूँगी कि इसके लिए भूख ने प्रेरित किया है। हमने शहरों में उनके लिए कुछ भी नहीं किया। एक बार खाना देकर काम नहीं चलेगा। गाँव के लोगों को शहर के प्रति आकर्षण तो होता है, पर थोड़े दिन बाद वह भ्रम टूट जाता है। इस संकट के दौर में मजदूरों को शहरों का क्रूर चेहरा देखने मिला है। यदि उन्हें यह समझ आ गया हो तो वे गाँव में ही कोई रोजगार निकाल लेंगे। यह इस दौर की सबसे अच्छी, सकारात्मक बात होगी।
शासन और प्रशासन का बुरा चेहरा देखने और लगातार उपेक्षित महसूस करने के बाद वह वहां वापस जा रहा है जहां उसको कुछ विश्वास है, किन्तु ये बड़े-बड़े शहर भी इन मजदूरों के बिना नहीं टिकेंगे। घरों में झाड़ू-पोंछा, बर्तन मांजने, भोजन बनाने, निर्माण कामगार, सफाईकर्मियों ने शहरों को बचाने का काम किया है। इनके बिना शहर खड़े नहीं हो पाएंगे। अब सही समय भी है कि इस विकास की नीति में परिवर्तन कर इन कामगारों के जीवन और उसकी बेहतरी को फोकस करके समझने की कोशिश करें। स्केन्डिनेवियन देशों में व्यक्ति सप्ताह में एक दिन भी घरेलू कामों में मदद के लिए आते हैं तो उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाता है। उनका मेहनताना भी एक डॉक्टर के मेहनताने के बराबर या उससे थोडा-सा कम होगा। काम देने और करने वाले दोनों का जीवन-स्तर एक जैसा हो। गांधीजी ने भी तो कहा था कि नाई और डॉक्टर की सैलरी बराबर होनी चाहिए। इसलिए मैं कहती हूँ कि हमारी व्यवस्था में, हमारे जीवन में इन मूल्यों को लाना होगा।
प्रश्न – सरकार द्वारा शराब की दुकानें खोलने पर आप क्या कहेंगी?
सुश्री भट्ट – इस दौर में इससे बड़ी बेवकूफी क्या हो सकती है? सरकार को बस पैसा ही दिख रहा है। वह कमजोर अर्थव्यवस्था को शराब के राजस्व से सुधारना चाह रही है। सरकार और राजनीति दोनों की निर्भरता शराब-माफिया पर है। आज स्कूल नहीं खुल रहे हैं, आम जनता की जरूरत का सामान नहीं मिल रहा है, किन्तु शराब की दुकान खोल रहे हैं। आज तक हम तय नहीं कर पाये कि आम जनता की जरूरत क्या है। क्या सरकार नहीं जानती है कि भीड़- भाड़ वाले इलाकों में हिंसा हो रही है, शराब पीकर घरों में मारपीट हो रही है। हाँ, सरकार को करोड़ों रुपयों का फायदा जरूर हुआ है। शर्म की बात है कि सरकार ने इस बहाने गरीब आदमी की जेब का अंतिम रूपया भी खींच लिया है। शराब के धंधे पर जो अर्थव्यवस्था टिकी हो, उससे गरीब आदमी के कल्याण की उम्मीद करना ही व्यर्थ है। जिस देश में जनता भूखों मर रही हो वहां शराब की दुकानें खोलना जनता के साथ छलावा ही है।
प्रश्न – इन सबके बीच एक खुश करने वाली बात यह है कि लॉकडाउन के दौरान ओजोन परत रिपयेर हो गयी है, वायु-प्रदूषण घट रहा है, गंगा और नर्मदा जैसी नदियों का पानी अपेक्षाकृत साफ़ हो गया है, पशु-पक्षी निश्चिंत और निर्भय हैं। इन पर्यावरणीय मुद्दों को आप कैसे देखती हैं?
सुश्री राधा भट्ट – जब-जब कोई संकट आता है तो वो अपने साथ कोई अच्छा संकेत भी लाता है, दुर्भाग्य में भी सौभाग्य के लक्षण छिपे होते हैं। आज सीतामढी से माउंट एवरेस्ट दिखायी देने लगा है, जो कभी पचास साल पहले दिखा करता था। सहारनपुर से गंगोत्री–जमनोत्री दिखने लगे हैं। दिल्ली का वायुमंडल साफ हो गया है क्योंकि धुआं उड़ाने वाली मोटरें और फैक्ट्रियाँ बंद है, गंगा का प्रदूषण कम हो गया है। यह सब मजबूरी में ही हो गया है, किन्तु इन्हें टिकाए रखना आवश्यक है। हमें अपनी जीवन-शैली अनुशासित और संयमित करने की जरूरत है। शहरों के आकार को छोटा करना होगा, वहां की सीवेज-लाइन के बारे में पुन: विचार करना होगा। प्रकृति के साथ एक साझेदारी का, बराबरी का और पारस्परिकता का नाता बनाकर चलना होगा।
इसका कोई शॉर्ट-कट नहीं है। यह हमें अपनी पूरी व्यवस्था, नियम क़ानूनों, शिक्षा, आचरण और व्यवहार में लाना होगा। कम में संतोष करना सीखना होगा। प्रकृति से लिया है तो प्रकृति को देना भी सीखना होगा। सहचर्य और सहजीवन की राह पर चलना होगा। तभी ये साझेदारी और नातेदारी टिकाऊ और कल्याणकारी बनी रह सकेगी, नहीं तो विनाश की झलक तो हम कई बार देख ही चुके हैं। लॉक-डाउन ने हमें प्रत्यक्ष दिखा दिया है कि हमारी भोगवादी शैली असीम गंदगी से हमारी प्रकृति को विषैला बना रही थी, अब फिर से क्या हम जहर उगलने वाली शैली में जीने लगेंगे?
आज गांधी के विचारों को 150 साल हो रहे हैं। संकट चाहे वह खेती से जुड़ा हो, राजनीति से जुड़ा हो, रोजगार, हिंसा – युद्ध या अभी जैसा स्वास्थ्य से जुड़ा संकट हो, उन सबमें गांधी का दिखाया हुआ रास्ता ही एकमात्र समाधान का रास्ता दिखाई देता है। विकेन्द्रीकृत व्यवस्था, सादगीपूर्ण और संयमित जीवन-शैली, स्व-अनुशासन, ग्राम-स्वराज, अहिंसा, बंधुता, प्रकृति और पशु प्रेम, आत्म-निर्भरता, सत्य और न्याय पर आधारित राजनीति, अंतिम व्यक्ति के कल्याण की नीति, यह सब कोरे विचार नहीं हैं। बल्कि एक सभ्यता को बचाए रखने, फलने-फूलने और लगातार उन्नत होने के लिए जरूरी प्राणतत्व हैं। गांधी-दर्शन हमें बार-बार इसकी याद दिलाता है। व्यक्ति और सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन विचार की डोर अगर हम थामे रहेंगे तो मार्ग से भटकेंगे नहीं। (सप्रेस)