बच्चों में चिंता, चिडचिडाहट और अवसाद के मामले बढ़ रहे हैं, और इन मनोदशाओं से निपटने के बड़े और छोटे बच्चों के तरीके अलग-अलग हैं| कई छोटे बच्चों में अनावश्यक चिडचिडाहट देखी जा रही है और ऐसे में वे अपने माता पिता से ज्यादा चिपकने की प्रवृत्ति दिखाने लगते हैं| इससे उनके माता पिता भी परेशान होते हैं| बच्चों की दिनचर्या जब अचानक बदल जाती तो उन्हें बड़ी परेशानी होती है| कोई नयी दिनचर्या शुरू करने में भी उन्हें उतनी ही दिक्कत होती है| बदली हुई परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने में उनकी मदद बहुत धैर्य और स्नेह के साथ की जानी चाहिए|
छोटे बच्चे ज्यादा मुखर नहीं होते| पर शब्दों से विपन्न उनके मासूम मन संवेदनाओं के मामले में संपन्न होते हैं| विशेष कर अव्यक्त, शब्दहीन संवेदनाओं से| गौर से देखें तो शब्दों के बगैर भी उनकी संवेदनाएं बड़े सूक्ष्म तरीके से व्यक्त होती हैं| कभी उनकी चुप्पी में, कभी उनकी देहभाषा में, कभी आधी-अधूरी बातों में| नन्हे बच्चों को समझने के लिए एक विशेष किस्म की संवेदनशीलता की दरकार होती है, जो दुर्भाग्य से अक्सर हम वयस्कों में नहीं होती| हालाँकि बचपन के भावों को हम भी अतीत में जी चुके होते हैं, पर बड़े होने तक उन पर स्मृतियों और अनुभवों की मोटी परतें चढ़ जाती हैं और आहिस्ता-आहिस्ता हमारे भीतर का बच्चा निर्जीव, प्राणहीन हो जाता है| बाल मन के टटकेपन को समझना एक बासी वयस्क मन के लिए कितना मुश्किल काम है|
यह बात इसलिए कही जा रही हैं, क्योंकि कोविड-19 महामारी नें बच्चों के कोमल मन पर बहुत गहरा असर डाला है| कोरोना काल का बच्चों पर गहरा असर हो रहा है| आम तौर पर आठ से नौ वर्ष की उम्र तक मानव मस्तिष्क पूरी तरह आकार ले चुका होता है| उस समय तक हुए अनुभवों की खरोंचें मन में दर्ज हो जाती हैं, और बाद के जीवन में अजीबो-गरीब तरीके से व्यक्त होती रहती हैं| कब कैसे और कहाँ, कितनी मात्रा में व्यक्त होगी, यह सब कुछ तय नहीं होता क्योंकि ये सभी अभिव्यक्तियाँ अवचेतन मन से उपजती हैं, जो चेतन सोच से दूर, गहराई में छिपा होता है| आज के छह से दस साल की उम्र के बच्चे कुछ वर्षो के बाद वयस्क होंगें, और उनके चित्त पर दर्ज हुई सीधी-तिरछी रेखाओं से ही उनके जीवन प्रभावित होंगें| उनकी सोच और काम काज प्रभावित होंगें| उनकी सोच समाज में व्यक्त होगी और कोरोना काल से गुज़रे और इससे प्रभावित कई बच्चों की मिली-जुली सोच के संचयी परिणाम एक सामाजिक समस्या का रूप ले लेंगें|
मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि अभी कुछ दिन पहले ही इंग्लॅण्ड में चौदह साल का एक बच्चा अपने घर के उन लोगों की फेहरिश्त बनाता पाया गया जो उसके हिसाब से इस महामारी से बच निकलेंगें, और जो इस महामारी के शिकार हो जायेंगें! इटली में एक नन्हे बच्चे को यह फिक्र थी कि लॉक डाउन की वजह से अब उसका जन्मदिन ही नहीं मन पायेगा, वह बड़ा नहीं होगा और हमेशा के लिए छोटा ही रह जाएगा| उदास कर देने वाले ये मासूम सवाल बड़ों के लिए बेवकूफी से भरे भी हो सकते हैं, पर इन बच्चों के लिए ये ठोस और वास्तविक हैं| गौरतलब है कि बड़ों की वास्तविकता और बच्चों की वास्तविकता अलग-अलग होती हैं; सत्य दोनों से परे हो सकता है, पर अपने भ्रम और अपना बोध सभी को वास्तविक लगते हैं| | दिल्ली में रहने वाली एक माँ ने बताया कि पिछले तीन महीनों में उसकी तीन साल की बेटी कई बार अपने बाथरूम में गिर चुकी है| यह सिर्फ संयोग नहीं, यह उस बच्ची की मानसिक उलझन और उसके घटते जा रहे अवधान का परिणाम है| मुंबई में मेरे ही एक रिश्तेदार का बारह साल का बेटा क्रिकेट खेलने और तैरने के लिए हमेशा आतुर रहता था| जब से उसका बाहर जाना बंद हुआ, वह बिलकुल चुप ही हो गया है| ऐसी स्थिति भी आयी जब उसने अपना एक वक्त का खाना ही बंद कर दिया| यह उसका अवसाद था जो न उसे समझ आ रहा था, और न ही वह इसे व्यक्त कर पा रहा था|
कोरोना वायरस के भौतिक लक्षण के बारे में अभी तक कई जानकारियाँ मिली हैं, पर इसके मानसिक प्रभावों की गंभीरता ठीक से नहीं आंकी जा रही| इस संक्रमण से बच्चों के शारीरिक रूप से बीमार पड़ने की संभावना तो कम है, पर उनपर पड़ने वाले मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक असर गंभीर होंगें, यह वयस्कों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए| बच्चों के कोमल मन इस प्रहार को पूरी तरह संसाधित नहीं कर पा रहे| उनकी सामान्य गतिविधियों का अचानक रुक जाना, अपने प्रिय मित्रों से आकस्मिक बिछोह, और ऊपर से विषाणु का भय | गरीब बच्चों को देखा जाए तो ऐसे अगिनत बच्चें हैं देश में जो स्कूल इसलिए जाते हैं, क्योंकि वहां दोपहर का भोजन मिलता है| उनके परिवार पहले से ही तंगहाल थे, महामारी ने कई जगहों पर माता-पिता का रोज़गार भी छीन लिया और ऐसे में बच्चों को कई तरह की चिंताएं सताने लगी हैं| कभी उनके घरों में कोई बीमार पड़ जाए, तो उन्हें यह पूरा माहौल और भी भयावह लगता है| बच्चों के मनोविज्ञान में एक अजीब बात यह है कि छोटे बच्चे अक्सर किसी भी पारिवारिक परेशानी के लिए खुद को ज़िम्मेदार मानने लगते हैं, भले ही उनका उससे कोई सम्बन्ध न हो| घर में कोई भी परेशान हो, बीमार हो, दुखी हो, तो नन्हे बच्चों को लगता है उनसे कोई गलती हो गयी होगी और यह अहसास उनके भीतर गहरा अपराध बोध भर देता है, और जीवन भर इसका असर बना रहता है|
अप्रत्याशित परिवर्तनों और अनिश्चितता के इस काल में हम बच्चों की मदद कैसे करें? वयस्कों की क्या ज़िम्मेदारी है उनके प्रति? ध्यान देने लायक बात है कि सभी बच्चों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग होती हैं| कुछ बच्चे महामारी से होने वाले अनुभव को नया मान कर उसका लुत्फ़ भी उठा रहे हैं, और अन्य कई आतंकित होने की हद तक डरे हुए हैं| जिन बच्चों को स्कूल और शिक्षकों से परेशानी थी, उनके लिए घरों में रह कर पढ़ना एक सुखदायी अनुभव है, पर जो घर के वातावरण से दुखी थे, उनके लिए यह एक अकथनीय पीड़ा से गुजरने जैसा है| ऐसे में माता-पिता और अभिभावक को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानों सभी बच्चों को एक ही जैसे हों|
बच्चों में चिंता, चिडचिडाहट और अवसाद के मामले बढ़ रहे हैं, और इन मनोदशाओं से निपटने के बड़े और छोटे बच्चों के तरीके अलग-अलग हैं| कई छोटे बच्चों में अनावश्यक चिडचिडाहट देखी जा रही है और ऐसे में वे अपने माता पिता से ज्यादा चिपकने की प्रवृत्ति दिखाने लगते हैं| इससे उनके माता पिता भी परेशान होते हैं| बच्चों की दिनचर्या जब अचानक बदल जाती तो उन्हें बड़ी परेशानी होती है| कोई नयी दिनचर्या शुरू करने में भी उन्हें उतनी ही दिक्कत होती है| बदली हुई परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने में उनकी मदद बहुत धैर्य और स्नेह के साथ की जानी चाहिए|
