पुण्य स्मरण : 24 जुलाई
देश में जन-विज्ञान के क्षेत्र में आने वाले बहुत कम ही लोग हैं जो समाज में फैले अंध-विश्वासों को विज्ञान की कसौटी पर परख सकें, लोगों को जागरूक कर सकें। ‘कोरोना-काल’ के ऐसे दौर में प्रोफेसर यशपाल जैसे वैज्ञानिकों की कमी बहुत अखर रही है, जो विज्ञान के अपने क्षेत्र में गहरी दखल के साथ-ही-साथ आम लोगों से भी जुड़ाव रखते हों। देश-दुनिया में अनेक लोग, बिना तथ्यों को जाने-समझे ‘वाट्सएप यूनिवर्सिटी’ को ज्ञान समझ रहे हैं। ऐसे में मुट्ठी भर लोग होंगे जो तथ्यों के आधार पर लोगों को समझा पा रहे हों, लेकिन इस नक्कार-खाने में तूती की आवाज़ कहां सुनाई देती है? मुझे तो मां ने अपने अनुभव से और प्रोफेसर यशपाल ने तथ्यों से जो समझाया था, वह कभी ना भूलने वाली सीख है।
बीते साल एक गोष्ठी में बात करते समय मुझे अपनी मां अलग रूप में याद आईं थीं। वर्ष 1995 की बात है, जब बहुत सारे लोग मंदिरों की तरफ उस चमत्कार को देखने उमड़ पड़े थे जिसमें गणेश जी की मूर्ति को दूध पीते बताया गया था। मैं भी उस शाम इस सनसनी-खेज खबर के दौरान घर पंहुचा और मां को बताया कि गणेश जी की मूर्ति दूध पी रही है, मैं भी देखने जा रहा हूं। मेरे अंदर बहुत उथल-पुथल मची थी। इस खबर को सुनकर मां के चेहरे पर कोई खास भाव नहीं आए। बहुत ही शांत और धीमी आवाज़ में उन्होंने कहा – ‘’बेटा, भगवान होते तो कोई गरीब भूखा नहीं होता।‘’ मैं तो जल्दी में था, साईकिल उठाई और चल दिया गणेश मंदिर की तरफ। वहां का नज़ारा, मंदिर के छोटे-से कमरे में भीड़ के कारण दिखाई नहीं पड रहा था। वापस घर आए तब तक सनसनी खत्म हो चुकी थी।
ऐसे में प्रोफेसर यशपाल ही थे, जिन्होंने इसका वैज्ञानिक कारण बताया था। उस गोष्ठी में यही बात चल रही थी कि देश में जन-विज्ञान के क्षेत्र में आने वाले बहुत कम ही लोग हैं जो समाज में फैले अंध-विश्वासों को विज्ञान की कसौटी पर परख सकें, लोगों को जागरूक कर सकें। ‘कोरोना-काल’ के ऐसे दौर में प्रोफेसर यशपाल जैसे वैज्ञानिकों की कमी बहुत अखर रही है, जो विज्ञान के अपने क्षेत्र में गहरी दखल के साथ-ही-साथ आम लोगों से भी जुड़ाव रखते हों। देश-दुनिया में अनेक लोग, बिना तथ्यों को जाने-समझे ‘वाट्सएप यूनिवर्सिटी’ को ज्ञान समझ रहे हैं। ऐसे में मुट्ठी भर लोग होंगे जो तथ्यों के आधार पर लोगों को समझा पा रहे हों, लेकिन इस नक्कार-खाने में तूती की आवाज़ कहां सुनाई देती है? मुझे तो मां ने अपने अनुभव से और प्रोफेसर यशपाल ने तथ्यों से जो समझाया था, वह कभी ना भूलने वाली सीख है।
देश के सर्वोच्च, पद्मभूषण और पद्म-विभूषण सम्मानों से सम्मानित प्रोफेसर यशपाल नब्बे साल की उम्र में तीन साल पहले (24 जुलाई 2017) हमसे सदा के लिए विदा हुए थे। यशपाल जी का देश की वैज्ञानिक प्रतिभाओं को निखारने में बहुत योगदान तो था ही, शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके योगदान को इतिहास कभी भुला ना पाएगा। हो सकता है कि अपने बेहतर ‘भविष्य’ के लिए ‘वर्तमान’ उनसे कोई सबक ना भी ले रहा हो, लेकिन यदि चाहें तो प्रोफेसर यशपाल के बारे में इंटरनेट पर तमाम जानकारियां उपलब्ध हैं।
आज फिर उनके साथ बिताए वो लम्हे याद आ रहे हैं, जब 28 साल पहले नौकरी छोडकर शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही प्रसिद्ध संस्था ‘एकलव्य’ से जुड़ा था और एक-दो महीनों में ही प्रोफेसर यशपाल से मिलना हुआ था। कालेज से निकलने के बाद की पहली नौकरी में तो विभाग के भ्रष्ट इंजीनियरों के सामने हाथ पीछे करके खड़े होना पड़ता था, पहली मुलाकात में प्रोफेसर यशपाल के सामने भी वैसे ही खड़ा हुआ था। इस पर उन्होंने बहुत स्नेह से अपने पास बैठाया तो अभिभूत हो गया कि इतनी बड़ी शख्सियत, इतनी सहज और सरल। इसके बाद तो कई बार यशपाल जी से मुलाकात होती रही, उनके व्याख्यान आयोजित किए, उनका साथ कई मौकों पर मिलता रहा।
होशंगाबाद जिले की संस्था ‘किशोर भारती’ की पहल पर मध्यप्रदेश सरकार के साथ दुनिया भर में विख्यात ‘होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम’ में प्रोफेसर यशपाल भी एक स्रोत व्यक्ति थे। बच्चों, शिक्षकों के साथ वे बहुत ही सहज और विनम्र तरीके के मिलते थे, बच्चों की जिज्ञासा से भरे प्रश्नों का उत्तर देते थे और उत्तर नहीं मालूम होने पर सहजता से स्वीकार भी कर लेते थे।
‘होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम’ के दौरान विकसित पाठ्य-पुस्तक ‘बाल वैज्ञानिक’ के संशोधित संस्करण की प्रस्तावना में प्रोफेसर यशपाल ने लिखा है कि ‘‘दो शब्द कहते हुए मुझे खुशी हो रही है। पिछले तीस सालों में स्कूली शिक्षा के बारे में जो काम ‘एकलव्य’ और उससे भी पहले ‘किशोर भारती’ ने किया है, उसकी मिसाल शायद ही कहीं मिले। ‘बाल वैज्ञानिक’ एक गहरा प्रयास है। ज़रूरत है, इससे भी आगे जाने की। हाईस्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में भी इसी प्रकार की सोच आने पर हम उच्चकोटि के वैज्ञानिक बना सकेंगे। देश को नया जीवन दे सकेंगे। देर करते रहे, तो शिक्षा केवल चाकरी की तैयारी बनकर रह जाएगी।’’
सन 2002 में, जब राज्य सरकार द्वारा ‘होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम’ बंद किया गया तो उन्होंने लिखा कि ‘‘यह सही है कि ‘होविशिका’ को मध्यप्रदेश में ही उपजाऊ जमीन मिली। राज्य की इस पहल को वहीं श्रद्धांजलि भी दी गई, जहां पर वह विकसित हुई थी। यह लगातार हो रहा है। कोई भी कार्यक्रम हमेशा के लिए परिपूर्ण नहीं होता, यदि प्रक्रिया सही हो तो कार्यक्रम भी लगातार विकसित होता रहता है। मैं जानता हूं कि बहुत रूढ़ीवादी और आलसी लोग इस तरह की खोजी प्रवृत्ति की पद्दति को पसंद नहीं करेंगे। मैं यह भी समझता हूं कि कुछ लोग उस प्रवृत्ति के प्रति आकृष्ट नहीं होंगे, जो सवाल करने के लिए उकसाती हो।’’
‘‘. . . . . यदि इसी तरह के कुछ लोगों के उकसाने से सचमुच की यह अनूठी पहल बंद होती है तो यह एक बहुत बड़ी त्रासदी होगी, क्योंकि इस कार्यक्रम के कारण मध्यप्रदेश एक शिक्षक की भूमिका में दिख रहा है। कार्यक्रम की शुरूआत से, पिछले तीस सालों से देशभर के विख्यात अकादमिक लोगों ने अपना समय और मेहनत देकर कार्यक्रम को बेहतर बनाने में सहयोग दिया है। मैं अपने आपको गौरावांन्वित महसूस करता हूं कि मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जो इससे बहुत सारे अवसरों पर, बहुत करीबी से संपर्क में रहे हैं। कृपया इसे यूं ही नष्ट ना होने दें और जैसा कि पहले भी कई बार कहा-किया गया है, जरूरत के मुताबिक इसका मूल्यांकन करें। इसकी समाप्ति को यूं ही मान लिया जाना ना केवल मध्यप्रदेश के लिए भयंकर नुकसान होगा, बल्कि देश को भी इसकी कीमत चुकानी पडेगी। इस तरह की कोशिशें सदी में एक या दो बार ही होती दिखती हैं।’’
शिक्षा पर ‘प्रोफेसर यशपाल समिति’ की रपट, शिक्षा, साक्षरता, विज्ञान-लोकव्यापीकरण जैसे तमाम मामलों में प्रोफेसर यशपाल का दायरा सचमुच बहुत ही विशाल रहा है। ऐसे दौर में जब सभ्य समाज के अंधविश्वासों में कोई खास कमी नहीं आई है, बल्कि उन्हें और वैधता ही मिल रही है, प्रोफेसर यशपाल का ना होना, वैज्ञानिक, शैक्षणिक और जन-विज्ञान के जगत के लिए कभी ना पूरी होने वाली क्षति है। ऐसे दौर में जब समाज टेक्नॉलाजी के रास्ते वापस शून्य की तरफ जा रहा हो, वैज्ञानिक चेतना से उसी शून्य को पहिया बना कर समाज को बेहतर भी बनाया जा सकता है। (सप्रेस)