अरविंद सरदाना

कडकती सर्दी में धरना देते किसानों को महीना भर से ऊपर हो गया है, लेकिन उनके संघर्ष का कोई हल निकलता दिखाई नहीं देता। किसानों की मांग है कि नए कृषि कानूनों को खारिज किया जाए और सरकार इसके लिए राजी नहीं दिखती। क्‍या ऐसे में कोई बीच का रास्‍ता दिखाई देता है?

मुख्य बात नैतिक है। यह दलील दी जाती है कि नए कानून किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए बनाए गए हैं। वर्तमान आंदोलन यह स्पष्ट करता है कि किसान इसे हितकारी नहीं मानते। इस कानून के विरोध में छोटे-बड़े और अलग-अलग राज्यों के सभी किसान जुड़े हैं। खासकर उन इलाकों के जहां सरकारी मंडी व्यवस्था मजबूत है। सरकार के साथ चर्चा के दौरान उन्होंने कानूनों के हर अंश पर अपना पक्ष रखा है। उनके द्वारा रखे गए तर्कों से यह साफ होता है कि इन कानूनों का स्वरूप सही नहीं है। सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है और वह संशोधन करने को तैयार है। किसान चाहते हैं कि इन्हें रद्द करके उनकी सहमति के साथ नए स्वरूप में  कानून बनाया जाएं।

सत्ता से थोड़ी विनम्रता के भाव की अपेक्षा है, हालांकि किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए यह मुश्किल है। हमारे पास कई उदाहरण हैं जहाँ सभी पार्टियों का रुख सत्ता और विपक्ष में फर्क रहा है। एक-दूसरे पर उंगली उठाने से रास्ता नहीं निकाला जा सकता। किसी भी संदर्भ में सत्ता की शक्ति के सामने जनता की आवाज को रखें। इसे विनम्रता से देखें तो रास्ता निकल सकता है। पीछे हटना, छोटा दिखना नहीं है।

नए स्वरूप से सोचना जरूरी है, क्योंकि सरकार द्वारा सुझाए गए संशोधन नए कानूनों को अपने आप निरर्थक बना देते हैं। संशोधन के बाद सरकारी मण्डी और उसके बाहर प्राईवेट मण्डी  में एक जैसे नियम होंगे और वे एक-दूसरे के पूरक होंगे। आज कई राज्य सरकारों ने प्राईवेट मण्डियों को चलाने की इजाजत दी है, परंतु यहाँ राज्य ने अपने मण्डी के नियमानुसार यह स्वीकृति दी है। उन्हें कारोबार करने का मौका है। केन्द्र सरकार अपने कानून को वापस लेकर, यह बात रख सकती है कि सभी राज्य सरकारें अपने मण्डी नियमों के अनुसार, प्राईवेट मण्डियों के लिए जगह दें। मंडी शुल्क एक समान रखने, जैसे प्रावधान राज्य सरकारों की सहमति के साथ हो।

इस बात को याद रखना जरूरी है कि सरकारी मण्डी किसानों के लिए फसल की बिक्री का पहला चरण है (point of first sale) और उसके नियम उनकी सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं। इसके बाद व्यापार की कड़ियाँ शुरू होती हैं। कृषि क्षेत्र में, जहाँ लाखों किसान हैं और कुछ ही व्यापारी, यह व्यवस्था जरूरी हो जाती है। किसान आज भी जहां चाहें, वहाँ बेच सकते हैं। यह छूट नया कानून नहीं देता, बल्कि यह पहले से है। सरकारी मंडी में जाने से सुरक्षा है कि नियमानुसार खरीदी होगी। नया कानून इस व्यवस्था को ‘बाइपास’ कर देता है।

किसानों के लिए सुरक्षा इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि कृषि क्षेत्र का उत्पादन मौसम अनुसार होता है। फसल की कटाई के समय भाव बहुत तेजी से गिर सकता है, क्योंकि उसकी आवक अधिक मात्रा में होती है। इसके बचाव के लिए नियम बनाना सरकार का काम है। अक्सर हम यह भी भूल जाते हैं कि प्राईवेट मण्डियाँ अपने विशेष मापदंड के अनुसार ही खरीदती हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मौसम और प्राकृतिक कारणों से आपका आलू या टमाटर, जिस गुणवत्‍ता का वे चाहते थे, वैसा पैदा नहीं हो पाया। वे फसल को लेने से इनकार कर देते हैं। सरकारी मण्डियाँ किसान को मना नहीं करतीं और सभी प्रकार की क्वालिटी के लिए जगह बनाती हैं। किसानों को यह सुरक्षा चाहिए जो प्राईवेट मण्डियाँ कभी नहीं देंगी। इन दोनों यानि सरकारी और प्राइवेट मंडी की फितरत अलग-अलग है।