किशोर वय के बच्चों में दूसरी तरह की समस्याएं हो सकती हैं| उनके लिए अपने मित्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और उनसे दूर होना उनके लिए बहुत ही क्रूर, अस्वाभाविक और अस्वीकार्य होता है| वे बगावत पर भी उतर सकते हैं| किसी भी कीमत पर वे अपने दोस्तों के साथ मिलना-जुलना चाहते हैं; बंदिशें लगाने पर वे खीज और गुस्से से भर उठते हैं और अपने माता-पिता के साथ उनके सम्बन्ध बुरी तरह बिगड़ सकते हैं| यह स्थिति भी बहुत अधिक धैर्य और समझ की मांग करती है| इस उम्र में भावनाएं बहुत ही प्रबल और अक्सर अतार्किक होती हैं, और कई बच्चे महामारी के तथ्यों और इसके नियमों को देखते हुए भी अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते| ऐसे में घर में कलह का माहौल बन जाता है| बच्चे खुद भी दुविधा में होते हैं, अपने माता-पिता की दुश्चिंताएं भी उन्हें प्रभावित करती हैं|
मीडिया में लगातार चलने वाली बीमारी और मौत की ख़बरें उन्हें भ्रमित और परेशान करती हैं| उन्हें अपनी अन्दरूनी मांगों और बाहरी सच्चाई के बीच तालमेल बैठाने में बहुत समय लगता है और इस अंतराल में तरह-तरह की नकारात्मक भावनाएं मन में आती हैं| उन्हें तुरंत ख़त्म न किया जाए, तो वे मन में घर कर जाती हैं| बच्चों को उनकी चिंताओं को लेकर ताने नहीं देने चाहिए, न ही उन्हें गलत ठहराना चाहिए| उनसे यही कहना चाहिए कि माता-पिता होने के नाते हम उनकी चिंताओं और भावनाओं को समझ रहे हैं| सहानुभूति और समानुभूति से स्थितियां बहुत ज्यादा बदल सकती हैं| स्वयं की प्रतिक्रियाओं पर भी पैनी नज़र रखनी चाहिए| यदि हम बाहर से भी शांत दिखें तो बच्चे भी इससे प्रभावित होंगें| हमारी बेचैनी और व्यग्रता उन्हें भी बेचैन और व्यग्र बना देगी|
बच्चों को घर में थोडा आराम से रहने दें| उनकी घर की दिनचर्या को बहुत सख्त न बनाएं| उसे थोड़ा लचीला ही रहने दें| यह उनके तनाव को कम करेगा| यदि ऐसा नहीं हुआ तो घर से बाहर निकलने की उनकी इच्छा बहुत प्रबल होने लगेगी जिससे उन पर और उनके माता-पिता पर मानसिक दबाव ही बढेगा| टेलीविज़न और मोबाइल को बहुत बुरा न बताएं| आजकल उन्हें पढ़ाई लिखाई के लिए भी इसकी जरुरत है, पर वे थोडा समय पढ़ाई के बगैर भी इनके साथ बिता सकते हैं| इस सम्बन्ध में थोड़ा लचीला रुख अपनाना बेहतर है| हम बच्चों से जो भी कहें, हमारे शब्दों में स्नेह और फिक्र हो| हर वक्त आदेश और निर्देश देने की भाषा का इस्तेमाल न करें| यह समय बच्चों के साथ अपने संबंधों को फिर से समझने का है, उन्हें फिर से परिभाषित करने का है| इस समय को नकारात्मकता में नष्ट न किया जाए तो बेहतर है| यह बच्चों के साथ-साथ खुद को समझने का भी अच्छा अवसर है| जिन परिवारों में माता-पिता दोनों हैं वहां तो यह एक चुनौती है ही, पर जहाँ एक ही अभिभावक हो, वहां यह चुनौती और भी विराट बन सकती है| जहाँ माता पिता दोनों के ही काम पर जाना हो, और घर पर कोई बुजुर्ग रिश्तेदार न हो, वहां भी बिलकुल अलग तरह की चुनौतियाँ सामने आ सकती हैं|