राजेंद्र सिंह

राजेंद्र सिंह

लोकतंत्र में जब ’तंत्र’ ही ’लोक’ के विरोध में खड़ा हो जाता है, तो लोक भी संगठित होकर अपने को मजबूत बना लेता है। लेकिन सरकार ने यह काम एक महामारी के दौरान किया है; जिसमें सामाजिक दूरियों को बनाये रखने की पालना करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में भी कोल इंडिया के मजबूत संगठनों व प्र्रबंधकों ने कोल के काम में भ्रष्ट्राचार और अवैज्ञानिक खनन, मजदूरों के साथ अत्यंत खराब व्यवहार तथा जंगलों को लूटने वाली व्यवस्था के विरुद्ध वातावरण निर्माण किया है।

भारत को जलवायु परिवर्तन की सुरक्षा, अन्न उत्पादन के लिए जल सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा प्रदान कराने हेतु भारत सरकार ने बहुत मूलभूत व्यवस्था बनाई थी। उस व्यवस्था के तहत भारत के जंगलों में हमारे साझा भविष्य और वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए, भारत के जंगलों की बर्बादी रोकने का वन संरक्षण कानून और दूसरा प्रदूषण नियंत्रण कानून बहुत मजबूती से बनाये गए है।

संविधान का 73वाँ संशोधन, ग्राभ सभाओं की इच्छा के विपरीत गाँव की जैवविविधताओं को नष्ट नहीं करे। इसके लिए जैवविविधता अधिनियम बनाकर संरक्षण की व्यवस्था बनाई थी। संविधान ने वन क्षेत्रों में वनवासियों, वन्य जीवों व वनों का संरक्षण करने के लिए खनन जैसे प्रकृति विरुद्ध कार्यों को रोकने की व्यवस्था दी थी, लेकिन सरकारों ने इसकी पालना नहीं कराई है। परिणाम यह हुआ कि अब घने समृद्ध वन्य क्षेत्रों को भी निजी कम्पनियों को दिया जाने लगा है।

भारत के संविधान के 73वें संशोधन की अवहेलना करके 41 कोल क्षेत्रों को निजी कम्पनियों को देने का फैसला कोविड-19 की महामारी के दौरान हुआ है। यह फैसला वनवासियों के जीवन, जीविका और ज़मीर की सुरक्षा नष्ट करके, जंगलों को लूटने वालों को मालिक बनाता है। पिछले दिनों में ओड़िशा, छत्तीसगढ़, झारखंड़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड़ आदि राज्यों के बहुत सारे आंदोलनों ने जंगल व जंगलवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित कराई थी।

ओडिशा में डोंगरिया जनजाति के भगवान ‘नाइमगिरि पर्वत‘ को बचाने के लिए, उस काल के उच्चतम् न्यायालय के निर्णय से न्यायाधीशों द्वारा भेजे गये, एक न्यायधीश ने मौके पर ‘‘ग्राम सभाओं की सीधे बैठक में शामिल होकर वेदांता कम्पनी के झूठे ग्रांम सभा प्रस्तावों को प्रत्यक्ष जाँचा था।’  निजी कम्पनियों के इन झूठे ग्रामसभा प्रस्तावों की स्थिति स्वयं जाँचकर वेदांता परियोजना को रद्द कर दिया गया था। इसी प्रकार मिर्जापुर और सोनभद्र जिले की निजी कोल माइन्स में वहाँ की जनजातियों का पाँच बार विस्थापन और जीवन की दुर्दशा देखकर, वहाँ के वनों व वनवासियों की सुरक्षा प्रदान की थी।

राँची के कोल क्षेत्र में मरकरी लैड़ जैसे विरोधी तत्वों से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए भारत सरकार एवं न्यायपालिका का सदैव ही मानवीय सुरक्षा का दृष्टिकोण रहा है। इन्होंने यहांँ के पेयजल में भयानक मरकरी व आर्सनिक नाइट्रेट अलग करके स्वच्छ जल प्रदान करने की व्यवस्था करवाई थी।

