हिन्दी दिवस (14 सितम्बर)
भाषा हमारे जीवन की एक बुनियादी जरूरत है, लेकिन आजकल उसमें भी भेद-भाव बरता जा रहा है। ऐसे में मातृभाषा हिन्दी को किस तरह कारगर बनाया जाए? प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता विभा वत्सल का यह लेख।
‘’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखूँ हिन्दी, चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना।’’ स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की ये लाइनें ही बताती हैं कि हिंदी कितनी सुंदर भाषा है। वह भाषा जिसमें हम पैदा हुए। जिसमें हमने आंखें खोलीं। वह भाषा जिसमें मुस्कुराना सीखा है। हिंदी जिसके पास बहुत बड़ा शब्द संसार है। वह भाषा जिसमें बहुत से रचनाकार दिन-रात जीते हैं, लेकिन आज के दौर में हमने इसकी खूबसूरती पर आधुनिकता का आवरण ओढ़ा दिया है। कुछ दिन पहले की ही बात है। सोसायटी के पार्क में कुछ बच्चे खेल रहे थे। वहीं दो बच्चियां अलग-थलग बैठी थीं। पूछने पर पता चला कि अंग्रेजी नहीं बोलने के कारण दूसरे ग्रुप ने उन्हें खिलाने से इनकार कर दिया है। सोचिए कितनी अजीब बात है। बच्चों में हिंदी को लेकर कितनी हीन भावना भर दी गई है। बहुत सामान्य बात है कि इसकी शुरुआत घर से ही हुई होगी। लोगों के मन में सबसे बड़ा भ्रम यही है कि विद्वान वही है जो अंग्रेजी बोलना जानता है।
भाषा ही ज्ञान का पर्याय है। बच्चे के पैदा होते ही जो भाषा घुट्टी के रूप में मिलती है वह है- हिंदी, लेकिन हिंदी सीखने के बजाय हम अंग्रेजी के शब्दों से उसकी दुनिया से पहचान करवाते हैं। रही-सही कसर स्कूल पूरी कर देते हैं जहां हिंदी बोलने पर फाइन लग जाता है। इसे बड़े गर्व से चार लोगों को बताकर भरा भी जाता है। ये सिर्फ बच्चों तक ही सीमित नहीं है। हम बड़े भी सामाजिक प्रतिष्ठा के मंचों पर पहुंचते ही हिंदी में बोलने के बजाय अंग्रेजी बोलकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। हिंदी बोलने वाला व्यक्ति कितनी भी विद्ववता की बात कर ले, लेकिन उसे कम सुना जाएगा, कम आंका जाएगा। वहीं अंग्रेजी बोलने वाला कितनी भी मूर्खतापूर्ण बातें कर ले उसे बुद्धिजीवी माना जाएगा। कहीं-न-कहीं हमारे अवचेतन में ये बात बिठा दी गई है। अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ी हिंदी को बोलने में गर्व के बजाय हम शर्म महसूस करते हैं। हालांकि नई शिक्षा नीति में प्राइमरी के बच्चों के लिए किया गया बदलाव अपनी मातृभाषा में पढ़ने की आजादी देता है। भारत में 60 से 70 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके लिए भाषा की यह नीति कारगर होगी।
वैसे हिंदी पेट से भी जुड़ी है। मिसाल के तौर पर मीडिया जगत को ही ले लें। जिस लगन, मेहनत और तत्परता से हिंदी रिपोर्टर काम करते हैं, वैसे ही अंग्रेजी रिपोर्टर भी, लेकिन उनके वेतन में भारी अंतर होता है। हम व्यक्ति के ओहदे और उसकी काबिलियत को भाषा के तराजू पर तौलने लगे हैं। ये महज एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। हर दफ्तर की यही कहानी है। इसके पीछे हमारी मानसिकता के साथ-साथ इसकी पैकेजिंग भी है। जिस पर काम करने की ज़रूरत है। ताकि कार्यक्षेत्र में तरक्की और पहचान के असीमित विस्तार के लिए लोग अंग्रेजी में ‘फिट-इन’ होने की कोशिश ना करें। इसका सबसे अच्छा उदाहरण चीन है, जिसने अमेरिका का न तो फेसबुक और न ही व्हाट्सएप इस्तेमाल किया, यहां तक कि गूगल को भी बैन कर रखा है। बावजूद इसके ढेरों विकल्पों के साथ वह तकनीक में आगे है। भाषा की दीवार खड़ी करके उसने अपनी प्रतिभाओं को तहखाने में नहीं डाला।
हिंदी की भोजशाला बड़ी है। केवल खाना बनाने वाले हथियार, उसके औज़ार को पैना करने की ज़रूरत है। गुफाओं में बैठी हिंदी को नया चेहरा, नए कलेवर और फूल-माला पहनाकर पेश करने की आवश्यकता है। हिंदी किताबों को सहज और लोकप्रिय बनाना होगा। जनता की भाषा में साहित्य लिखना होगा। जनता की संवेदना को समझना होगा। ये समझना होगा कि आखिर क्यों सतही तौर अंग्रेजी में लिखा उपन्यास रातों-रात लोकप्रिय हो जाता है। उसकी मार्केटिंग को समझना होगा। हालांकि दुनिया की चौथी बड़ी भाषा हिंदी का बाज़ार तैयार हो रहा है। इंटरनेट से हिंदी की संभावनाएं बढ़ी हैं। सोशल मीडिया हो या गूगल या फिर अमेजॉन, सभी हिंदी पर काम कर रहे हैं। इसके पीछे भारत में बढ़ते अवसर हैं। 94 फीसदी की दर से डिजिटल वर्ल्ड में हिंदी सामग्री की दर बढ़ रही है। करीब इतने फीसदी युवा यूट्यूब पर हिंदी में वीडियो देखते हैं। अब इसकी मूल प्रवृत्ति को बचाते हुए इसके विस्तार की जिम्मेदारी हमारी है। इसका मतलब ये हरगिज नहीं है कि हिंदी को बढ़ाने के लिए अंग्रेजी को हराना है। लड़ाई है, अंग्रेजी की गुलामी से खुद को स्वतंत्र करने की। दरअसल हिंदी बीज है। बीज बचेगा तो संस्कृति बचेगी। हमें इसकी जड़ों को सींचकर मजबूत करना होगा। (सप्रेस)
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