क्या वे अपने जैसे नर्मदा तट के उन लाखों रहवासियों के बारे में कभी सोच पाते हैं जिन्हें बड़े बांधों के नाम पर अपने-अपने घर-बार से जबरन खदेड़ दिया गया है और जिनके पुनर्वास के बारे में विचार तक करना सरकारें भूल चुकी हैं? क्या उन्हें नर्मदा के उत्तरी तट की 19 और दक्षिणी तट की 22, यानि हिरन, बंजर, बुढनेर, डेब, गोई, कारम, सुक्ता, बारना, बेदा जैसी 41 सहायक नदियों के स्वास्थ्य की कोई चिंता सताती है? ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों की इन अनदेखियों का मतलब आखिर क्या है? क्या यह नदियों के प्रति हमारे पाखंडी नजरिए की ही बानगी नहीं है?
साल-दर-साल माघ महीने के शुक्लपक्ष की सप्तमी को ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों, आदि-गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ‘नर्मदा अष्टक’ का दैनिक परायण करने वालों और बात-बात पर ‘नरबदा माई’ की ‘सौं’ खाने वालों को कभी उस जीवनदायिनी नदी की दुर्दशा का रत्तीभर भी अहसास हो पाता है जो अब तेजी से अपनी समाप्ति की ओर बढ़ रही है? क्या वे समझ पाते हैं कि बिजली, सिंचाई और बाढ़-नियंत्रण के उन्हीं के कथित सुखों के शिगूफों की खातिर 1312 किलोमीटर लंबी नदी को उन दस विशालकाय तालाबों में तब्दील किया जा रहा है जिनमें से आधे अब तक बनकर तैयार भी हो गए हैं? क्या वे अपने जैसे नर्मदा तट के उन लाखों रहवासियों के बारे में कभी सोच पाते हैं जिन्हें बड़े बांधों के नाम पर अपने-अपने घर-बार से जबरन खदेड़ दिया गया है और जिनके पुनर्वास के बारे में विचार तक करना सरकारें भूल चुकी हैं? क्या उन्हें नर्मदा के उत्तरी तट की 19 और दक्षिणी तट की 22, यानि हिरन, बंजर, बुढनेर, डेब, गोई, कारम, सुक्ता, बारना, बेदा जैसी 41 सहायक नदियों के स्वास्थ्य की कोई चिंता सताती है? ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों की इन अनदेखियों का मतलब आखिर क्या है? क्या यह नदियों के प्रति हमारे पाखंडी नजरिए की ही बानगी नहीं है?
पाखंड का यह परनाला पडौस की पवित्र क्षिप्रा में भी खासा उजागर होता है। बारह साला महाकुंभ से लगाकर हर छठे-चौमासे पड़ने वाले पर्व-स्नानों में जिस जल को क्षिप्रा का मानकर डुबकी का पुण्य लूटा जाता है वह असल में लाखों रुपयों की बिजली फूंककर, कई किलोमीटर दूर से उठाकर लाया गया नर्मदा का पानी है। पाइप लगाकर नदी जोड़ने की फर्जी कवायद की मार्फत कभी-कभार क्षिप्रा को सदानीरा बताने के इस पाखंड के बरक्स एक सरल-सा, सामान्य ज्ञान का सवाल उठता है कि देश के चार में से एक महाकुंभ, सिंहस्थ को सदियों से पनाह देने वाली क्षिप्रा में आखिर पानी का यह टोटा क्यों हो गया? और दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली धर्म-धुरीण भाजपा की मौजूदा सरकार क्षिप्रा को पुनर्जीवित क्यों नहीं कर सकी? और सबसे जरूरी सवाल कि क्या तट पर बसे और उसे वापरते लाखों-लाख निवासियों का क्षिप्रा के जल के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
जानने वाले जानते हैं कि 2004 के सिंहस्थ में टेंकरों से लाए गए नलकूपों के पानी से क्षिप्रा को ‘जलवान’ बनाया गया था। बारह साल बाद 2016 के सिंहस्थ में दुनियाभर में थुक्का-फजीहत झेल रही ‘नदी-जोड़ परियोजना’ को संकट-मोचक बनाया गया। कहा गया कि क्षिप्रा-नर्मदा के इस जोड़ से रास्ते के अनेक गांव, शहर ‘तर’ हो जाएंगे और अंतत: सिंहस्थ का पुण्य भी मिलेगा। इस समूची जानकारी में चालाकी से बिजली के उस भारी-भरकम खर्च को छिपा लिया गया जो ‘नीचे’ बसी नर्मदा के पानी को ‘ऊंचाई’ की क्षिप्रा तक पहुंचाने में लगने वाला था। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली सरकार समेत किसी तटवासी को क्षिप्रा को साफ, सदानीरा बनाने, बनाए रखने का खयाल क्यों नहीं आता? क्या ऐसा करना कोई बडे ‘रॉकेट साइंस’ का काम है?
