नई दिल्ली से कोई बारह हज़ार किलो मीटर दूर एक अश्वेत नागरिक की मौत पर अगर हम चिंतित होना चाहें तो भी कई कारणों से ऐसा नहीं कर पायेंगे। वह इसलिए कि तब हमें अपनी ही पुलिस व्यवस्था, उसके सांप्रदायिक और राजनीतिकरण, सत्ता के लिए उसके उपयोग-दुरुपयोग आदि के साथ-साथ देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा कोई डेढ़ दशक पूर्व दिए गए उन निर्देशों की तरफ़ भी झांकना पड़ेगा जिन पर कि राज्यों की ओर से ईमानदारी से काम होना अभी बाक़ी है। यह भी देखना पड़ेगा कि हमारे यहाँ के अल्पसंख्यकों, दलितों और शोषित तबकों के नागरिकों के प्रति राजनीतिज्ञों और उनके मातहत काम करनेवाली पुलिस व्यवस्था का रवैया कैसा रहता है।
अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक की गोरे पुलिसकर्मी के घुटने के नीचे हुई मौत से भारत देश के एक सौ तीस करोड़ नागरिकों को ज़्यादा सरोकार नहीं है।निश्चित ही इस तरह की घटनाएँ हमें कहीं से परेशान नहीं करतीं। उसके कई कारण भी हैं। सरकार की ओर से किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती है कि हम न तो दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में कोई हस्तक्षेप करते हैं और न ही अपने मामलों में बर्दाश्त करते हैं। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के कथित हनन को लेकर हाल ही में जारी अमेरिकी रिपोर्ट को सरकार की ओर से ख़ारिज कर दिया गया है हालाँकि उसमें कुछ ऐसे तथ्यों की ओर ध्यान दिलाया गया है जिनका कि सम्बंध संविधान में प्रदत मानवाधिकारों के उल्लंघन से है। पिछली रिपोर्ट को भी ऐसे ही ख़ारिज कर दिया गया था। हम अमेरिका से प्राप्त होने वाले वेंटिलेटर स्वीकार कर सकते हैं और हथियार ख़रीद सकते हैं पर उसकी संस्थाओं द्वारा तैयार की जाने वाली रिपोर्ट्स हमें बिलकुल स्वीकार नहीं हैं।
कनाडा और योरप के तमाम देशों को छोड़ दें तो भी अकेले अमेरिका में ही भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या तीस लाख से ज़्यादा है और उनके ख़िलाफ़ होने वाले मौखिक और शारीरिक हमलों की खबरें भी हमें भारत में प्राप्त होती रहती हैं पर हम न तो एक नागरिक के रूप में और न ही एक राष्ट्र के तौर पर उनसे ज़्यादा उद्वेलित या विचलित होते हैं। अपने ही देश में मणिपुर सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों के नागरिकों के अपमान या उनपर हमलों की घटनाओं से भी हमारे रक्तचाप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कोई दस महीने पहले कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को अपमानित करने और उन्हें अपने घरों को लौट जाने के लिए बाध्य करने की घटनाओं पर भी एक बेशर्म खामोशी ओढ़ ली गई थी।
नई दिल्ली से कोई बारह हज़ार किलो मीटर दूर एक अश्वेत नागरिक की मौत पर अगर हम चिंतित होना चाहें तो भी कई कारणों से ऐसा नहीं कर पायेंगे। वह इसलिए कि तब हमें अपनी ही पुलिस व्यवस्था, उसके सांप्रदायिक और राजनीतिकरण, सत्ता के लिए उसके उपयोग-दुरुपयोग आदि के साथ-साथ देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा कोई डेढ़ दशक पूर्व दिए गए उन निर्देशों की तरफ़ भी झांकना पड़ेगा जिन पर कि राज्यों की ओर से ईमानदारी से काम होना अभी बाक़ी है। यह भी देखना पड़ेगा कि हमारे यहाँ के अल्पसंख्यकों, दलितों और शोषित तबकों के नागरिकों के प्रति राजनीतिज्ञों और उनके मातहत काम करनेवाली पुलिस व्यवस्था का रवैया कैसा रहता है। हम शायद सोचना चाहेंगे कि (कतिपय अपवादों को छोड़कर) प्रवासी मज़दूरों और लॉक डाउन की अहिंसक अवमानना करने वाले नागरिकों पर जिस तरह से लाठियाँ बरसाई गई और उन्हें जलील किया गया वह सब अमेरिका में अश्वेतों के साथ होने वाले अत्याचारों से कितना भिन्न है ? क्या हमारे राजनेताओं द्वारा अपने ही कथित ‘अश्वेत” नागरिकों के प्रति की जानेवाली टिप्पणियाँ विदेशों में बसे भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ श्वेतों की ओर से कसी जाने वाली फ़ब्तियों से अलग हैं !
सत्तारूढ़ दल के एक बड़े नेता तरुण विजय को तीन वर्ष यह कहते हुए सुना गया था कि अगर हम (भारतीय) नस्लवादी होते तो फिर पूरा दक्षिण भारत हमारे साथ कैसे होता ? और यह भी कि हमारे आसपास और चारों तरफ़ अश्वेत लोग रहते हैं। तरुण विजय के कथन को लेकर जब काफ़ी हो-हल्ला मचा तो उन्होंने ट्विटर के ज़रिए माफ़ी माँग ली। पर उनका कथन उस सोच को तो ज़ाहिर करता ही है जो भारत के श्वेत-सवर्ण मानस में धँसा बैठा है और मोटे तौर पर पुलिस व्यवस्था भी उसी के अधीन है।
भारतीय पुलिस व्यवस्था में सुधार को लेकर तमाम आयोगों द्वारा समय-समय पर दी गई सिफ़ारिशों को ठंडे बस्ते में डाल देने का ही परिणाम है कि वर्दी को लेकर आम जनता के बीच आज जो छवि बनी हुई है वह काफ़ी भयभीत करने वाली है। इसका एक बड़ा कारण सत्तारूढ़ दलों द्वारा उसका उपयोग विपक्ष और असहमति को दबाने के लिए करना भी है। वरना क्या कारण हो सकता है कि शपथ ग्रहण करने के साथ ही प्रदेश का मुखिया सबसे पहले राज्य के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख को बदलकर अपनी पसंद के लोगों को उच्च पदों पर बैठाता है और फिर ‘वफ़ादार’ लोगों को ही महत्वपूर्ण विभागों और जगहों पर तैनात करने का सिलसिला ठीक नीचे खदानों तक चलता रहता है। सरकारों का जब अपने ही ‘सभी’ नौकरशाहों पर एक जैसा यक़ीन नहीं है तो फिर वे सभी नागरिकों से समान व्यवहार कैसे कर सकती हैं ?
वर्ष 1987 में 22 मई की रात मेरठ की हाशिमपुरा बस्ती से उत्तर प्रदेश की प्रोविंशियल आर्म्ड कोंस्टेबुलरी (P.A.C.) के 19 जवान कोई पचास लोगों को उठाकर ले गए थे और बाद में उन्हें गोलियों से भुन दिया था। बयालीस लोग मारे गए थे । बाक़ी किसी तरह बच गए थे। सभी अल्पसंख्यक समुदाय से थे। दिल्ली में तब राजीव गांधी की सरकार थी। चिदम्बरम गृह मंत्री थे। उत्तर प्रदेश में भी तब कांग्रेस की ही हुकूमत थी, जो स्थिति 33 साल पहले थी वह अब क्या बदल गई है ? हाल ही में (23 मार्च) मध्य प्रदेश के बैतूल शहर के एक हिंदू वकील ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उनकी दाढ़ी के कारण उन्हें मुसलिम समझ लिया और पिटाई कर दी। वकील के आडियो टेप में पुलिस अधिकारी को कथित तौर पर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि :’जब कभी दंगे होते हैं पुलिस हमेशा हिंदुओं का समर्थन करती है।’
जॉर्ज फ़्लॉयड की पुलिस के हाथों हुई मौत, अश्वेतों के साथ हर स्तर पर होने वाले भेदभाव या फिर अमेरिका और योरप में इस समय जो कुछ चल रहा है उसके प्रति अगर हमें ज़रा सी भी सिहरन भी नहीं हो रही है तो फिर यही माना जा सकता है कि चमड़ी के रंग और जाति के नस्लवाद के प्रति हमारा केवल मौन समर्थन ही नहीं है उसमें हमारी अप्रत्यक्ष भागीदारी भी है। पर इसके लिए हमें शर्मिंदा होने की भी क़तई ज़रूरत नहीं है। अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन से अपने स्तर पर मैंने जो जानकारी जुटाई है उसके अनुसार ‘लगभग’ सभी भारतीय नागरिकों ने अपने आपको ‘ब्लैक लाइव्ज़ मेटर’ आंदोलन से काफ़ी दूर कर रखा है। जैसा कि बताया गया है: ‘वे (भारतीय नागरिक) न तो इस तरफ़ हैं और न उस तरफ़। वे सिर्फ़ खुद के भविष्य को लेकर ही हमेशा की तरह इस समय भी चिंतित हैं।’ लॉक डाउन के दौरान यहाँ भारत में हमारी चिंताएँ भी तो बस यहीं तक सीमित हैं !