यह तर्क इस बात की भी पुष्टि करता है कि मण्डी का संचालन मुख्य रूप से किसान की आर्थिक सुरक्षा के लिए है। यह कृषि क्षेत्र का अभिन्न अंग है। इसी कारण से यह दायित्व और शक्ति संविधान ने राज्य सरकार को दी है। इस कानून को वापस लेने से यह केन्द्र और राज्य के बीच दरार को समाप्त कर सकता है। सरकार को न्यायालय में जाने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। अगर इस कानून को रद्द करना है तो राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने मण्डी नियमों में संशोधन करके प्राइवेट मंडी के लिए समान नियम के अनुसार जगह बनाना, एक रास्ता हो सकता है।

‘अनुबंध कृषि’ या ‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ का कानून किसान के हितों को सुरक्षा प्रदान नहीं करता है। इसके कई कारण हैं। पहला, विवादों को सुलझाने की प्रक्रिया व्यवहारिक नहीं है। ‘सब-डिवीजनल मजिस्‍ट्रेट’ (एसडीएम) के पास समय नहीं होगा और न ही किसान वहाँ तक पहुँच पाएँगे। समझौते की प्रक्रिया किसानों के दायरे में होनी चाहिए। किसान यूनियन एवं कई वकील यह भी कह रहे हैं कि कानूनी रूप से यह लिखना कि विवाद को सुलझाने के लिए न्यायालय नहीं जा सकते, यह ‘मूल अधिकारों’ के विरुद्ध होगा। भारत के संदर्भ में जहाँ 80 प्रतिशत से अधिक छोटे किसान हैं, कंपनी या उनके एजेंट किसानों की मजबूरी का फायदा उठाएँगे। केवल कागज पर मालिकाना हक की सुरक्षा रहेगी, पर अन्य अलिखित तरीकों से किसानों की जमीन का उपयोग किया जाएगा। हमारे आसपास यह होता भी है। किसान अपनी ही जमीन पर बंधुआ बन सकता है। इन सारी दलीलों को देखते हुए इस कानून को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है।

कई लोगों ने सुझाव दिया है कि सरकार नए तरीके से सोचे। यदि सार्वजनिक मण्डी में ‘ग्रेडिंग’ की आधुनिक व्यवस्था बनायी जाए तो कंपनियों को किसान तक जाने की आवश्यकता नहीं होगी। इन मण्डियों में ही उन्हें सभी गुणवत्‍ता की फसलें प्राप्त हो पाएँगी। इसी प्रकार कंपनी को किसानों के लिए आधुनिक ज्ञान के स्रोत न बनाते हुए कृषि विश्वविद्यालय और उससे जुड़े ‘कृषि विस्तार केन्द्र’  इस ज्ञान के स्रोत बनें। यह प्रक्रिया सार्वजनिक रहेगी और किसान भ्रमित प्रचार में नहीं फंसेंगे।

भारत के लिए मूल समस्या धान और गेहूँ के दुष्‍चक्र में फंसना है। इसका किसानों को भी भरपूर एहसास है। इससे निकलने का रास्ता मिश्रित खेती पर लौटना है। यह तभी संभव है जब दो व्यवस्थाएँ लागू की जाएँ। एक, गेहूं, चावल जैसी 23 फसलों के अलावा अन्य फसलों पर केवल ‘न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य’ (एमएसपी) की घोषणा भर ना करें, बल्कि उनकी सरकारी खरीदी की जाए। दूसरा, पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक ‘एग्रो इकॉलॉजी विज्ञान’ का मेल किया जाए। तब किसान अन्‍य फसलों की तरफ लौटेंगे और हम अपनी जमीन, पानी और पर्यावरण को सुरक्षित रख पाएँगे। नए कानूनों को वापस लेना पहला कदम होगा और ये दूरगामी योजना के लिए विनम्रता का माहौल बना सकता है। (सप्रेस) 

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