सत्ता, सरकार और समाज के पाखंड का यह कारनामा कोविड-19 महामारी ने खुलकर उजागर कर दिया था। इस बीमारी ने और कुछ किया हो, न किया हो, गटर बनती जाती हमारी वे नदियां अचानक साफ-सुथरी दिखाई देने लगीं थीं जिन्हें हम मां-बाप से लगाकर पुण्य-सलिला तक न जाने कितनी तरह के विशेषणों से संबोधित करते, पूजते नहीं थकते। गंगा उनमें से एक हैं जिनके प्रदूषण, गंदगी को साफ करने की सद्इच्छा रखने वालों में राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटलबिहारी बाजपेई, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी जैसे प्रतापी प्रधानमंत्री भी शामिल थे। इन सबने अपने-अपने कार्यकाल में गंगा को साफ बनाए रखने की खातिर प्राधिकरण, विभाग और फिर मंत्रालय बनाकर लाखों-करोड़ रुपयों का बजट आवंटित किया था। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कई-कई बार गंगा को साफ करने-रखने के लिए तत्कालीन सरकारों को निर्देशित-आदेशित किया और संसद, विधासभाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से गंगा-माई के डूबते अस्तित्व पर भावुक, निर्णायक बहसें कीं–करवाईं, लेकिन सब जानते हैं कि इस सारी मार-मशक्कत के बावजूद मार्च ‘2020 के अंतिम हफ्ते तक गंगा कतई साफ नहीं हो पाईं थीं।
महामारी से निपटने के लिए लगाए गए ‘लॉकडाउन’ ने ऐसे में भौंचक करते हुए गंगा के अलावा दूसरी कई नदियों को जीने लायक बना दिया था। इनमें से एक गंगा की सहायक और एन देश की राजधानी के बीचम-बीच से गुजरने और उसका मल-मूत्र समेत तरह-तरह का रासायनिक, मेडिकल कचरा धोने वाली, मृत्यु के देवता यम की बहन यमुना हैं। इंसानी हस्तक्षेप के बिना हुई यमुना की सफाई की वजह बताई गई थी – रासायनिक कचरे से लगभग पूरी मुक्ति। नदियों और अन्य जलस्रोतों में यह रासायनिक कचरा कारखानों, अस्पतालों और मशीनी कामकाजों की मार्फत बहता रहा है और चूंकि ‘लॉकडाउन’ में ये सारे प्रतिष्ठान बंद थे, इसलिए गंगा, नर्मदा समेत यमुना प्रदूषण-मुक्त हो गईं थीं। इस सारे धतकरम में इंसानी मल-मूत्र, सीवर लाइनों आदि को ‘पाप’ का भागीदार नहीं माना गया, क्योंकि आखिर ‘लॉकडाउन’ में भी ‘नित्य-क्रियाओं’ से तो मुक्ति नहीं पाई जा सकती। दिल्ली और यमुना की बात करें तो स्पष्ट है, जल-प्रदूषण के लिए छोटे-बड़े सैकडों कारखाने जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। जाहिर है, हम बहु-चर्चित, बहु-उद्धृत ‘विकास’ की नींव नदियों की मौत पर रखते रहे हैं।
पिछली सदी में हमारे यहां एक ख्यात प्रवासी लेखक हुए हैं – नीरद सी. चौधरी। उन्होंने भारतीय समाज के पाखंड को लेकर विस्तार से लिखा है और अपने लेखन के चलते भारी लानत-मलामत झेली है। नदियों के प्रति हम अपने रोजमर्रा के व्यवहार को देखें तो चौधरी साहब की बात एकदम सटीक बैठती है। एक तरफ तरह-तरह के कर्मकांडों के जरिए भारी जोर-शोर के साथ नदियों की पूजा-आरती की जाती है और ठीक दूसरी तरफ, उन्हीं पूज्य मानी जाने वाली नदियों में हर प्रकार का कूडा-करकट, मल-मूत्र और रसायनिक जहर बेरहमी से बहाया जाता है, उसके आसपास की वन-संपदा और पर्यावरण को नेस्त-नाबूद किया जाता है। कमाल यह है कि जैसे-जैसे विकास की भगदड में इजाफा होता जाता है, वैसे-वैसे नदियों और दूसरे जलस्रोतों में गंदगी उलीचने की रफ्तार भी बढ़ती जाती है।
एक जमाने में नदियों को लेकर समाज में भी चेतना थी। नर्मदा के दक्षिणी तट के होशंगाबाद शहर को ही लें तो विश्वेश्वर प्रसाद दीक्षित उर्फ ‘बिस्सू महराज’ को कोई कैसे भूल सकता है जो शहर के सेठानी घाट की साफ-सफाई के स्व-नियुक्त पालक थे। बाद में नगरपालिका ने उन्हें बाकायदा औपचारिक रूप से यह जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन उनके रहते किसी की मजाल नहीं थी कि नर्मदाजी में कचरा डाल सके। राधेश्याम लोहिया यानि स्वामीजी वैसे तो बच्चों को तैरना सिखाने, नर्मदाष्टक सिखाने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाते थे, लेकिन घाटों की चमाचम सफाई उनकी ही पहल पर की जाती थी। धीरे-धीरे समाज का ऐसा जैविक नेतृत्व समाप्त होता गया और नदियों समेत हमारे दूसरे प्राकृतिक स्रोत बाजार और बर्बादी के हवाले होने लगे। स्थानीय और बेहद छोटे स्तर पर होने वाले ये निजी और सामाजिक प्रयास आम लोगों में नदियों और जलस्रोतों को मान देना और उनके प्रति ठीक व्यवहार करना सिखाते थे। अब, जैसा सब जानते हैं, समूचा संसार बाजार की चपेट में है और नतीजे में नदियां भी पानी का केवल एक स्रोतभर रह गई हैं। ध्यान रखिए, नदियां सिर्फ पानी उपलब्ध करवाने वाली टोंटी भर नहीं हैं। उनके साथ किया जाने वाला सम्मान का हमारा व्यवहार, बदले में हमें उनकी सद्भावना प्राप्त करने की पात्रता देगा, वरना कुछ सालों में हम नदियों को देखने-सुनने के लिए भी तरसते रह जाएंगे। (सप्रेस)
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