समाज की जीवन, जीविका और ज़मीर के संकट को हल करने की कोशिश शुरू की थी। यह कोशिश सरकारी क्षेत्रों में तो सफल हुई और अभी भी चल रही है। लेकिन केपटिव एवं ठेकेदारी व निजी व्यवस्था में सफलतापूर्वक नहीं चली और इसे रोक दिया गया।

तरुण भारत संघ ने भारत सरकार के मामलों में सरिस्का वन क्षेत्रों में स्थित 472 निजी खदानें 1992 में बंद कराई गई थी। इसी प्रकार बाद में फोरेस्ट एक्ट एवं गोंड़ावर्मन केस में कहा गया कि सरकार अपने काम के लिए एक एकड़ भूमि उपयोग करती है तो, उसकी दो एकड़ भूमि में वन तैयार करने की जिम्मेदारी है। सरकार की नीति के अनुरूप भारत में 33 प्रतिशत वन भूमि, मैदानी क्षेत्रों में एवं 66 प्रतिशत वन भूमि पर्वतीय क्षेत्रों में होनी चाहिए। इसलिए सरकार को वनों को लगाने, बचाने और सघन बनाने के लिए तेजी से काम करने की जरूरत हैं।

सरकार को अपनी ही वन नीति की पालना करने की बाध्यतापूर्ण व्यवस्था बनाई थी। इसलिए भारत की जनता को विश्वास दिलाना होगा कि, भारत के जंगलों को कोई नष्ट नहीं करेगा। जल, जंगल, जंगलवासियों, जंगली जानवरों व वन्य भूमि को जंगलों के लिए सुरक्षित एवं संरक्षित करेंगे। इसी दिशा में भारत के उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर प्रकाश डाला है और स्पष्ट आदेश दिये हैं। सरकार को अपनी न्यायपालिका के आदेशों का पालन करना जरूरी है।

सरकार ने बहुत तेजी से अब जंगलों की अनदेखी करना शुरू कर दिया है। यह सरकार आर्थिक लाभ प्रतियोगिता के जंजाल में फँसकर शुभ् और लोकसुरक्षा को भूल गई है। इसलिए आर्थिक लाभ कमाने वाले जब भी कुछ बोलते है करते हंै, तो सरकार उन्हें बहुत गंभीरता से सुनती है। लेकिन लोककल्याण की आवाज, जो भारत के लिए शुभ व सुरक्षा प्रदान करती है, उन्हें सरकार अपना विरोधी मानकर नजर अंदाज करती है। इसी कारण आज की यह सरकारी व्यवस्था लोक विरोधी दिखती है।

लोकतंत्र में जब ’तंत्र’ ही ’लोक’ के विरोध में खड़ा हो जाता है, तो लोक भी संगठित होकर अपने को मजबूत बना लेता है। लेकिन सरकार ने यह काम एक महामारी के दौरान किया है; जिसमें सामाजिक दूरियों को बनाये रखने की पालना करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में भी कोल इंडिया के मजबूत संगठनों व प्र्रबंधकों ने कोल के काम में भ्रष्ट्राचार और अवैज्ञानिक खनन, मजदूरों के साथ अत्यंत खराब व्यवहार तथा जंगलों को लूटने वाली व्यवस्था के विरुद्ध वातावरण निर्माण किया है।

कोल इंडिया की यह सरकारी आवाज सरकार कितना सुनेगी और कैसे देखेगी? इसके बारे में अभी कहना अत्यंत कठिन है। लेकिन निजी कोल खनन के विरोध से एक लोक जुम्बिश शुरू हुई है।  यह लोक जुम्बिश ही सरकार के कोल क्षेत्रों की नीलामी को राष्ट्र विरोधी सिद्ध करवाकर रूकवा सकती है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें