पुस्तक समीक्षा
पिछले दिनों ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ में लम्बे समय जनसंपर्क अधिकारी रहे आदिल खान की ‘सरदार सरोवर परियोजना’ और उसका विरोध कर रहे ‘नर्मदा बचाओ आंदेालन’ के इतिहास पर एक किताब आई है। प्रस्तुत है, इस किताब की अभिलाष खांडेकर द्वारा की गई समीक्षा।
कोई जीवनदायी, प्राणमयी संरचना तो विवादास्पद हो ही नहीं सकती, पर पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिज्ञों और नीति-निर्धारकों की वजह से भारत में जिन नदियों को स्वाभाविक रूप से बस प्रवाहित होते रहना चाहिए, वे भी विवादों में घिर गयीं हैं। नर्मदा उनमें से ही एक है।
मैं मध्यप्रदेश से हूँ, जहाँ नर्मदा की उत्पत्ति होती है। यही कारण है कि मैं इस पावन नदी के बारे में एक नयी किताब की तरफ स्वाभाविक रूप से आकर्षित हुआ। ‘रीडिस्कवरिंग नर्मदा वैली’ नदी की परिस्थितिकी के बारे में नहीं बताती, लेकिन नर्मदा पर बाँध निर्माण, इनसे जुड़े तमाम मुद्दों और महत्वपूर्ण घटनाओं को चिन्हित करता हुआ यह एक शोध कार्य है। लेखक मध्यप्रदेश के हैं और जन-सम्पर्क अधिकारी रहते हुए उन्होंने सरकारी अभिलेखागारों में कई ‘गोते’ लगाये हैं। लेखक ने कई मुद्दे उठाये हैं, मसलन – बांधों के जरिये बिजली उत्पादन की आवश्यकता, सिंचाई की संभावनाओं का विस्तार, घाटी में बसे हज़ारों लोगों के विस्थापन से जुड़ा सदमा, पुनर्वास, जल से जुड़ी राजनीति और ‘सरदार सरोवर बाँध’ की ऊँचाई को लेकर गुजरात और मध्यप्रदेश के बीच कड़वाहट भरी एक लम्बी लड़ाई। अफ़सोस की बात है कि नदियों को समझने और कायम रखने से सम्बंधित मुद्दे इस किताब में नहीं उठाये गए हैं।
बाँध निर्माण के विचार का इतिहास कैसे अंग्रेजों के समय में 1901 में शुरू हुआ और अगले कुछ दशकों में इसमें कैसे तेजी आयी, इसका वर्णन इस किताब को विशिष्ट बनाता है। मध्यप्रदेश की जीवन रेखा पर बाँध के निर्माण की एक दिलचस्प तस्वीर लेखक ने उकेरी है। इसमें कई दशकों के आंकड़े और ऐतिहासिक तथ्य भरे पड़े हैं। ये सभी सरकारी दस्तावेजों से ही लिए गए हैं। आदिल खान ने ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ (नघाविप्रा) के साथ बिताये अपने समय का अच्छा उपयोग किया और इस दौरान उन्होंने यह समझा कि सरकारी नजरिये से नदी पर बनने वाले किसी बाँध को कैसे देखा जाए। उन्होंने बताया है कि कैसे दिल्ली, भोपाल, अहमदाबाद और मुंबई के राजनेताओं के बीच यह नदी झगड़ों का कारण बनी। ये सभी चाहते थे कि उनके हिस्से में ज्यादा पानी और बिजली आये, पर किसी ने भी इस बात के लिए संघर्ष नहीं किया कि नदी घाटी में बसे लोगों की दशा को कैसे सुधारा जाए। नदी पर बांधों के आर्थिक महत्व को लेखक ने बारीकी से रेखांकित किया है और साथ ही नदी पर बाँध बनाने के सरकारी अजेंडे पर भी बात की है।
एक पत्रकार के नाते मुझे ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ (नबआं) की गतिविधियों को कवर करने का अवसर मिला। दुनिया के श्रेष्ठ ‘राइट लाइवलीहुड’ और ‘गोल्डमन एनवायरनमेंट’ पुरस्कार प्राप्त इस आंदोलन का नेतृत्व ख्यात समाजसेवी मेधा पाटकर ने किया है। ‘नबआं’ ने लगातार तीन दशकों तक बड़े बांधों के निर्माण का विरोध किया। विशाल नर्मदा घाटी के गरीब आदिवासियों और किसानों को न्याय मिल सके इसके लिए आंदोलन ने अन्यायपूर्ण बांधों के निर्माण को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किये। किताब में संक्षेप में इसका उल्लेख भी है कि किस तरह गुजरात में एक-के-बाद-एक मुख्यमंत्रियों और दिल्ली की सरकारों ने मेधा पाटकर पर अपना निशाना साधा। लेखक बताते हैं कि दस वर्ष मध्यप्रदेश की सत्ता पर रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री और मौजूदा राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह ने किस तरह मेधा पाटकर की मदद की। आदिल की यह बात पूरी तरह सच नहीं लगती। दिग्विजय सिंह, ‘नबआं’ के ‘सहयोगी’ माने जाने के बावजूद ‘सरदार सरोवर बाँध’ की ऊंचाई आखिर तक 455 फीट से कम नहीं करवा पाए।
पुस्तक 29 छोटे अध्यायों में बंटी हुई है और इस वजह से इसे पढ़ना आसान हो जाता है। पुस्तक की शुरुआत हुई है, वर्ष 1901 से, जब भारत के पहले ‘सिंचाई आयोग’ ने अपनी रिपोर्ट में गुजरात में भरूच के निकट नर्मदा पर बाँध बनाने की वांछनीयता को संज्ञान में लिया था। तब से 2017 तक के उथल-पुथल भरे इतिहास की झलक इस पुस्तक में मिलती है।
वर्ष 1990-91 में फेरकुवा गांव में मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाओं पर आमने-सामने बैठे ‘नबआं’ और गुजरात सरकार का अंतर देखकर देश और दुनिया की चेतना जागी। उन्हें पहली बार सरकारों की ताकत के खिलाफ ‘नबआं’ के असंगठित, बिखरे हुए कार्यकर्ताओं के संघर्ष के बारे में मालूम हुआ। यह संघर्ष विश्वबैंक के खिलाफ भी था, जिसने 1985 में बांध के लिए धन देने के एक करार पर दस्तखत किये थे।
गांधीवादी बाबा आम्टे की अगुवाई और नागरिक संगठनों के समर्थन के साथ ‘नबआं’ ने डूब क्षेत्र के बड़वानी से फेरकुवा तक एक विराट मार्च का आयोजन किया। आंदोलन ने अब तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर ली थी और इस विरोध के कारण विश्वबैंक बाध्य होकर परियोजना की स्वतंत्र समीक्षा के लिए राजी भी हुआ था। समीक्षा की घोषणा पर मेधा पाटकर और छह अन्य लोगों ने 30 जनवरी, ‘गाँधी निर्वाण दिवस’ पर फेरकुवा में अपना अनिश्चितकालीन अनशन समाप्त किया था। इस स्वतंत्र समीक्षा के लिए ख्यात नृतत्वशास्त्री और ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के पूर्व अधिकारी ब्रैडफोर्ड मोर्स की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय समिति गठित की गई। सभी राज्य और केंद्र की सरकारों ने ‘मोर्स समिति’ को प्रभावित करने की तिकड़में कीं, पर आखिर में जीत सत्य की ही हुई। ‘मोर्स समिति’ ने जून 1992 में अपनी रिपोर्ट पेश की और कहा कि विश्वबैंक को ‘सरदार सरदार सरोवर परियोजना’ से खुद को अलग कर लेना चाहिए। ‘नबआं’ की इससे काफी हिम्मत बढी। खरगोन जिले के छोटी-कसरावद में उन्होंने अपनी जीत का जश्न मनाया। बाबा आम्टे और स्वामी अग्निवेश जैसे कई सामाजिक नेताओं ने ‘नबआं’ को अपना समर्थन दिया।
‘मोर्स समिति’ के फैसले के बाद आखिरकार मार्च 1993 में विश्वबैंक ने अपनी आर्थिक सहायता वापस लेने की घोषणा कर दी। न्याय के लिए संघर्ष में ‘नबआं’ की यह एक ऐतिहासिक जीत थी। आंदोलन बाँध को तो नहीं रोक पाया, पर उसने काफी कुछ हासिल कर लिया था। वर्ष 1994 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया ने बाँध के खिलाफ ‘नबआं’ की विस्तृत याचिका स्वीकार करते हुए कहा था कि ‘नबआं’ ने बांध और विस्थापन के मुद्दे पर राष्ट्रीय चेतना को जगाया है। ‘सरदार सरोवर परियोजना’ से विस्थापित होने वाले करीब 5000 परिवारों को वास्तव में दो हेक्टेयर के हिसाब से कृषि योग्य ज़मीन मिली। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था। आदिल ने अपनी किताब में ‘नबआं’ की ऐसी कई उपलब्धियों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। हालांकि सरकारी अधिकारी होने के नाते उन्होंने अधिकतर राजनीतिक और अन्य घटनाओं के बारे में अपने विचार व्यक्त नहीं किये हैं।
पुस्तक 29 छोटे अध्यायों में बंटी हुई है और इस वजह से इसे पढ़ना आसान हो जाता है। पुस्तक की शुरुआत हुई है, वर्ष 1901 से, जब भारत के पहले ‘सिंचाई आयोग’ ने अपनी रिपोर्ट में गुजरात में भरूच के निकट नर्मदा पर बाँध बनाने की वांछनीयता को संज्ञान में लिया था। तब से 2017 तक के उथल-पुथल भरे इतिहास की झलक इस पुस्तक में मिलती है। गौरतलब है कि सितम्बर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर ‘सरदार सरोवर परियोजना’ का लोकार्पण किया था। परियोजना को इस आधार पर उचित ठहराया गया था कि इससे गुजरात के सूखा-ग्रस्त इलाकों को पानी पहुँचाया जाएगा। हालांकि नहर के वे हिस्से अभी तक बन कर तैयार नहीं हुए हैं।
‘नर्मदा जल-विवाद न्यायाधिकरण’ (नर्मदा पंचाट) के फैसले (अवार्ड) के बाद पाठक को एक अलग अध्याय में ‘जल की राजनीति’ के बारे में जानकारी मिलती है। लेखक इसमें उस ‘नर्मदा पंचाट’ का ज़िक्र करते हैं, जिसने दिसम्बर 1979 के अपने फैसले में कहा था कि नदी के कुल 28 मिलियन एकड फीट (एमएएफ) में से गुजरात को 9 एमएएफ पानी मिलेगा और बाँध की ऊंचाई होगी-455 फीट या 138.68 मीटर। लेखक यहां यह भी बता सकते थे कि नर्मदा घाटी के कैचमेंट इलाके में गुजरात का हिस्सा सिर्फ 2 फ़ीसदी है, फिर भी उसे 32 फ़ीसदी पानी मिल रहा था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि गुजरात ने ‘नर्मदा पंचाट’ के सामने दलील दी थी कि वह पानी को कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों तक ले जाना चाहता है। पर जब पानी के वास्तविक बंटवारे का समय आया तो गुजरात ने कच्छ में 2 फीसदी, सौराष्ट्र में 9 फीसदी और उत्तरी गुजरात में 20 फीसदी कृषि योग्य भूमि की सिंचाई के लायक ही पानी आवंटित किया और वह भी सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर नहीं।
‘नर्मदा पंचाट’ के फैसले के तुरंत बाद गुजरात और मध्यप्रदेश के बाँध विरोधी संगठनों ने राष्ट्रव्यापी आन्दोलन शुरू कर दिए। गुजरात इस बात से खुश था कि आखिरकार ‘पंचाट’ ने बाँध की ऊंचाई तय कर दी है, हालाँकि उसने जो मांग की थी, उसकी तुलना में यह अभी भी कम ही थी। मध्यप्रदेश के नेता इसके विरोध में थे, क्योंकि वहां घाटी के विशाल सिंचित क्षेत्र डूब जाते। वर्ष 1985 में जब तक ‘नबआं’ खड़ा हो पाता, ‘निमाड़ बचाओ आन्दोलन’ शुरू हो गया था। कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह और सुरेश सेठ के नेतृत्व में करीब 5000 समर्थक भोपाल में सड़कों पर उतर आये। उन्होंने जनता पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सकलेचा को बाध्य कर दिया कि वह विधानसभा में यह बयान दें कि मध्यप्रदेश ‘पंचाट’ के फैसले के विरुद्ध है।
अर्जुन सिंह 1980 में जब मुख्यमंत्री बने तो यह फैसला कैबिनेट की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया गया। वरिष्ठ आदिवासी मंत्री शिवभानुसिंह सोलंकी ने फैसले की स्वीकृति का विरोध किया और मामला समीक्षा के लिए केंद्र सरकार को भेजना पड़ा। गुजरात के सभी नेता और पार्टीगत मतभेदों से ऊपर उठकर एक-के-बाद-एक आये मुख्यमंत्रियों ने बांध की 455 फीट ऊंचाई का समर्थन किया था। गुजरात के इन मुख्यमंत्रियों में सुरेश मेहता, छबीलदास मेहता, अमरसिंह चौधरी, केशुभाई पटेल, शंकरसिंह वाघेला, चिमनभाई पटेल और नरेंद्र मोदी। आश्चर्य की बात यह है कि फरवरी 1994 में मध्यप्रदेश के एक बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल ने ‘केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्री’ के तौर पर गुजरात के सांसदों को आश्वासन दिया कि ‘सरदार सरोवर बाँध’ की ऊँचाई कम नहीं की जायेगी। एक महीने बाद नये मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने विधानसभा में एक बयान दिया कि निमाड़ क्षेत्र के विशाल इलाकों में उपजाऊ भूमि और मध्यप्रदेश के 30,000 परिवारों को तभी बचाया जा सकता है, यदि गुजरात बाँध की ऊंचाई को 436 फीट तक कम करने पर सहमत हो जाए। सुप्रीमकोर्ट में ‘नबआं’ की याचिका के साथ मध्यप्रदेश सरकार ने एक हलफनामा दाखिल किया और यह स्पष्ट किया कि वह क्यों कम ऊंचाई चाहता है। लेखक के मुताबिक तत्कालीन ‘केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री’ कमलनाथ ने मध्यप्रदेश का समर्थन किया था, जबकि विद्याचरण शुक्ल ने ऐसा नहीं किया था।
प्रधानमंत्रियों में इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, देवेगौड़ा, नरसिम्हा राव सभी ने आपस में झगड़ रहे गुटों के बीच समझौता करवाने के प्रयास किये, पर किसी ने भी सही निर्णय पर पहुँचने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छा-शक्ति नहीं दिखाई। इधर आन्दोलनकारी सरकारों पर दबाव बढ़ाते रहे। राजीव गाँधी इस मामले में अपवाद थे। ‘पर्यावरण और वन मंत्रालय’ में उन दिनों टीएन शेषन सचिव थे। वे चार सालों तक बाँध को मंजूरी देने से इनकार करते रहे। उनका मानना था कि बाँध के लिए पर्याप्त बुनियादी शोध नहीं किया गया है।
राजीव गाँधी ने 1987 तक तो उनका समर्थन किया, क्योंकि उस समय तक वे राजनीतिक रूप से कमज़ोर थे। गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे चार पश्चिमी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के मिले-जुले दबाव से निपटना उनके लिए शायद मुश्किल था। ये सभी मांग कर रहे थे कि परियोजना को हरी झंडी दिखा दी जाए। वर्ष 1985 में विश्वबैंक ने भी दबाव डालना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश ने 1972 में ‘नर्मदा पंचाट’ को एक मास्टर प्लान सौंपा था। इसके मुताबिक 29 बड़े, 135 मध्यम और करीब 3000 छोटे बांधों का प्रस्ताव दिया गया था। बारना, तवा, मान और कोलार वगैरह में नर्मदा की सहायक नदियों पर बाँध बनाने के भी प्रस्ताव इसमें शामिल थे। कैचमेंट इलाके में इनके हिस्से के अनुसार नर्मदा नदी के जल में मध्यप्रदेश का ज्यादा बड़ा भाग था, पर ‘नर्मदा पंचाट’ ने मध्यप्रदेश को उस समय के नर्मदा जल के आकलन के अनुसार पूरे 28 मिलियन एकड़ फीट में से सिर्फ 18 एमएएफ जल ही आवंटित किया। लाखों करोड़ रुपयों के बजट के साथ परियोजना को पूरा करने के लिए ‘नर्मदा घाटी विकास विभाग’ और ‘नर्मदा प्लानिंग एजेंसी’ जैसी एजेंसियां भी 1980 के दशक में गठित की गयीं। ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ का भी गठन हुआ जिसे ‘नर्मदा पंचाट’ के फैसले के मुताबिक अंतर्राज्यीय विवादों का प्रबंधन करना था। बाद में पुनर्वास और पर्यावरण के लिए छोटे समूह भी बनाए गए।
गुजरात और मध्यप्रदेश का विवाद तो ख़त्म हो चुका है, क्योंकि सुप्रीमकोर्ट ने 18 अक्टूबर, 2000 को इसमें अंतिम आदेश पारित कर दिया है। इसके मुताबिक बांध को 455 फीट या 138.68 मीटर तक भरे जाने की अनुमति दी गयी है। पुनर्वास और पर्यावरण को लेकर आन्दोलन जारी रहे और 17 साल बाद ही प्रधानमंत्री मोदी इसका उद्घाटन कर सके। अभी भी यह परियोजना अधूरी ही है, पर 2:1 के बहुमत से यह फैसला भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएस आनंद और न्यायूर्ति बीएन किरपाल ने दिया था। इस फैसले में बांध और आदिवासियों को लेकर कुछ बहुत ही परेशान करने वाले सुझाव थे। न्यायमूर्ति भरूचा अकेले थे जिन्होंने फैसले पर अपनी असहमति ज़ाहिर की थी। वे चाहते थे कि निर्माण रोक दिया जाए और एक स्वतंत्र, विस्तृत समीक्षा हो। आदिल खान बताते हैं कि इससे ‘नबआं’ को झटका लगा, पर उसने अपना आन्दोलन जनता और पर्यावरण के हित में जारी रखा। सुप्रीमकोर्ट ने भी कहा कि पर्यावरण और पुनर्वास संबंधी मामले ‘नर्मदा पंचाट’ और कानून के निर्देशों के मुताबिक़ माने जाने हैं।
आदिल खान ने अपनी किताब में प्रागैतिहासिक एवं ऐतिहासिक, पुरातात्विक पहलुओं को भी स्पर्श किया है। महेश्वर, पिपलाज, नावराटोली और खापरखेडा जैसी जगहों पर इस क्षेत्र में कांस्य युगीन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। हरदा जिले में 12 वीं सदी के रिद्धेश्वर मंदिर को चारों तरफ दीवार बनाकर सुरक्षित किया गया है। घाटी में आठ करोड़ 60 लाख वर्ष पुराने दुर्लभ किस्म के सीप के जीवाश्म मिले हैं जिससे मध्य-भारत में समुद्री जीवन के फिर से प्रमाण मिलते हैं। नर्मदा घाटी में रहने वाले ‘होमो इरेक्टस नार्मदेंसिस’ इंसान के प्रमाण भी मिले हैं। करोड़ों साल पहले घाटी में सिंह, चीता, प्राचीन हाथी, गैंडे और यहाँ तक कि दरियाई घोड़े तक के होने के प्रमाण मिले हैं। पुस्तक में इनकी एक फेहरिश्त दी गयी है।
भारत की सबसे अधिक चर्चित ‘सरदार सरोवर बाँध परियोजना’ अभी भी अधूरी है। यह पुस्तक देश की सबसे अधिक चर्चित और सबसे कम समझी गयी परियोजना के बारे में है। इसको लेकर देश में और संभवत: दुनिया में भी सबसे बड़ा आन्दोलन हुआ, सबसे लम्बे कानूनी विवाद चले और पर्यावरण से सम्बंधित कई बातें हुईं। पुस्तक में एक अंदरूनी सूत्र पाठकों को बाँध की राजनीति, कैसे उस समय की सरकारों ने इसका प्रबंधन या कुप्रबंधन किया और आखिरकार इससे हासिल क्या हुआ—-इन सभी पहलुओं से वाकिफ करवाता है। ‘सरदार सरोवर परियोजना’ अभी पूरी होनी है और जैसा कि महेश्वर बाँध की कहानी बताती है, इसी दौरान नदी का संघर्ष भी जारी है, खुद पर होने वाले तमाम प्रहारों के बीच। (हिंदी अनुवाद : चैतन्य नागर) (सप्रेस)
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